कण-कण में प्रेम और करुणा भाव जगाया
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कण-कण में प्रेम और करुणा भाव जगाया

by
May 10, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 May 2014 15:29:58

महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था जिन्होंने आगे चलकर बौद्ध पंथ की स्थापना की और उसके प्रवर्तक बने। बौद्ध पंथ विश्व के प्राचीनतम प्रमुख पंथों में से एक है। इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी माना जाता है। महात्मा बुद्ध के उपदेशों एवं वचनों का प्रचार-प्रसार सबसे ज्यादा सम्राट अशोक ने किया। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से व्यथित होकर सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तित हुआ उसने महात्मा बुद्ध के उपदेशों का पालन कर उन्हें अभिलेखों द्वारा जन-जन तक पहुंचाया। महात्मा बुद्ध के उपदेश आज भी देश-विदेश में जनमानस का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। वे प्राणी हिंसा के सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि-जैसे मैं हूं, वैसे ही वे हैं, और जैसे वे हैं, वैसा ही मैं हूं। इस प्रकार सबको अपने जैसा समझकर न किसी को मारें, न मारने को प्रेरित करें।
महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी वन में 563 ई ़पू ़में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन थे, जो कि शाक्य राज्य कपिलवस्तु के शासक थे। माता का नाम महामाया था, जो कि देवदह की राजकुमारी थीं। उनका बालक के जन्म के सात दिन बाद ही देहांत हो गया था। इसके बाद उनका लालन-पालन मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।
बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया जिसका अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्ति के लिए जन्म लिया हो। राजा शुद्धोधन ने जन्म के पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को उसका भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक जैसी दोहरी भविष्यवाणी की और कहा कि बच्चा एक महान राजा बनेगा या साधु बनेगा। सिद्धार्थ का मन बचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं के वर्णन में मिलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुंह से झाग निकलने लगते तो सिद्धार्थ उन्हें थका मानकर वहीं रोक देते और जीती हुई बाजी हार जाते थे। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दु:खी होना उनसे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने बचपन में चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए एक हंस के प्राणों की रक्षा की थी। सिद्धार्थ ने वेद और उपनिषद पढ़ने के साथ ही राजकाज और युद्ध-विद्या का भी कुशल प्रशिक्षण प्राप्त किया। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ संचालन में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता था। सिद्धार्थ एकान्तप्रिय और दयावान प्रवृत्ति के थे। इस कारण उनके पिता बहुत चिन्तित रहते थे। उनकी इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए उन्होंने सिद्धार्थ का 16 वर्ष की आयु में गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा से विवाह करवा दिया। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहां उनके पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम राहुल रखा गया। समस्त राज्य में पुत्र जन्म की खुशियां मनाई जा रहीं थीं, लेकिन सिद्धार्थ इसे अपने बंधन की श्रृंखला में जुड़ने वाली एक और कड़ी मान रहे थे। समस्त सुख प्राप्त होने के बाद भी सिद्धार्थ को शांति नहीं थी।
गृहत्याग से जुड़ी घटना
परंपरागत कथा के अनुसार बचपन में सिद्धार्थ के साधु बनने की भविष्यवाणी को सुनकर राजा शुद्धोदान ने बालक को साधु न बनने देने के हरसंभव प्रयास किए। शाक्यों का अपना एक संघ था । बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्य संघ का सदस्य बनना होता था। सिद्धार्थ जब 20 वर्ष के हुये तो उन्होंने भी शाक्य संघ की सदस्यता ग्रहण की और शाक्य संघ के नियमानुसार सिद्धार्थ को शाक्य संघ का सदस्य बने हुये आठ वर्ष बीत चुके थे। वे संघ के अत्यन्त समर्पित और पक्के सदस्य थे। संघ के मामलों में वे बहुत रुचि रखते थे। संघ के सदस्य के रूप में उनका आचरण एक उदाहरण था और उन्होंने स्वयं को सबका प्रिय बना लिया था। संघ की सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का एक राज्य था। रोहिणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी। शाक्य और कोलियों, दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे। हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा। ये विवाद कभी-कभी झगड़े और युद्ध में बदल जाता था। एक बार रोहिणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलि के नौकरों में विवाद हो गया जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हो गए। झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये। शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्य संघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा। लेकिन सिद्धार्थ ने ने उस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती, इससे युद्ध का बीजारोपण होगा। सिद्धार्थ ने अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा कि अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें। फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें। ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें। सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया, साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया। शाक्य संघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्तत: सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये। तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था। पहला सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, दूसरा अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना और तीसरा फांसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना। इस पर उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राजी हो गए ।
यह भी कहा जाता है कि एक बार अचानक जीवन के अलग-अलग चार दृश्यों-वृद्ध, रोगी, मृत व्यक्ति और सन्यासी ने उनके जीवन को वैराग्य की तरफ मोड़ दिया। इसके बाद से उनमें तीव्र गति से वैराग्य बढ़ने लगा और फिर एक रात पुत्र व अपनी पत्नी को सोता हुआ छोड़कर और घर व राज्य त्यागकर ज्ञान की खोज में वह दूर निकल पड़े। सबसे पहले सिद्धार्थ ने मगध की राजधानी में भिक्षा मांगी, राजगृह में अलार और उद्रक नामक दो ब्राह्मणों से ज्ञान प्राप्ति के लिए गए, योग-साधना सीखी लेकिन संतुष्टि नहीं हुई। उसके बाद निरंजना नदी के किनारे उरवले नामक वन में पहुंचे, जहां उनकी भेंट पांच ब्राह्मण तपस्वियों से हुई। इन तपस्वियों के साथ उन्होंेने कठोर तप किया परन्तु कोई लाभ नहीं हो सका। इसके उपरांत सिद्धार्थ गया (बिहार) पहंुचे, वहां उन्होंने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगाई और प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, वहां से नहीं उठेंगे।
बैसाख पूर्णिमा के दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की अनुभूति हो गई। उस दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। निकट के गांव में एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर लेकर पहुंची। सिद्धार्थ वहां बैठकर ध्यान कर रहे थे। महिला को लगा कि वृक्ष देवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। उसने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा-जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो। उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उन्हें सच्चा बोध हो गया। तभी से सिद्धार्थ महात्मा बुद्ध कहलाए। इस घटना को ह्यसम्बोधिह्ण कहा गया और जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था उसे ह्यबोधिवृक्षह्ण तथा गया को ह्यबोधगयाह्ण कहा जाने लगा।
चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर पंथके स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध पंथका उपदेश करने निकल पड़े। ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध आषाढ़ की पूर्णिमा को सर्वप्रथम सारनाथ (बनारस के निकट) पहंुचे। फिर वहां अपने पूर्व के पांच संन्यासी साथियों को उपदेश दिये। इन शिष्यों को ह्यपंचवगीर्यह्ण कहा गया है। महात्मा बुद्ध द्वारा दिये गये इन उपदेशों की घटना को ह्यधर्म-चक्र-प्रवर्तनह्ण कहा जाता है। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोंपदेश दिया और मित्रों को अपना अनुयायी बनाकर उन्हें पंथप्रचार करने के लिये भेज दिया।
महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु भी गये। वे 80 वर्ष की आयु तक अपने पंथ का संस्कृत की बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल पंथ की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। बौद्ध पंथ सभी जातियों और पंथों के लिए खुला होने से और बौद्ध पंथ प्रचार से भिक्षुओं की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी महात्मा बुद्ध के शिष्य बनने लगे। आगे चलकर राहुल और शाक्य वंशजों ने भी बौद्ध पंथ की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश देने के लिए अनुमति दे दी। भगवान बुद्ध ने ह्यबहुजन हितायह्ण लोक कल्याण के लिए अपने पंथका देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध पंथ के प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध पंथ चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध पंथ बहुसंख्यक पंथ है।परिनिर्वाणपाली सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार 80 वर्ष की आयु में महात्मा बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, कुन्डा नामक एक लोहार से भेंट के रूप में प्राप्त किया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। फिर भी उन्होंने कहा कि यह भोजन अतुल्य है। अंत में वे कुशीनगर गए, जहां बैसाख पूर्णिमा के दिन ब्रह्मलीन हो गए। इस घटना को ह्यमहापरिनिर्वाणह्ण कहा जाता है। इन्द्रधनुष डेस्क
 

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