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लगते नहीं मगर ये भी हैं भारतीय मतदाता

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Apr 19, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Apr 2014 17:10:51

.सरकारी महकमों के कामकाज के ढुलमुल रवैये में सुधार की जरूरत है। इस मोर्चे पर नई सरकार को बेहतर काम करके दिखाना होगा।
– रस्किन बांड

मुझे देश की नदियों की बदहाली को लेकर बहुत कष्ट होता है। मैं चाहती हूं कि नई सरकार यमुना और दूसरी नदियों को गंदगी से मुक्ति दिलाए।

भारत के किसी भी नागरिक की तरह मेरी भी इच्छा है कि देश का नेतृत्व उन नेताओं के हाथों में आए जो अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के प्रति गंभीर हांे।
– कात्सू सान
– गिलयिन राइट

जब आपके घर का दाम बढ़ता है तो आप खुश होते हैं, पर सब्जी की कीमत बढ़ती है तो नाराज होते हैं। अगर हमारे नेता सबका सोचेंगे तो हमारा भी भला हो जाएगा।
– जार्ज च्यू

. विवेक शुक्ला

लोकसभा के इस चुनाव को लेकर विदेशी मूल के भारतीय भी बेहद उत्साहित हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने या तो भारत की नागरिकता ले ली है या फिर इन्हें नागरिकता स्वाभाविक रूप से मिल गई, क्योंकि इनका जन्म भारत में ही हुआ था। इस कारण ये लोग भारत के मतदाता हैं और मतदान भी कर रहे हैं। आइए मिलते हैं कुछ विदेशी मूल के भारतीयों से, जो लोकतंत्र के इस महापर्व में बड़ी दिलचस्पी के साथ भाग ले रहे हैं।
कात्सू सान
कात्सू सान (75) लोकसभा चुनावों को लेकर उत्साहित हैं। वे मूलत: जापानी हैं और सन् 1956 में भारत आ गई थीं। मन था कि भारत को करीब से देखा-समझा जाए। भारत को लेकर उनकी दिलचस्पी बौद्ध पंथ के कारण प्रबल हुई। उन्होंने करीब 20 साल पहले भारत की नागरिकता ले ली थी। अब एक बौद्ध विहार से जुड़ी हैं। लोकसभा चुनावों के बाद कैसी सरकार चाहती हैं, यह पूछने पर वह कहती हैं, ह्यभारत के किसी भी नागरिक की तरह मेरी भी इच्छा है कि देश का नेतृत्व उन नेताओं के हाथों में आए जो अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के प्रति गंभीर हांे।ह्ण
केरटिन सिरिंग
तिब्बती मूल के केरटिन सिरिग्ंा (36) को उम्मीद है कि देश में चुनाव के बाद जो भी सरकार बनेगी, वह तिब्बतियों की चिंता करेगी, उनका ख्याल करेगी। सिरिंग राजधानी के मजनूं का टीला में रहते हैं, कपड़ों का व्यापार करते हैं, वे कहते हैं ह्यभारत की सभी सरकारों ने हमारे हितों को देखा और समझा है। चुनावों के बाद अगर भाजपा की सरकार बनी तो हमें पूरा यकीन है कि वह भी हमारे हित देखेगी। हम चाहते हैं कि हमें सिर पर छत मिल जाए, रोजगार के अवसर बढ़ जाएं। ह्ण
जार्ज च्यू
चीनी मूल के 64 वर्षीय जार्ज च्यू राजधानी दिल्ली में अपनी दुकान में बैठे-बैठे अखबारों की सुर्खियों पर भी नजर डालते हैं, पर चुनावी हलचल को और जानने की इच्छा है। च्यू दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल के चीनी हैं। उनके पिता 1930 के आसपास चीन से स्टीमर से कलकता पहुंचे थे। उसके बाद दिल्ली आ गए। उन्होंने यहां जूतों का शो-रूम खोला। जॉर्ज अपने कारोबार से ही जुड़े रहते हैं, पर चुनाव के मौसम में उन्हें राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को जानने की जिज्ञासा रहती है। वे कहते हैं,ह्यमहंगाई बढ़ना अच्छी बात है। जब आपके घर का दाम दो साल में 50 लाख रुपए से एक करोड़ रुपए हो जाता है तो आप खुश होते हैं, पर आलू 20 रुपए किलो से 30 रुपए किलो हो जाता है तो हंगामा मचना शुरू हो जाता है। अगर हमारे नेता सबकी चिंता करेंगे। तो हमारा भी भला हो जाएगा। ह्ण
गिलयिन राइट
55 साल की गिलयिन राइट हिन्दी और उर्दू अनुवादक हैं। वह मूलत: ब्रिटेन से हैं, 1977 में भारत आ गई थीं, हिन्दी और उर्दू पर ज्यादा बेहतर काम करने के इरादे से। लंदन विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उनके मन में हिन्दी और उर्दू को लेकर दिलचस्पी पैदा हुई। इनका अध्ययन शुरू किया तो वह बदस्तूर जारी रहा। उसी दौरान उन्होंने महसूस किया कि भारत में रहकर ही इन दोनों भाषाओं में बेहतर काम मुमकिन है। यहां पर उन्होंने राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ल पर ठोस काम करना शुरू किया। भाषा के प्रति अपने प्रेम के अलावा राइट को भारत की दशा और दिशा की चिंता भी रहती है। राइट कहती हैं, ह्यमुझे देश की नदियों की बदहाली को लेकर बहुत कष्ट होता है। अब यमुना को ही देख लीजिए। हमने इसका क्या हाल कर
दिया है।
मैं चाहती हूं कि नई सरकार यमुना और दूसरी नदियों को गंदगी से मुक्ति दिलाए।
एडविन ओगेरा
चंडीगढ़ में रहकर व्यापार करने वाले नाइजीरिया मूल के 54 वर्षीय एडविन ओगेरा भी चुनाव को लेकर काफी उत्साहित हैं। उनकी पत्नी चंडीगढ़ के एक स्कूल में शिक्षिका हैं। उन्हें लगता है कि भारत में रहने वाले या यहां बस गए अफ्रीकी मूल के नागरिकों के साथ रंगभेद नहीं होना चाहिए। वे बीस साल पहले शादी के बाद यहां के ही हो गए।
रस्किन बांड
क्या आप मशहूर लेखक रस्किन बांड को अपना नहीं मानेंगे? वे भी अपना वोट मसूरी में देते हैं। वे कहते हैं कि जब भारत आजाद हुआ तो यहां पर रहने वाले ब्रिटिश और यूरोप के नागरिकों ने वतन लौटना शुरू कर दिया। उस वक्त मेरी उम्र 12 साल थी। मैं भी अपनी मां के साथ इंग्लैंड लौट गया, लेकिन वहां पहुंचते ही मुझे देहरादून और मसूरी की याद सताने लगी। जिसे मुझे मेरा देश बताया जा रहा था, वहां पर मेरे लिए एक दिन रहना भी मुश्किल हो रहा था। अन्तत: भारत लौट आया। वे कहते हैं कि राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र को लागू भी करें। सरकारी महकमों के कामकाज के ढुलमुल रवैये में सुधार की जरूरत है। इस मोर्चे पर नई सरकार को बेहतर काम करके दिखाना होगा। ल्ल

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