वाराणसी में बने अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय
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वाराणसी में बने अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय

by
May 3, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 May 2014 16:12:38

-डॉ. भरत झुनझुनवाला-

श्री नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी को विश्व का आध्यात्मिक केन्द्र बनाने की बात की है। यह महान कार्य तब ही सम्पन्न हो सकेगा जब हम अध्यात्म की वैश्विक परिभाषा बना सकेंगे। सामान्य रूप से अध्यात्म को पूजा-पाठ एवं कर्मकाण्ड से जोड़ा जाता है। इससे ऊपर उठते हैं तो इसे सांसारिक बंधनों का त्याग कर कंदराओं में ध्यान करने आदि से जोड़ा जाता है। लेकिन इन स्तर पर हम वाराणसी को वैश्विक केन्द्र नहीं बना सकेंगे चूंकि हमारा पूजा-पाठ एवं त्याग सबको स्वीकार्य नहीं है। हमें एक और स्तर ऊपर उठना होगा। हमारे धर्मशास्त्रों में परब्रह्म और अपरब्रह्म की अलग-अलग व्याख्या की गयी है। पर ब्रह्म को निराकार एवं निर्गुण बताया गया है। परब्रह्म शांत रहता है। वह न कुछ चाहता है और न कुछ करता है। वह निष्क्रीय रहता है। तुलना में अपरब्रह्म को निराकार और सगुण बताया गया है। अपरब्रह्म रूप रहित है, जैसे वायु का रूप नहीं है। फिरभी वह सत, रज एवं तम गुणों से युक्त है। वह सक्रीय है। वह सृष्टिकर्ता है। इस्लाम तथा ईसाई मतों में ह्यगॉडह्ण की कल्पना अपरब्रह्म के अनुरूप है। उनका ह्यगॉडह्ण आकारहीन है। ह्यगॉडह्ण की कोई तस्वीर अथवा मूर्ति नहीं बनाई जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे हिन्दुओं के द्वारा ब्रह्म की कोई तस्वीर नहीं बनाई जाती है। उनका ह्यगॉडह्ण सक्रिय भी है। अत: यदि हम अध्यात्म को अपरब्रह्म से पकड़ें तो वैश्विक स्तर पर अपनी पैठ बना सकते हैं। अपरब्रह्म के स्तर पर हम सम्पूर्ण विश्व को अपने में समा सकते हैं। हमें कहना होगा कि मनुष्य को चाहिये कि अपने कर्मों को अपरब्रह्म अनुसार ढाले। जैसे अपरब्रह्म कहे कि प्रदूषण मत फैलाओ तो मनुष्य कचरे को रीसाइकिल करे। अथवा अपरब्रह्म कहे कि नदी को बहने दो तो मनुष्य नदी पर बांध न बनाये।
वाराणसी को विश्व का आध्यात्मिक केन्द्र बनाने को हमें त्याग की नई परिभाषा गढ़नी होगी। सामान्य रूप से परिवार आदि का त्याग करके किसी आश्रम में सेवा करने अथवा एकान्त में रहने को त्याग के रूप में समझा जाता है। इसके स्थान पर त्याग को अल्प समय के लिये पीछे हटकर दिशा निर्धारण के रूप में समझना होगा। जैसे शिक्षक कुछ समय के लिये पढ़ाई का कार्य बन्द करके फेकल्टी मीटिंग में हिस्सा लेते हैंं और पाठ्यक्रम के बारे में चर्चा करते हैं। फिर मीटिंग में लिये गये निर्णय के अनुसार पुन: पढ़ाने के कार्य में वे लग जाते हैं। यहां पढ़ाई के कार्य को कुछ समय के लिये बन्द करना ही त्याग है। इसका उद्देश्य पढ़ाई बन्द करना नहीं बल्कि पढ़ाई को और तेजी से सही दिशा में करना है। अथवा साफ्टवेयर इंजीनियरों को कम्पनी के द्वारा कुछ दिनों के लिये योग कैम्प में भेज दिया जाता है। वे जब वापस आते हैं तो ज्यादा तत्परता से साफ्टवेयर बनाने में जुटते हैं। त्याग का अंतिम उद्देश्य संसार को नकारना नहीं बल्कि अपरब्रह्म द्वारा बताई गयी दिशा में सक्रिय होना है। अध्यात्म की ऐसी व्याख्या प्रमुख मत-पंथों को मान्य हो सकती है। नई सरकार को चाहिये कि वाराणसी में अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक विश्वविद्यालय की स्थापना करे जहां एक ही छत के नीचे विभिन्न पंथों की शिक्षा दी जाये और इनके बीच परस्पर वार्तालाप हो।
वराणसी का गंगा के साथ अटूट सम्बन्ध है। गंगा पर बजरेे में बैठकर ठंडाई पीना वाराणसी की पहचान है। आज वह गंगा मैली हो गयी है। गंगा का अधिकाधिक पानी नरोरा बराज से खेती के लिये निकाल लिया जाता है। अक्सर नरोरा के आगे गंगा सूख जाती है। यानी केदारनाथ और बद्रीनाथ का प्रसाद लेकर आने वाला गंगाजल अब वाराणसी पहुंच ही नहीं रहा है। जो पानी पहुंचता है वह मुख्यत: काली और रामगंगा का है।
पानी कम होने से गंगा की प्रदूषण को वहन करने की क्षमता भी क्षीण हो गयी है। गंगा और यमुना के कमाण्ड एरिया में मेंथा, धान और गन्ने जैसी फसलों का उत्पादन हो रहा है जिन्हें पानी की भारी जरूरत होती है। तब ही वाराणसी में गंगा का सतत प्रवाह बनाये रखना संभव हो सकेगा। साथ ही गंगा में डाले जाने वाले प्रदूषित जल को भी रोकना होगा। आर्थिक विकास हम पर इतना हावी हो गया है कि गंदे पानी के ट्रीटमेंट पर हम खर्च नहीं करना चाहते हैं।
दूसरे, गंगा का पानी साफ बना रहेगा। समस्या है कि पानी को साफ करने में लागत आयेगी और बाजार में बिकने वाला माल यथा कागज और चीनी महंगे हो जायेंगे। ऐसे में हमें यह तय करना होगा कि हमारे लिये सस्ता कागज और सस्ती चीनी महत्वपूर्ण है या गंगाजी का स्वच्छ जल। विषय आर्थिक बनाम पर्यावरण का नहीं है। विषय सस्ती खपत के साथ गंगाजी की हत्या बनाम महंगी खपत बनाम गंगाजी के प्राणों का है।
गंगा जल का अध्यात्म से गहरा संबन्ध है। पानी में विचारों को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता होती है। गंगातट पर संतों द्वारा की जा रही तपस्या के बल को लेकर यह पानी वाराणसी पहुंचता है। गंगाजी का प्रदूषित जल ऋषि-मुनियों के उच्च विचारों को नहीं ग्रहण कर पायेगा जैसे सड़क के चौराहे पर संगीत सफल नहीं होता है। वाराणसी को विश्व का आध्यात्मिक केन्द्र बनाने के लिये हमें अध्यात्म की नई परिभाषा करनी होगी और गंगा की मर्यादा स्थापित करनी होगी। ल्ल

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