मतदान के बाद जिस समय डॉ. मनमोहन सिंह यह कह रहे थे कि देश में किसी की कोई लहर नहीं है ठीक उसी समय काशी का केसरिया उफान पूरा देश देख रहा था। टीवी पर दोनों दृश्यों को देख राष्ट्रकवि दिनकर जी की
लिखी पंक्तियां अचानक मन में कौंध गईं: सदियों की ठंडी, बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह समय का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।।
बहरहाल, अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के तौर पर जो दहाई आंकड़े पर भी महंगाई की सुरसा को नकारते रहे, राजनैतिक व्यक्ति के तौर पर उन्हें जनाकांक्षाओं की इस हिलोर की अनदेखी करने की छूट मिलनी ही चाहिए। आशा है जनता ने प्रधानमंत्री के बयान का बुरा नहीं माना होगा। जमीन से कटे नेता और सत्ता गलियारों की शीतलता में बुद्धि विलास करने वाले विश्लेषक यदि महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की पीड़ा समझते तो बात ही क्या थी! संपूर्ण भारतीय राजनीति को एक वंश पर केंद्रित कर देने वालों ने संपन्नता और सामाजिक सौमनस्य का ऐसा आभासी दरबार रचा था जहां हर घड़ी राजा को तो पूजा जाता था किन्तु फरियादियों का प्रवेश वर्जित था। प्रधानमंत्री मानें ना मानें, आज जनता की रोष भरी हुंकार से यह सारा छद्म तार-तार हो गया लगता है। बहरहाल, संप्रग सरकार के शेष पैरोकार भले इस जन तरंग को मीडिया की मनगढंत कल्पना कहते रहें लेकिन देश के कोने-कोने से आ रही खबरें बताती हैं कि परिवर्तन की यह लहर अपना निश्चित किनारा छूने वाली है। चेहरे चाहे शांत दिखें किन्तु राजनैतिक बदलाव की इस आहट ने सत्ता की सौदेबाजी करने वालों को अजीब बौखलाहट से भर दिया है। बांटने की राजनीति करने वाले विकास का जिक्र नहीं करना चाहते, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के उन आंकड़ों से मुंह छिपाना चाहते हैं जो उनके गले में बंधे हैं। यह बेवजह नहीं कि कांग्रेसी सत्ता के राजघराने का निशाना घूम-फिरकर एक ही है। यह भी बेवजह नहीं कि आम आदमी पार्टी की तेजतर्रार नेता शाजिया इल्मी मुसलमानों को ह्यकम्युनलह्ण होने की नसीहत देते हुए पकड़ी गईं। दरअसल, यही वह रग है जिसे दबाकर ह्यप्रगतिशीलह्ण ताकतों की विषबेल भारत के आंगन में पसरती गई। बहरहाल इससे दो बातें साफ हो गईं। पहला, साफ-सुथरी राजनीति का दम भरने वालों की मंशा सिर्फ सेकुलर ठप्पा लगाना नहीं बल्कि इससे कहीं आगे बढ़कर विभाजनकारी राजनीति को ही अपने-अपने तरीके से पोसना है। दूसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण बात, बंद कमरे में मुसलमानों के दर्दमंद दिखने वाली कथित सेकुलर जमात को थोक वोटों की सौदेबाजी से पहले सौ बार यह सोचना होगा कि अब वहां भी खुलापन आ रहा है और ऐसी गुपचुप बैठकों के वीडियो टेप वही लोग जारी भी कर सकते हैं जिन्हें हर बार सिर्फ फुसलाया जाता रहा। जनता के हिमायती दिखते हुए उसी को ठगने का खेल चला तो लंबा लेकिन अब नहीं चलने वाला। हर बार विकास के मुद्दों पर छिड़ी बहस को सांप्रदायिक रुख देने में माहिर सेकुलर ब्रिगेड के लिए भारतीय राजनीति में बदलाव का यह दौर कष्टकारी है। उनके लिए कष्ट इस बात का है कि अब जनता काम को कसौटी पर रखती है। विकास के पैमाने पर अमेठी बनाम गुजरात का तुलनात्मक सच खंगालती, गुजरात में क्या हुआ और अमेठी में क्या नहीं हुआ इसकी पर्तें खोलती, हमारी रिपोर्ट बताती हैं कि वंशवादी राजनीति के कस्बाई गढ़ों में भी लोग विकासपरक राजनीति के उस राज्य मॉडल की चर्चा करने लगे हैं जिससे उनकी जिंदगी बेहतर हो सकती है। जनता राजनीतिकों के सपनीले फंदों के परे अपने भले की बात खुद सुनने-गुनने लगे इससे बेहतर बात लोकतंत्र के लिए क्या हो सकती है। पूर्वोत्तर से सरोकार ना रखते हुए उसका प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ने सरकार की अगुवाई भी उस निस्पृह ठंडे भाव से की जहां जनाकांक्षाओं की बजाय परिवार के संकेत उनके लिए अहम थे। उन्हें यह लहर निश्चित ही नहीं दिखती होगी लेकिन देशव्यापी केसरिया लहर के संकेतक के तौर पर काशी कैसा डोल रहा है यह पूरी दुनिया ने देखा। आशा की जानी चाहिए कि परिवर्तन की यह लहर सिर्फ सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित नहीं होगी बल्कि इससे भारतीय राजनीति में उस नए अध्याय का सूत्रपात होगा जहां वंश से बड़ा देश होगा और राजा की बजाय प्रजा की आकांक्षा का स्थान ऊंचा होगा।
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