|
भाजपा की सरकार बनते देख बाकी दलों की हताशा को आप इससे आंक सकते हैं कि वाराणसी में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को बेनियाबाग में सभा करने की अनुमति नहीं दी गई। यह सपा-कांग्रेस की मिलीभगत का एक नमूना है। लोकतंत्र की इस विचित्र लीला पर पूरा देश हतप्रभ है। ऐसा चुनाव आयोग ने जिला प्रशासन की संस्तुति पर किया।
–बनारस से अजय विद्युत
सिंहासन खाली करो अब जनता आती है– ये 16 अक्षर हैं। भारतीय संस्कृति में सोलह समृद्धि और वैभव की संपूर्णता का प्रतीक है। श्रृंगार 16, कलाएं 16 और सौभाग्य से यह 16वीं लोकसभा का चुनाव है। भीषण गर्मी में हो रहा चुनावी महाभारत इस बार कुछ विशेष है, जो पिछले चुनावों में देखने को नहीं मिलता था। विकास और समृद्धि की अलख जगाता एक सेनापति देश को भ्रष्टाचार, कालेधन, बेरोजगारी और आम आदमी की रोजमर्रा की दुश्वारियों जैसी समस्याओं पर विजय दिलाने के लिए युद्ध कर रहा है, तो परस्पर युद्धरत बाकी सेनाएं विजय के लिए नहीं बल्कि उस सेनापति का रास्ता रोकने के लिए लामबंद हो रही हैं। दरअसल बाकी दल अपनी हताशा और अस्तित्व बचाने की फिक्र में मूल्यहीनता के दलदल में इतने गहरे उतर चुके हैं कि उन्होंने साझा अंतिम हथियार उठाया हुआ है। आदमी को आदमी से लड़ाने का कुचक्र, देश को बांटना और मतदाताओं को लोभ और भय दिखाना ही उनका अंतिम हथियार है। उधर 60 साल के बाद अंधेरे कमरे में खिड़की के सुराख से कुछ रोशनी दिख रही है तो देश ने समृद्धि और विकास के पक्ष में जाने का, सम्मान से जीने का अपना दृढ़निश्चय जता दिया है। अब इसका ऐलान भर होने की अंतिम रस्म अदा की जाएगी जिसका कश्मीर से कन्याकुमारी तक उत्सुकता से इंतजार है। आध्यात्मिक नगरी वाराणसी इस बार देश और दुनिया को एक नई दिशा देने जा रही है। गंगा की पावन, सौहार्द, विकास और समृद्धि की अविरल धारा देश के नायक के रूप में नरेन्द्र मोदी का अभिषेक कर रही है, जिसमें भारत की अपनी मां के रूप में सेवा करने की सामर्थ्य और संकल्प है।
बेबस जनता की आंखों से खुशी की आखिरी उम्मीद भी छीन लेने को वे कितने बेताब हैं। अपनी बात जनता तक ले जाने में शर्मिंदगी के चलते वे कोई भी आत्मघाती कदम उठाने से नहीं हिचक रहे। भाजपा की सरकार बनते देख बाकी दलों की हताशा को आप इससे आंक सकते हैं कि वाराणसी में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को बेनियाबाग में सभा करने की अनुमति नहीं दी गई। यह सपा–कांग्रेस की मिलीभगत का एक नमूना है। लोकतंत्र की इस विचित्र लीला पर पूरा देश हतप्रभ है। ऐसा चुनाव आयोग ने जिला प्रशासन की संस्तुति पर किया। जिला प्रशासन की बागडोर जिलाधिकारी के हाथ होती है, जो सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के परिजन हैं। आगे की कहानी आप खुद समझ सकते हैं। इसे चुनाव पूर्व कांग्रेस और सपा द्वारा हार स्वीकारने की स्पष्ट घोषणा के तौर पर भी देखा जा रहा है।
गोरखधंधा यह कि राजग के खिलाफ डटे सभी दल प्रचार तो यह कर रहे थे कि मोदी की कोई लहर नहीं है, लेकिन लोगों के मन में कोई संशय नहीं था। अबकी बार मोदी सरकार… यह मात्र एक दल का नारा भर ही रह गया होता अगर जन–जन के मन तक न उतरता तो। अब जबकि यह दस सालों से दबी–पिसी जनता के मन तक पहुंच चुका है तो अपनी–अपनी करनी का हिसाब देने से बचने के लिए वे सभी सीमाएं तोड़कर नित नए पैंतरे बुनने में जुट गए हैं। धर्म, जाति, तुष्टीकरण, लालच जैसे सभी अस्त्र–शस्त्र बेकार जाने पर उनकी बौखलाहट स्वाभाविक ही है। एक बार देश में निर्माण का, विकास का बिगुल बज गया तो मात्र झूठ–फरेब की राजनीति पर टिके दलों के अस्तित्व के लिए मोदी की लहर, कहर ही है। और खासकर नरेंद्र मोदी के उत्तर प्रदेश में आने से तो कांग्रेस, सपा, बसपा की नींद हराम होनी ही थी। डर चुनाव में हारने का उतना नहीं, जितना जनता के सामने अपने कर्मांे के खुलासे से छाये अस्तित्व पर संकट का है। पर कोई जुगाड़ मोदी को नहीं रोक सकता, जनता को नहीं रोक सकता। यही लोकतंत्र की विशेषता है।
देश का राजनीतिक बैरोमीटर
बनारस एक ऐसा शहर है जहां के लोग देश का मिजाज बनाते हैं और यह बहुत सहज है, आत्मीय है। बनारस का ह्यएन्साइक्लोपीडियाह्ण माने जाने वाले अमिताभ भट्टाचार्य बुजुर्ग बंगाली पत्रकार हैं। कोई धन–संपत्ति–पद से विभूषित नहीं हैं, लेकिन सामने जाओ तो हाथ खुद उनके पांव की ओर चले जाते हैं। दिल्ली में अखबारों–चैनलों के नामी पत्रकार दादा से मिलने, बात करने को आतुर रहते हैं। दादा आहिस्ता से खुलते हैं– लोगों ने तय किया है कि हमको कोई झगड़ा मारामारी नहीं करना है और अतीत के नतीजों को देखें तो शहर के मिजाज में कोई प्रतिद्वंद्विता हमें दिखती नहीं।
ठीक है भरी दुपहरिया कोई सड़क पर घूम रहा हो तो उसे आप प्रचार कह सकते हैं। कहीं सभा हो तो आप उसे प्रचार मान लें। अगर आप इस शहर की परंपरा देखें तो वह उसके मिजाज की है। यहां का सौहार्द ऐसा है कि चाहे कोई भाजपा का समर्थक हो, कांग्रेस का हो, आआपा का हो या सपा–बसपा का, बाद में सब एक ही ठीए पर चाय पीते और एक–दूसरे का हालचाल लेते दिख जाएंगे। इस चुनाव में भी कोई जादू नहीं होने जा रहा। यह शहर किसी जादू में विश्वास ही नहीं करता। चुनाव कोई जादू–टोना नहीं है। रही बात चुनाव परिणाम की तो जिसके पास आंख है वह दीवार को पढ़ लेगा। बनारस और मैं कहूंगा कि देश की दीवार पर निर्णय लिखा हुआ है। 16 तारीख को सबको वह परिणाम मिल जाएगा। यह ठीक है कि मैं किसी प्रत्याशी की हताशा का कारण नहीं बनना चाहता, जनतंत्र है सब लोग लड़ रहे हैं। पर इस शहर का अपना मिजाज है। अपना लगाव है। बनारस में मोदी जीत रहे हैं, देश में मोदी की सरकार बन रही है, इसमें कम से कम मुझे कोई शक नहीं हैं।
एक बात बताऊं कि दादा कोई भाजपा–परस्त नहीं हैं। वह खांटी पत्रकार हैं। किसी भी प्रलोभन से अछूते दादा अचानक अध्यात्म में डूब जाते हैं, ह्यलोग यहां तमाम मुश्किल हालात में भी इतनी शांति सहजता से रहते हैं तो इसका कारण है भौतिक कामना की कमी। ह्यठीक है…ह्ण यह जो ठीक है, यह भाव यहां रचा–बसा है। थोड़े में संतुष्ट रहने की बात को चाहे आप अच्छा गुण मानें या बुरा गुण मानें, वह है इस शहर में। और यह एक अद्भुत गुण है कि संतोष में रहना। इसे परम सुख माना गया है। कुछ लोग आकर दो दिन में यह पुरानी आदत तो बदल नहीं सकते।
इतने वर्षां से बिजली की कटौती है, यहां पर हिंसा नहीं होती है। सड़कें गर्भगिराऊ रहीं, कोई हिंसा नहीं हुई। इसका मतलब यहां एक हद तक ह्यआर्ट ऑफ टॉलरेंसह्ण (सहनशीलता से जीने की कला) तो है। और यह शायद कुछ हद तक पूरे देश को बनारस से सीखना चाहिए। और अपने इस संतोषी स्वरूप के लिए बनारस के लोग लज्जित नहीं हैं। हम संतोषी हैं, यह हमारी कमजोरी है, ऐसा नहीं है। यह इस शहर का आध्यात्मिक स्वभाव है। इसे स्वभाव कहना गलत होगा क्योंकि स्वभाव तो वह है जो आदमी बदल सकता है। आध्यात्मिक स्वभाव नहीं बदलते। औरंगजेब आया, वारेन हेस्टिंग्स आया, कुछ नहीं बदल पाए।
यह ऐसा शहर है कि अगर किसी ने इस शहर का कुछ अच्छा किया तो वह व्यक्ति अमर हो जाएगा, यह बात तमाम लोगों ने जब कही तो उनकी आंखों की चमक देखने लायक थी। जैसे पानी गिरता है तो सबकी छत पर गिरता है, वैसे ही विकास भी ऐसा हो कि कोई अछूता न रह जाए। दादा बहुत बारीकी से अपनी पसंद बता जाते हैं– मैं नाम नहीं लेना चाहता, जो भी इसे करे। …और यहां जनसंख्या बहुत हो गई है, एक नया बनारस बसाया जाना चाहिए। एक बेहतरीन शहरीकरण की परिकल्पना हो। जहां सभी आधुनिक सुविधाएं हों। जिन्हें आधुनिक जीवन जीना हो वे वहां जाकर जिएं। बिजली, पानी, सड़कें विकास की सुविधाओं के साथ बनारस को एक आध्यात्मिक राजधानी के रूप में विकसित किया जाए। यहां मॉल वगैरह नहीं होने चाहिए, पिज्जा जैसे पाश्चात्य आडंबर नहीं होने चाहिए। वैसे यह कुछ लोगों की योजना में है। यह कोई बच्चे का खिलौना तो है नहीं कि तुरंत हाथ में पकड़ा देंेगे। गंभीर विषय है, समय लगेगा।
अड़ीबाजी बिना बात अधूरी
बनारस में अड़ीबाजी तो अस्सी इलाके की शान है। अब पूरी दुनिया तक इसकी खबर पहुंच चुकी है। यहां छोटी–छोटी चाय की दुकानों पर लोग जमा होते हैं और किसी भी बात पर बहस का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिन भर और रात दुकान बंद होने के बाद भी लोगों का जमावड़ा लगा रहता है। यहां बुद्धिजीवी और कलाकारों की अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुकी पंक्ति के लोग भी आते हैं तो छात्र और सामान्य लोग भी चाय की चुस्की के साथ न सिर्फ उनकी बातें सुनते हैं बल्कि अपनी भी खूब सुनाते हैं।
यहां पप्पू की दुकान है और एक पोईलाल जी की दुकान भी है जो एक जमाने में काफी आंदोलन कर चुके हैं। इसके अलावा यहां हजारी गुरु की भी दुकान है। यहां मिले मिथिलेश झा ने बताया कि धूमिल यहीं बैठकी किया करते थे और उनकी प्रमुख रचनाएं लोगों ने यहीं सुनीं, जिनको शायद तब यह पता भी न होगा कि वे कितने बड़े इतिहास बनने के साक्षी हैं। यहां मजा यह कि अगर दुकान के बाहर बीस लोग खड़े हैं तो वे तीन या चार समूहों में बहस कर रहे होते हैं। कभी–कभी संख्या बढ़ भी जाती है। एक शख्स एक समूह से दूसरे समूह का कभी भी सदस्य हो जाता है और किसी तीसरे या चौथे समूह का वक्ता या श्रोता दूसरे समूह में आ खड़ा होता है। संपूर्ण लोकतंत्र यहां दिखता है।
आजकल यहां की चर्चाओं के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं, अरविंद केजरीवाल हैं और अजय राय हैं। कौन जीतेगा कौन हारेगा, इस पर एक से एक तर्क दिए जा रहे हैं। मजे की बात यह कि मैं रात आठ बजे पहुंचा तो आधा घंटा जो सज्जन अरविंद केजरीवाल के समर्थन में बोल रहे थे, वो फिर दूसरे समूह में जाकर कांग्रेस के पक्ष में तर्क देने लगे। और ऐसी जोरदार बातें कर रहे थे मानो जिताकर ही मानेंगे। बाद में वो चाय की चुस्की लेने अलग हुए तो मैंने पूछा– नरेंद्र मोदी जी का क्या होगा? वो मेरे चेहरे की तरफ अचरच भरी नजरों से देखने लगे– आपको कोई शक है क्या? वह बनारस से जीत रहे हैं और प्रधानमंत्री होने वाले हैं… सरकार बनेगी भाजपा की, वह भी पूर्ण बहुमत के साथ?
'लेकिन अभी तक तो आप कुछ और ही कह रहे थे?ह्ण वह थोड़ा मुस्कुराए, ह्यभईया यह बनारस है। हम तो दूसरे और तीसरे नंबर के दावेदारों की बात कर रहे थे। किसी को छेड़ो न तो कईसे पता चलेगा कि कौन किधर जा रहा है?ह्णतो ऐसा है बनारस।इस बार बदलाव होना ही हैपोईलाल बेचते तो चाय हैं लेकिन अड़ीबाजी का वह भी एक अड्डा है। अस्सी की अड़ीबाजी नाम से एक अखबार में पोईलाल का कॉलम भी छपता है। रोज की बहस और मजेदार झलकियां वह शायद किसी पत्रकार को बताते हैं और उसके आधार पर कॉलम छपता है। मुझे यकीन इसलिए हुआ कि उन्होंने रात को बताया कि कल सुबह किस विषय पर कॉलम आने वाला है। बिल्कुल वही हुआ। पोईलाल किसी का समर्थन नहीं करते और उनका मानना है कि भ्रष्टाचार और शोषण विकास और समृद्धि का रास्ता बनाते हैं। उनका तर्क है कि जब तक आदमी परेशान नहीं होगा तब तक वह कुछ करने की नहीं सोचेगा। आदमी भ्रष्टाचार से परेशान होगा तो उसे दूर करने की भी सोचेगा। शोषण से परेशान होगा तो अपना विकास करने की सोचेगा, कुछ करेगा। अब उनके इस फार्मूले को चाहे हम मानें, या खारिज करें लेकिन उनका अपना तर्क है।
पोईलाल बोले– जनता को अब जागना ही होगा। ये ससुरे कांग्रेस को ही ज्यादातर गले लगाए हैं हर बार। किसी दूसरे की सरकार बनती भी है तो कितनी चलने देते हैं। ये जनता ही अपने शोषण के लिए जिम्मेदार है। अब पानी नाक से ऊपर जा चुका है तो बेचैनी है, इस बार बदलाव होना ही है इसे निश्चित जानिए। वहां चाय पी रहे तमाम लोग पोईलाल जी की हां में हां मिलाते हैं। तो कुछ कांग्रेस भक्त मुंह बिचकाते हैं– देख लेना किसकी हवा बनती है, किसकी निकलती है। अभी से क्या? ये लोग अब अपने आप को राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय मानते हैं। जाहिर है वहां एक से एक खांटी हीरे हैं जिनमें कोहिनूर बनने की हर क्षमता है। लेकिन मस्ती और फक्कड़ी के बनारसी मिजाज में ऐसे रमे हैं, ऐसे मस्त हैं कि कोई लालसा ही नहीं है। और जीते जी लालसा खत्म हो जाए यही तो मोक्ष है। इसलिए आप पाएंगे कि काशी मोक्षनगरी वास्तव में है। यहां मरने के बाद नहीं जीते–जी मोक्ष के आपको सैकड़ों उदाहरण चलते फिरते मिल जाएंगे। आप उनसे गले लग सकते हैं, बात कर सकते हैं।
'आप' भी वैसे ही निकले…
मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के फैकल्टी गेस्ट हाउस में ठहरा हूं। वहां तमाम शिक्षाविद और शोधार्थी व इक्के–दुक्के पत्रकार ठहरते हैं। शाम को भोजन कक्ष का दृश्य निराला था। प्रो. साहब ऊपर से आए तो उनके साथ 12-14 लोग और थे जो कहीं से भी शिक्षा क्षेत्र से जुड़े नहीं लग रहे थे। फिर वे सब बाहर निकले तो आम आदमी पार्टी की टोपी पहन ली। अगले दिन वे सुबह फिर मिले तो एक ने दूसरे से कहा– जरा ऊपर (ऊपर की मंजिल जहां वह ठहरे थे) पांच–पांच हजार रुपए वाली रसीद बुकें ले आना। शाम को वे भोजन करने बैठे तो आम आदमी पार्टी के पक्ष में हवा की बातें कर रहे थे। प्रो. साहब शायद उन सबके कोआर्डिनेटर थे और वे बनारस आआपा के प्रचार के लिए हरियाणा से आए थे। प्रो. साहब अंग्रेजी में बोले जिसका मतलब था– यहां ग्रामीण इलाकों में बहुत गरीबी और दरिद्रता है। एक कमरे में छ:-छ: महिलाएं रहती हैं। आआपा का यहां से जीतना तय है।
तो इस तरह शिक्षा संस्थानों के अतिथि गृह तक आआपा के वर्करों की रिहाइश और कार्य संचालन के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह वह पार्टी है जो शुचिता की सबसे बड़ी अलमबरदार बनती है और उसी के वर्कर झूठी पहचान के सहारे शहर में डेरा डाले पड़े थे।
टिप्पणियाँ