बदलाव की दस्तक, नौकरशाही में उठापटक
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चुनाव की बयार ने इस सरकार को इसके घपलों,घोटालों पर जनता की नाराजगी का अहसास करा दिया है और सत्ता में बदलाव अवश्यंभावी दिखने लगा है। ऐसे में वरिष्ठ नौकरशाहों के पदों में फेरबदल करने की आपाधापी इस सरकार की गफलत ही झलकाती है।
आालोक गोस्वामी
नाव के इस मौसम में कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक लहर तो साफ दिखाई देती है। सेकुलर भले खुलकर इसे न स्वीकारे लेकिन देश के मतदाताओं का मन भ्रष्टाचार, महंगाई, सड़ी-गली व्यवस्था और कलयुगी दुर्योधनों से इतना भन्ना चुका है कि सत्ता की कमान नए कर्णधारों को सौंपने को वह तैयार दिखता है। आएदिन के घोटालों और आसमान छूते दामों ने यूपीए-2 की हालत ऐसी कर दी है कि आम आदमी को उसका नाम सुनकर उबकाई सी आती है। प्रधानमंत्री पर आई बारू की किताब ने रही- सही कसर पूरी कर दी कि इन सारे नाक कटाने के कामों की कमान तो सोनिया गांधी और उनके युवराज के हाथों में थी, मनमोहन ह्यकठपुतलीह्णभर की भूमिका निभा रहे थे। ह्यकठपुतलीह्ण के मीडिया सलाहकार पचौरी लाख आंकड़े दें पर किसी नौसिखिया पत्रकार तक को उनकी बात पचने लायक नहीं लगी। दीवार पर लिखी इबारत शीशे सी साफ चमक रही है कि ह्यकठपुतलीह्ण सरकार के दिन पूरे हुए और एक नई जिम्मेदार सरकार कमान संभालने वाली है। समाज से लेकर सरकारी महकमों तक यह साफ हो चला है कि भाजपा पर लोगों का भरोसा जमता जा रहा है, उसे अब एक बड़ी भूमिका निभाने को तैयार रहना है।
ऐसे में हवा सूंघकर ही भनक लगा लेने वाले नौकरशाह भला बदलाव की दस्तक से अनजान कैसे रह सकते हैं। और जैसा सत्ता-गलियारों में आजकल दिखाई दे रहा है उसकी तह में जाने पर बात साफ समझ आ जाती है कि जिस सरकार की इतने सालों सेवा की उससे जाते जाते अपना कुछ भला करवाने की होड़ में सब जुटे हैं। राजधानी नई दिल्ली में इन दिनों अपनी पसंद की नियुक्तियों, पसंद के ओहदों और पसंद के ठिकानों पर तबादलों का जोर है। कद्दावर अफसर मंत्रियों की खुशामद करके अपना नाम किसी बोर्ड में, किसी आयोग में तो किसी दूतावास में कराने की कतार लगाने लगे हैं। साध एक ही है कि इस सरकार से रुक्का तो लिखवा लें, क्योंकि कहीं आने वाली सरकार हमारे मीठी बोलों से न पिघली तो कैसे चलेगा। लिहाजा नार्थ और साउथ ब्लॉक में फाइलों का सरकना जोरों पर है।
साउथ ब्लॅाक के एक मुहाने पर स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय तबादलों की गाथा लिखने में अव्वल दिख रहा है। वजह यह भी हो सकती है कि वही तो बदलाव के केन्द्र में रहने वाला है। मौजूदा सत्ता भी चाहती है कि बेआबरू होकर कूचे से निकलने से पहले अपने चुनिंदाओं को मौके की जगहों पर तैनात कर दें ताकि वक्त- बेवक्त उनसे कुछ लाभ मिल जाए। मिसाल के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन के निजी सचिव विक्रम मिस्त्री की ही बात करें, जिन्हें स्पेन में भारत का राजदूत बनाए जाने की घोषणा की जा चुकी है।
मिस्त्री 1989 में विदेश सेवा में जुड़े थे, 2012 से पीएमओ में काम देख रहे हैं। ऐसे ही अरिन्दम बागची विदेश सेवा से आए और पीएमओ में निदेशक रहे। अब बताते हैं, उनका नाम श्रीलंका में भारतीय दूतावास में उप उच्चायुक्त पद के लिए तय कर लिया गया है। इंदुशेखर चतुर्वेदी को आईएमएफ में वरिष्ठ सलाहकार बनाने की बात है। वे 2008 से प्रधानमंत्री के निजी सचिव हैं, उससे पहले वे 2004 से योजना आयोग का काम देखते आ रहे थे। इंदुशेखर भारतीय प्रशासनिक सेवा के झारखंड कै डर के अफसर हैं। ये तो हुई पीएमओ की बात, जहां के अधिकारियों ने चुनाव के मौसम में बदलाव के संकेत सबसे पहले समझ लिए और अपने मन के पद के लिए सही दरवाजे भी खटखटा दिए।
सरकार के दूसरे महकमों के भी कई अफसर जाती सत्ता से अपने लिए कुछ पाने की गुहार लगाने में जुटे हैं। उन्हें भी लगता है कि लहर के मुताबिक नई सरकार भाजपा की अगुआई वाली ही आई तो उन्हें शायद मनमाफिक रुतबेदार पद न मिले। वैसे चुनाव के मौसम में इस तरह का चलन सालों से देखने में आता रहा है। नई सरकार जब आएगी तब आएगी, अभी वाली सरकार से जितना पा सकें पा लो, शायद यही रहता होगा अफसरों के मन में। या शायद यह कि जाते जाते इस सरकार से पद तो ले ही लिया जाए जिसे बदलना आने वाली सरकार के लिए एकदम से संभव नहीं होगा। आखिर वह क्या चीज है जो अफसरों या आला नौकरशाहों जाती सरकार से नए पद पाने को उकसाती है? इस बारे में हमने कुछ पूर्व नौकरशाहों से बात की।
विक्रम मिस्त्री-प्रधानमंत्री के निजी सचिव मिस्त्री 1989 में विदेश सेवा से जुड़े थे, अब स्पेन में भारत के राजदूत बनाए गए हैं।
अरिंदम बागची-पीएमओ में निदेशक रहे बागची का अब श्रीलंका में भारत के उप उच्चायुक्त के नाते जाना तय हो गया है।
गोरांगलाल दास-वाशिंगटन में भारत के दूतावास में तैनाती तय।
इनकी घोषणा बाकी
इंदुशेखर चतुर्वेदी-2008 से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निजी सचिव रहे इंदुशेखर झारखंड कैडर के आईएएस हैं, अब आईएमएफ में वरिष्ठ सलाहकार बनने जा रहे हैं, फैसला लगभग हो चुका है, घोषण बाकी है।
पूर्व रॉ प्रमुख सी. डी. सहाय चुनाव के दौरान नौकरशाहों के तुरत-फुरत तबादलों और नियुक्तियों को लोकतंत्र की नजर से सही नहीं मानते। पाञ्चजन्य से बात करते हुए उन्होंने पुराने वक्त को याद किया और कहा, जब वे सेवा में थे तब नौकरशाहों के पदों को लेकर इस तरह राजनीतिक निर्णय नहीं लिए जाते थे। सरकार किसी की हो, पद के अनुसार फैसले होते थे और कार्रवाई की जाती थी। किसी की राजनीतिक सहूलियत का कोई लेना-देना नहीं था। सहाय मानते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी पद्धति की क्यों न हो, मुख्य कामकाज, सरकार को बल और स्थायित्व प्रशासनिक मशीनरी उपलब्ध कराती है। यह चीज व्यवस्थाओं को सुचारू रखती है। राजनीतिक लोगों के अपने कार्यक्रम, अपने एजेंडे होते हैं, उनके क्रियान्वयन के आधार पर वे चुनाव का सामना करते हैं। उनके बाद जो भी सरकार में आता है उसका अपना घोषणापत्र, एजेंडा और काम तय होते हैं। इस बदलाव के दौर में सरकारी तंत्र को स्थायित्व और क्रियाशील रखने का काम नौकरशाही के जिम्मे होता है। हालांकि अमरीका में उलट है, वहां तो एक राष्ट्रपति के हटने के बाद पूरा अमला बदल जाता है और बिल्कुल नई टीम आती है। तो किसी भी लोकतंत्र में आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए कि बदलाव के दौर में जब सरकार की गति मंद पड़ जाती है, तब नौकरशाही को आगे आकर व्यवस्था चलाए रखनी चाहिए।
पूर्व रॉ प्रमुख यह भी मानते हैं कि आज जिस तरह दो- ढाई महीने चुनाव में लगने लगे हैं उस दौरान सरकार की उपस्थिति नगण्य दिखती है, जो कि ठीक नहीं है। उनके अनुसार, ऐसे में ज्यादातर नौकरशाहों को तय कायदों और संविधान के दिखाए रास्ते पर बढ़ते हुए, अपनी ताकत नहीं, दिमाग दिखाना चाहिए, बौद्धिक ईमानदारी दिखानी चाहिए। लेकिन आज जिस तरह का चलन दिखता है वह ठीक नहीं है और इसके लिए नौकरशाही और राजनीतिक लोग दोनों की जवाबदेही बनती है। ऐसा नहीं होता कि आप नौकरशाह हैं तो मनमानी कर लें। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां बदली सरकार ने अपने मन से किसी को कोई अलग जिम्मेदारी देने का फैसला किया तो कानून से बाहर जाकर कुछ करने की बजाय उसने इस्तीफा आगे कर दिया। मेरा कहना है कि नौकरशाही को अपनी मजबूती, निष्ठा बनाए रखनी चाहिए, सारा दोष राजनीतिक नेताओं पर भी नहीं मढ़ना चाहिए, जैसा कि आजकल चलन बन गया है। अगर कोई नौकरशाह कायदे से चलने की ठान ले तो कोई मंत्री उसे गलत तरह से इस्तेमाल नहीं कर सकता। हां, अगर वह तंत्र की खामियों के चलते कुछ फायदा उठाने की सोचता है तभी किसी अनैतिक काम की तरफ धकेला जा सकता है। आज नौकरशाहों को गंभीरता से अपने अंदर झांकने की जरूरत है। पर ऐसा हो नहीं रहा है। नौकरशाह कहते हैं, अरे भई, पांच साल ही तो निकालने हैं, फिर तो ह्यअपनीह्ण सरकार आ जाएगी। ये जो ह्यअपनीह्ण का भाव है, गड़बड़ उससे शुरू होती है।
चुनाव के दौर में सरकार जाने की आशंका से नौकरशाहों के पदों के फेरबदल और मनपसंद नियुक्तियां कराने की होड़ को पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सतीश चंद्रा भी गलत मानते हैं। नौकरशाही में अपने हिसाब से राजनीतिकों द्वारा नियुक्तियां करना कितना सही है, पाञ्चजन्य के इस सवाल पर उनका कहना था कि यह किसी तरह से भी ठीक नहीं है। लेकिन चंद्रा साथ ही यह भी जोड़ते हैं किे आज भी ज्यादा संख्या ऐसे नौकरशाहों की है जो किसी के प्रभाव में आए बिना काम करते हैं। इसलिए कोई सरकार ऐसा सोचे कि अपने मन के कुछ अधिकारियों को फलां पदों पर बैठा दो तो उनको सत्ता से बाहर होने पर भी अड़चन नहीं आएगी, ऐसा सोचना गलत है। कुछ नौकरशाह ऐसे हो सकते हैं जो प्रभाव में आ जाएं पर ज्यादातर अपने काम से काम रखते हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि राजनीतिक नेतृत्व से अलिप्त रहते हुए अपने काम को पूरी निष्ठा और जिम्मेदारी से करें।
अपने जमाने के वरिष्ठ नौकरशाहों में गिने गए सहाय और सतीश चंद्रा उन कायदों और निष्ठाओं की बात करते हैं जिनसे तपे-तपाए नौकरशाह पूरी व्यवस्था को गति देते हैं, बल देते हैं। कुछेक होंगे जो 5 साल किसी राजनीतिक के तहत काम करने के बाद उसके प्रभाव में आकर अपनी पसंद के पदों की चाह रखते होंगे। लेकिन सााउथ और नार्थ ब्लॅाक के गलियारों में ऐसों की पहचान अलग से हो जाती है और लोकतंत्र के प्रति निष्ठा रखने वाली और संविधान के प्रति जवाबदेह नौकरशाही ऐसों से बेअसर रहते हुए अपने काम को अंजाम देती है।
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