मुखौटा भर ही तो थे प्रधानमंत्री
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मुखौटा भर ही तो थे प्रधानमंत्री

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Apr 19, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Apr 2014 17:03:02

रामबहादुर राय
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के विषय में आमतौर पर एक धारणा यह बनी है कि वे प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं थे और उन्होंने यह पद लेकर प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराई है। व्यक्तिगत तौर पर उन्हें कुल मिलाकर एक ईमानदार शख्सियत माना जाता रहा है लेकिन इन लोकसभा चुनावों के बीच उनके साथ काम करने वाले लोगों द्वारा ही उन पर जो दो पुस्तकें आयी हैं उनसे यह पुष्ट हो गया है कि डा. सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री ही हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री का पद सोनिया गांधी के पास गिरवी रख दिया और 2009 के बाद तो उनके ईमानदार होने वाली धारणा भी टूट गयी। आज से पांच साल पूर्व ही भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने डा. मनमोहन सिंह को बहुत कमजोर प्रधानमंत्री बता दिया था, पर तब न लोगों ने और न ही मीडिया ने उन पर ज्यादा भरोसा किया।
नि:सन्देह संजय बारू 4 वर्ष तक मीडिया सलाहकार के तौर पर डा. सिंह के अन्त:पुर में घर के आदमी की तरह रहे। उनको खास आदमी समझकर इस विश्वास पर रखा गया था कि वे प्रधानमंत्री के आंख-कान की तरह कार्य करेंगे। संजय बारू प्रधानमंत्री के लिए घर के विश्वस्त आदमी थे, उनके पूर्व आईएएस मित्र विट्ठल बारू के बेटे। आमतौर पर पुस्तकों में लेखक वही लिखता है जो वह सामने घटता हुआ देखता है और सुनता है। हफ्ते भर पूर्व हमने भी यथावत में प्रधानमंत्री पर केन्द्रित ह्यकाठ का घोड़ाह्ण सामग्री दी थी, तो हमारे जैसे कई लोगों के लिए प्रधानमंत्री की भूमिका पर हुए इस खुलासे में कुछ विशेष नहीं है, लेकिन संजय बारू ने पुस्तक में जो तथ्य और विवरण प्रस्तुत किए हैं उससे देश के आम आदमी को वास्तविकता का पता लग गया है। स्वयं नरेन्द्र मोदी भी पिछले वर्ष ही यह स्वीकार चुके हैं कि मैं तो नाहक प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पर हमले करता रहा, वास्तविक सत्ता की धुरी तो सोनिया और राहुल ही हैं। वास्तव में इस देश में सत्ता व विधान दोनों का ही अपमान हुआ है, प्रधानमंत्री की गोपनीयता की शपथ पर भी प्रश्नचिन्ह लगा है।
बारू की पस्तक प्रामाणिक तथ्यों के साथ एकदम सही समय पर देश के सामने आई है। चुनाव के इस समय से अच्छा ऐसे विषयों के लिए कोई और समय नहीं हो सकता। यह पुस्तक 2009 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा प्रधानमंत्री को सबसे कमजोर मानने की घोषणा को ही पुष्ट कर रही है।2014 के इन लोकसभा चुनावों में, जब देश का मतदाता अपना निर्णायक फैसला सुना रहा है, इससे जोड़कर कुछ लोगों का यह कहना कि पुस्तकों के आने का समय गलत है, मैं इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हूं। एक लेखक पूरा मन बनाकर मेहनत से यदि कुछ लिख रहा है तो वह चाहेगा कि ज्यादा से ज्यादा पाठक उसकी रचना को पढ़ें। यदि ये पुस्तकें चुनाव से पहले अथवा चुनाव के बाद आतीं तो दो-चार लोग ही चर्चा अथवा समीक्षा करते, लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा कि खान मार्केट में जब मैंने अपने पुस्तक विक्रेता से पूछा तो पता चला कि पुस्तक की कई प्रतियां बिक चुकी हैं। स्वाभाविक है लेखक की दिलचस्पी ज्यादा लोगों तक पुस्तक पहुंचाने की रही। स्वयं लेखक बारू कह रहे हैं कि उन्होंने पांच महीने पूर्व प्रधानमंत्री को इस पुस्तक के प्रकाशन की बात बता दी थी।
कुल मिलाकर बारू की इस पुस्तक से देश के सामने पिछले दस वर्षों से जारी सत्ता के खेल की असलियत बाहर आयी है। कांग्रेस की कोशिश इन चुनावों में भी यही थी कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी की छवि पर सरकार की विफलताओं का असर न दिखे। अक्षमता व विफलता का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फोड़ो और प्रचारित करते रहो कि राहुल आते तो सब कुछ ठीक होता। लेकिन इस पुस्तक ने सारी कलई खोल दी है, पूरे देश को पता है कि सरकार तो सोनिया-राहुल ने ही चलाई है, मनमोहन सिंह तो एक मुखौटा भर थे। अब देश का जागरूक मतदाता कांग्रेस को पूरी तरह से धूल चटाकर रहेगा।

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