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-मोरेश्वर जोशी-
सार्वजनिक जीवन में मीडिया, प्रसार तंत्र और मार्केटिंग तंत्र का उपयोग कोई अनोखी बात नहीं रही। पिछले बीस वषोंर् में सूचना तकनीक का प्रयोग बढ़ने और इंटरनेट की सुविधा सुलभ होने के कारण उनके उपयोग और समस्याएं भी बढ़ी हैं। प्रयोग, उपयोग अथवा दुरुपयोग, इनके परे इस माध्यम से पूरे विश्व में कुछ युद्घ अथवा युद्घ-सदृश घटनाएं होती रहती हैं। उनका संज्ञान न लेना भी बहुत बड़ी भूल होती है। ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक में इस बारे में जो नए तंत्र बताए गए हैं, उनका विस्तार किसी महायुद्घ अथवा परमाणु युद्घ से कम नहीं है। भारत जैसा देश तो इस तंत्र का शिकार है ही, लेकिन जिनकी आर्थिक स्थिति सीमित है, विश्व के ऐसे बहुतांश देश इस आक्रमण के शिकार हुए हैं। आमतौर पर सोचा जाता है कि जब महासत्ताओं अथवा महासत्ताओं जैसी स्थिती रखने वाले संगठनों के आक्रमण चलते रहते हों तब क्या हम केवल हाथ पर हाथ धरे बैठे रहंे? हो सकता है कि परमाणु युद्घ अथवा बडे़ देशों के औद्योगिक उत्पादों के आयात-निर्यात युद्घ का सामना करते हुए कुछ सीमाएं आती हों, लेकिन यदि कोई सूचना तकनीक और प्रसार को युद्घ की तरह प्रयोग कर रहा हो, तो उसका सामना करने का सामर्थ्य भारतीय युवाओं में निश्चित है। बिना पूंजी और शिक्षा के लिए प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए भी पिछले पच्चीस वषोंर् में भारतीय युवाओं ने पूरे विश्व में सराहनीय उन्नति की है। साथ ही विश्व के मानचित्र पर अपनी छाप भी छोड़ी है। इसमें एक बात पर ध्यान देना होगा कि यह युद्घ प्रतिदिन बदलता है। वह कभी सीमा पर नहीं होता। मीठे बोल बोलकर फांसना उसका सबसे असरदार अस्त्र होता है। लेकिन यदि यही तंत्र भविष्य में पूरे विश्व में आक्रमण के लिए प्रयुक्त होने वाला हो, तो हमें भी उसका दृढ़ता से सामना करना होगा अन्यथा भविष्य हमें माफ नहीं करेगा।
ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण की चर्चा के दौरान यह विषय सामने लाने का कारण यह है कि पश्चिमी आक्रामकों का पिछले पांच सौ वषोंर् में आक्रमण का दायरा अत्यंत व्यापक हुआ है। कुछ माह पूर्व टीवी पर एक विज्ञापन आता था, ह्यठंडा यानी कोका कोलाह्ण। इसका उल्लेख इसलिए क्योंकि उस कंपनी का प्रयास यह बताना था कि पीने के पानी के लिए उस कंपनी का पेय ही विकल्प है। इस तरह की सोच तैयार करना इसका प्रयास था। उसी तरह विज्ञान यानी पश्चिमी देश, विकास यानी पश्चिमी देश, शिक्षा यानी पश्चिमी देश, सामर्थ्य यानी पश्चिमी देश बना दिया गया। इतना ही नहीं, इतिहास का आरंभ यानी पश्चिमी देश और विश्व पर नियंत्रण यानी पश्चिमी देश, इस तरह की मानसिकता तैयार करने में वे सफल हुए हैं। एक बात तो सच है कि पिछले पांच सौ वषोंर् से विश्व पर उनके आक्रमणों के कारण विश्व की भाषा यानी पश्चिमी भाषा एवं विज्ञान की भाषा यानी पश्चिमी भाषा, खासकर अंग्रेजी हो गई है। इस तरह की स्थिति बनाने में वे सफल हुए हैं। लेकिन जब ऐसी वस्तुस्थिति होती है, तब उसी के आधार पर शुरुआत करनी होती है। इसलिए खुली आंखों से दिखने वाले आक्रमणों का सामना करने के लिए जैसी मानसिकता चाहिए, वैसी ही मानसिकता न दिखने वाले लेकिन प्रत्यक्ष परिणाम करने वाले आक्रमणों का सामना करने के लिए भी चाहिए। वैसी तैयारी भी चाहिए।
यह बात तो सभी को विदित है कि विश्व में मुद्रणालय और समाचारपत्रों का प्रारंभ भी ईसाइयत के प्रसार के लिए हुआ था। आज भले प्रत्यक्ष समाचारों में उनका वर्चस्व न हो, तो भी मीडिया पर उनका ही नियंत्रण है। भारत के प्रमुख मीडिया समूह आज भी ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में हैं और उनके आधार पर वे अनेक आंदोलनों पर नियंत्रण करते हैं। कोई विषय उठाना है या अनदेखा कर हाशिए पर डाल देना है, इसका निर्णय आज विदेशी स्वामित्व वाले मीडिया समूह लेते हैं। इससे आज अनेक दबाव समूह तैयार हुए हैं। इनमें आमतौर पर दो प्रकार के तत्व दिखते हंै-प्रत्यक्ष चर्च के काम में सम्मिलित एवं अप्रत्यक्ष रूप से मदद करने वाले। पिछले दस वर्ष में जिस अनुपात में ईसाइयत का प्रसार एवं मतांतरण की गति बढ़ी है, उसमें इन मीडिया समूहों की भूमिका अहम रही है। पिछले दस वर्ष में भारत के प्रत्येक डायोसिस को दस चर्च बनाने का एजेंडा दिया गया है। एक डायोसिस यानी दो-तीन जिलों का विस्तार और एक चर्च यानी कम से कम दो-तीन सौ परिवारों का विस्तार होता है। फिलहाल पूरे विश्व में न्यूज असिस्ट सर्विसेस, फायोकोना यानी इंडियन अमेरिकन क्रिश्चियन ऑर्गनाइजेशन इन यूएसए, सेव द नेशन फॉर क्राइस्ट, जेग्राफा, न्यूज विद क्राइस्ट, ट्विस्ट,जोशुआ प्रोजेक्ट, बोस्टन थिओलॉजिकल इंस्टीट्यूट जैसी संस्थाएं सक्रिय हैं। आज इन संगठनों के ईसाई प्रसार पर जोर देने वाले पूरी दुनिया में सात बड़े न्यूज चैनल हैं। उसी तरह भारत में नाऊ चैनल है। इसके अलावा भारत के बहुतांश चैनलों पर उनके स्लॉट हैं ही। वास्तव में ऐसी संस्थाओं एवं चैनलों की सूची अंतहीन है। लेकिन ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक के अठारहवंें प्रकरण में दी गई इन संस्थाओं की सूची इसलिए अहम है क्यों कि उनके काम की क्षमता किसी बड़े देश के जासूसी विभाग से ज्यादा व्यापक है और उनका काम किस तरह से चलता है, यह वहां की सरकारें भी नहीं जान पातीं।
पिछले कुछ वषोंर् में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह काम करने वाली पश्चिमी कंपनियों का जाल व्यापक हुआ है। कोका कोला कंपनी का ही उदाहरण दिया जा सकता है। ऐसी सैकड़ों कंपनियों के जाल का उपयोग जानकारी इकठ्ठी करने और संबंधित हिस्सों में राजनीतिक लोगों का दबाव गुट तैयार करने हेतु एवं उनके लिए प्रतिकूल लगने वाले घटकों को रोकने के लिए किया जाता है। वर्ल्ड विजन, गॉस्पेल फॉर एशिया जैसी संस्थाओं से उनका सहयोग होता है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री के दस वर्ष पूर्व सत्ता में आने पर इन संगठनों ने उन पर दबाव बनाकर ईसाईकरण का विरोध करने वाली, उनकी भाषा में, उन्हें प्रताडि़त करने वाली संस्थाओं पर कुछ सीमा तक पाबंदी लगवा दी थी। उनके नियंत्रण में काम करने वाली कंपनियों के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का संयुक्त प्रशिक्षण होता है। अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों से उनका सहयोग होता है। इनमें से कुछ गुट तो व्हाइट हाऊस से संबंध रखते हैं। अर्थात यह काम केवल भारत तक सीमित नहीं है, पूरे विश्व में उनका काम जारी है। लेकिन फिलहाल भारत पर ध्यान केंद्रित किया गया है। विश्व के विभिन्न देशों के सवा सोलह हजार समाज-गुट इस काम के लिए निश्चित किए गए हैं। इनमें से सवा दो हजार गुट भारत में हैं। चीन में सवा चार सौ हैं।
विभिन्न चर्च, विदेशी विश्वविद्यालय, सामाजिक काम करने वाली संस्थाएं, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, विभिन्न अनुदानों पर चलने वाले स्थानीय विश्वविद्यालयों के छात्र उनमें शामिल हैं। इसमें एक बात पर ध्यान देना होगा कि जिनको भारत के शत्रु, जिहादियों एवं माओवादियों का सहयोग लेकर उनकी मदद से युद्घ जैसी मुहिम चलाने का कौशल हासिल है, उनके लिए स्थानीय विश्वविद्यालयों, राजनीतिक दलों, छोटे संगठनों, युवा संगठनों, कला विकास संगठनों आदि का सहयोग लेना कोई कठिन काम नहीं है। भारत पर पूरा ध्यान केंद्रित करने का एक कारण यह भी है कि पिछले आठ सौ वर्ष जिहादियों की हिंसा एवं दो सौ वर्ष यूरोपीय लोगों की गुलामी सहने के बावजूद यहां उनका जितना विरोध हुआ उतना विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। इसलिए यहां जितना हो सके उतना अकेले अन्यथा अन्य भारत विरोधी गुटों की सहायता से उनको वह काम पूरा करना है। स्वाभाविक है कि इस सदी की यह सबसे बड़ी चुनौती स्वीकारने के लिए भारतीय युवाओं को सन्नद्घ होना होगा।
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