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कांग्रेस के पूरक घोषणापत्र के संदर्भ में उठे सवालों को ईसाई समाज किस रूप में देख रहा है, इसे जानने के लिए हमने बात की दलित ईसाई चिंतक आरएल फ्रांसिस से। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश:
-तथा कथित दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की बात क्या संविधान के प्रावधान के अनुकूल है?
यह सब नब्बे के दशक से चल रहा है। लेकिन विभिन्न सरकारों के प्रयास के बावजूद उसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। लेकिन इसमें चर्च की नीयत ठीक नहीं है। भारत के दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति के दर्जे की जरूरत नहीं है, उसे चर्च के अंदर हिस्सेदारी की जरूरत है। धर्मांतरण के बाद दलितों को दोबारा अनुसूचित जाति की श्रेणी में रखना उनके साथ विश्वासघात है। चर्च को ऐसी मांग का नैतिक अधिकार नहीं है।
– विभिन्न सरकारों द्वारा इसे अमलीजामा न पहनाने के पीछे क्या कोई संवैधानिक समस्या थी?
इसमें संविधान संशोधन की जरूरत है, जबकि इस पर आम सहमति नहीं बन सकती। संविधान सभा की यह सोच थी कि गैर-हिंदुओं को इसके दायरे में नहीं रखा जाए।
– क्या संविधान सभा की यह राय सांप्रदायिक थी, जो अब उसमें बदलाव की बात उठाई जा रही है?
कांग्रेस चर्च के साथ मिलकर खेल कर रही है। इसको लेकर अंतरराष्ट्रीय दबाव है। कारण यह है कि भारत में चर्च तब तक आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक दलित ईसाइयों को दलित का दर्जा नहीं दे दिया जाता। आदिवासी इलाकों में आरक्षण के कारण ही चर्च का प्रभाव बढ़ा है। दरअसल, चर्च अपना साम्राज्य कायम करना चाहता है।
– ईसाई पंथ अपनाने के बावजूद अगर हिंदू दलितों की सामाजिक स्थिति नहीं सुधर पा रही है, तो धर्मांतरण का औचित्य क्या है?
अगर धर्मांतरण के बावजूद दलितों को असमानता और अस्पृश्यता से मुक्ति नहीं मिल पाती है, तो वह धोखा है।
-क्या इससे अवैध धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
बेशक चर्च को अपना साम्राज्य कायम करने का मौका मिलेगा, लेकिन चर्च के तर्क में दम नहीं है। वह लोगों को मूर्ख बना रहा है।
– क्या रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशें संविधान के प्रावधान के अनुकूल हैं?
न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र को इस्लाम और ईसाइयत की जानकारी नहीं थी। ऐसा लगता है कि उन्होंने सरकार की मंशा के अनुकूल रिपोर्ट दी थी।
– क्या सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सेकुलर राजनीति कर रही है?
कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति कर रही है। एक तरह से यह सांप्रदायिकता ही है।
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