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.मुजफ्फर हुसैन
भारत में सदियों से चली आ रही कुटुम्ब प्रथा में परिवार का बड़ा पुत्र पिता का वारिस बनता आया है। इसकी सम्पूर्ण झलक हम भूतकाल के राजतंत्र में भी देखते आए हैं, इसलिए राजगद्दी का वारिस राजा, महाराजा, नवाब और जागीरदार अपने बड़े बेटे को मनोनीत करते थे। भारत की शासन प्रणाली आजादी से पूर्व जो किसी भी दौर में रही हो, इस सिद्धांत का पालन करती थी। अरबस्तान से आए मुस्लिम शासकों ने भी इसी परम्परा का पालन किया। ब्रिटिश राज पहले कम्पनी के माध्यम से चलता था और बाद में क्वीन विक्टोरिया का साम्राज्य स्थापित हो गया। वे जिसका आदेश लंदन से जारी करती थीं, उसे भारत का वायसराय नियुक्त कर दिया जाता था। इसीलिए कोई लॉर्ड का बेटा दिल्ली का लॉर्ड और वायसराय का बेटा वायसराय नहीं बन सका। भारत की प्राचीन पद्धति में गांव की पंचायत के सभापति के रूप में उपस्थित जनसमुदाय किसी परिपक्व बुजुर्ग को अपनी उक्त सभा की कार्यवाही के लिए चुन लिया करते थे। आजाद भारत में अब ऐसा नहीं होता है, पंच और सरपंच चुनाव पद्धति से चुने जाते हैं। 1950 में स्वीकार किए गए भारतीय संविधान के अंतर्गत हमारा जनप्रतिनिधि विधानसभा के लिए विधायक के रूप में और संसद के लिए सांसद के रूप में निर्वाचित होता है। ये प्रतिनिधि मिलकर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार का गठन करते हैं, यह सब हमारे संविधान के तहत होता है। इस प्रकार विधायक और सांसद हमारे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं। कमोबेश अब हर देश में जहां लोकतांत्रिक सरकारें हैं, इसी प्रकार से प्रतिनिधियों का चुनाव सम्पन्न होता है। लेकिन हमारी राजनीतिक पार्टियां जिन्हें टिकट देती हैं वे ही चुनाव लड़ने के अधिकृत पात्र होते हैं। इस क्रम तक राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिक स्वरूप बना रहता है। इसके पश्चात जो भी प्रतिनिधि निर्वाचित होता है वह धीरे-धीरे पार्टी की आलाकमान को भी यह विश्वास दिलाने लगता है कि मात्र यही उम्मीदवार पार्टी को विजय दिला सकता है। प्रारम्भ के वर्षों में लोगों में इतनी जागरूकता नहीं बढ़ी थी कि वे अपने दल को अपने साधनों से प्रभावित कर सकें, लेकिन जब सभी राजनीतिक दलों में रस्साकशी होने लगी तो आलाकमान इस मुद्दे पर विचार करने लगा। उम्मीदवार को पार्टी का टिकट मिलते ही जब भविष्य की चिंता होने लगती है, वह तब अपने आसपास विश्वसनीय व्यक्ति को खोजता है अर्थात अपने प्रियजन को तैयार करने लगता है।
इस प्रकार लोकतांत्रिक पद्धति से ही वह वंश परम्परा, अपने मित्र, समाज और सबसे बढ़कर घरवालों को वरीयता देने लगता है। इसके दो लाभ होते हैं-एक तो भविष्य में उसे धोखे और भीतरघात का भय नहीं रहता और दूसरा उसने कमाई के जो उल्टे-सीधे साधन तैयार किए हैं, उनसे वह लाभान्वित होता रहता है। इस प्रकार बड़ी खूबसूरती से यह तानाशाही लोकतंत्र में बदल जाती है। तीसरे आम चुनाव तक हमारा लोकतंत्र इस रोग से बहुत पीडि़त नहीं था। उसके कुछ कारण थे, एक तो नीतिमत्ता से युक्त राजनीतिज्ञ चुनावी क्षेत्र में उतरते थे। उन दिनों जाति और सम्प्रदाय का बोलबाला भी नहीं था। लोगों में राजनीतिक चेतना कम थी जिससे इस बहस पर अंकुश बना रहा। प्रत्येक राजनीतिक दल में कद्दावर और लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले नेता थे। कम पढ़े-लिखे होने के कारण उनमें उठापटक की आदत भी नहीं थी। सबसे बढ़कर यह बात थी कि भारतीय राजनीति में बहुत अधिक धन की रेल-पेल भी नहीं थी। निर्वाचित प्रतिनिधि अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी नहीं थे और देश को सर्वोपरि मानकर अपने चरित्र और व्यवहार से ऐसा कुछ भी नहीं करते थे जिससे उनकी पार्टी और उसके नेताओं को नीचा देखना पड़े। यद्यपि जवाहरलाल नेहरू और अन्य विरोधी दलों के सम्मुख ही 1957 में मूंदडा कांड हो चुका था। 1962 में जब भारत-चीन युद्ध हुआ उसके बाद मर्यादाएं भंग होेने लगीं। इस युद्ध में भारत की मासूमियत जल गई और पवित्रता का अवमूल्यन होने लगा।
इंदिरा गांधी की आवाज में दिन-दहाड़े बैंक से चार लाख रुपए निकलवा लिए गए। समय आगे निकलता गया और लोकतांत्रिक सिद्धांत स्वाहा होते चले गए। अपना स्वार्थ पूरा करने और वैध-अवैध सम्पत्ति प्राप्त करने की होड़ लग गई। काला धन जमा कराने के लिए स्विस बैंक के दरवाजे खुल गए। राजनीति में अपने वर्चस्व को कायम करने और उसे अपना उद्योग बनाने के लिए येन-केन प्रकारेण संसद और विधानसभा में अपनी सीट कायम रखने के लिए सभी प्रकार के हथकंडे अपनाए जाने लगे। इस इमारत पर चढ़ने के लिए सीढ़ी के रूप में अपनी उम्मीदवारी की इजारेदारी कायम करने की तरकीबें तलाशी जाने लगीं। इसमें प्राथमिक बात यह थी कि चुनाव में अपनी उम्मीदवारी कायम रखने की परम्परा। दो-तीन बार चुनाव लड़ लेने अथवा तो हार जाने के बाद भी सगे संबंधियों को अपने स्थान पर बिठा देने के लिए आकाश-पाताल एक किए जाने लगे। मां-बाप के बाद उनके बेटा-बेटी, पति के बाद पत्नी, भाई के बाद बहन, चाचा के बाद भतीजा, मामा के बाद भांजा यानी जितने भी रिश्ते हैं उन्हें रुपए की तरह भुनाने की परम्परा चल पड़ी। उम्मीदवार की योग्यता केवल रिश्तेदारी तय कर ली गई। जिसका परिणाम यह आया कि पार्टी योग्य उम्मीदवार से तो वंचित हो गई और उसके स्थान पर सगे संबंंधियों की फौज खड़ी हो गई। पार्टी आलाकमान भी लेन-देन के फेर में अंधा हो गया। ऐसी बंदरबांट चली कि योग्यता और वफादारी के स्थान पर लाखों-करोड़ों के लेन-देन का बाजार गर्म हो गया। उम्मीदवार का साक्षात्कार लेते समय पहला सवाल पूछा जाने लगा चुनाव में कितना खर्च कर सकोगे? और पार्टी फंड में कोई पार ही नहीं। यानी भारत का लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रवाद के चौराहे पर जलकर भस्म हो गया। नेताओं की इन काली करतूतों का कच्चा चिट्ठा तो खोलना कठिन है, लेकिन यह एक प्रसन्नता की बात है कि इससे कोई वंचित नहीं रहा। सभी राजनीतिक दल इसके शिकार हो गए। यहां तक कि एक गीत में कवि को कहना पड़ा कारवां निकल गया, गुबार देखते रहे। वर्तमान परिदृश्य में भी तलाशने पर ऐसे लोग मिल जाएंगे। इन करतूतों में जिन हस्तियों ने भाग लिया उनके कुछ चौंका देने वाले नाम देखिए। सूची तो बड़ी लम्बी है, आपको याद हो तो अवश्य उनका भी समावेश कर लें। वर्तमान संसद के चुनाव में ऐसे 72 नाम ढूंढ़े जा सकते हैं। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और जगजीवन राम तो भूतकाल की बात हो गए। लेकिन उनका परिवार यह परम्परा सोनिया, राहुल और मीरा कुमार के रूप में निभा रहा है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी चिदम्बरम के बेटे कार्ती पी. चिदम्बरम, मेनका गांधी के बेटे वरुण गांधी, यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा। राजमाता विजयाराजे सिंधिया के परिवार में न केवल उनकी पुत्री वसंुधरा राजे, बल्कि मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल में उनकी दूसरी पुत्री यशोदा राजे सिंधिया भी माता की विरासत को संभाले हुए हैं। सोने पे सुहागा तो यह है कि मुख्यमंत्री का बेटा दुष्यंत सिंह अब तीसरी पीढ़ी में इस परम्परा को संभाले हुए है। प्रमोद महाजन की पुत्री पूनम महाजन, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा, शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले वर्तमान में चुनाव लड़ रहे हैं। लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी, जो मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और बेटी मीसा भारती भी मैदान में हैं। राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, सुनील दत्त की बेटी प्रियादत्त, साहब सिंह वर्मा के बेटे परवेश वर्मा अब इस विरासत को संभाले हुए हैं।
कश्मीर में राजनीतिक स्तर पर भले ही धारा 370 हो, लेकिन उत्तराधिकार के संबंध में ऐसी कोई रुकावट नहीं है। फारुख अब्दुल्ला शेख अब्दुल्ला केबेटे हैं और अब तीसरी पीढ़ी में उमर अब्दुल्ला विराजमान हैं। रूबिया के पिता जो इससे पूर्व मुख्यमंत्री थे उनका खानदान भी श्रीनगर की गद्दी पर आ धमका है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा के पुत्र दीपेन्द्र हुड्डा और असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के पुत्र गौरव गोगोई लोकसभा में अपना भाग्य अजमा रहे हैं। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई, ओमप्रकाश चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला, हरियाणा के ही बंसीलाल की नातिन श्रुति चौधरी, हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर, रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी चुनाव लड़ रहे हैं। दक्षिण भारत भी इससे वंचित नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री रहे देवगौड़ा का बेटा कुमारस्वामी भी चुनावी मैदान में है। राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख अजीत सिंह ही केवल चुनाव मैदान में नहीं हैं, बल्कि उनके बेटे जयंत चौधरी भी चुनाव मैदान में हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हंै, लेकिन भाई भतीजों को प्रवेश दिलाने और चुनाव लड़वा कर मंत्री बनवाने में अग्रणी रहते हैं। राजनीति में परिवारवाद के विरुद्ध बोलने वाले नेता और उनकी पार्टियां लगभग सभी चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहे हैं। केन्द्र और राज्यों में कुल मिलाकर इन पूर्व राजनीतिज्ञों की गिनती की जाए तो 4000 का आंकड़ा पार कर जाता है। उक्त आंकड़ा पिछले 8 वर्षों का है। पुराना रिकॉर्ड खंगाल पाना कठिन है। लगता है भारत में वंशवाद और उत्तराधिकार का भविष्य उज्ज्वल है। एक बात तय है कि लोकतंत्र के नाम पर इस देश में घरानाशाही स्थापित हो रही है। कुछ समय बाद इनकी एक पार्टी बन जाए तो आश्चर्य की बात नहीं। भविष्य में भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश होगा, जो इन सगे-संबंधियों का एक राजनीतिक दल स्थापित कर सकेगा। असंख्य नाम छूट गए, लेकिन उनके परिवारजन इस भूल के लिए लेखक और पाठकों को क्षमा कर देंगे।
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