बंधक थी सरकार
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राजा बस छाया भर का था, राज कोई छलिया चलाता रहा। 10 वर्षों तक देश में संप्रग सरकार का नेतृत्व करने वाले मनमोहन सिंह सिर्फ मुखौटा थे। प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पी.सी. पारेख द्वारा लिखित पुस्तकों ने देश में पिछले एक दशक से चर्चा में आए सत्ता-केन्द्रों की धुरी की कलई खोलने के साथ मासूम लाचार चेहरे की उस ह्यविशेष योग्यताह्ण का भी प्रमाण दे दिया है जिसे सोनिया गांधी ने कई अनुभवी दावेदारों को पीछे धकेलकर आगे कर दिया था। गांधी परिवार की कठपुतली बनकर वे इतिहास के सबसे बेदम और निस्तेज प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हो गए।
संजय बारू लंबे समय तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार रहे हैं। उनकी किताब को सही माना जा सकता है। संजय बारू भाजपा अथवा रा़ स्व़ संघ से कभी जुड़े नहीं रहे, उल्टे उनकी गिनती तो भाजपा और संघ की विचारधारा के कट्टर विरोधी पत्रकार के रूप में होती रही है। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि वे भाजपा विरोध के नाम पर मक्खी निगलने लगें। 2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर बिठाया ही इसलिए गया था कि वे एक कमजोर और लाचार राजनेता हैं, जिनका अपना जनाधार नहीं है। अब एक प्रधानमंत्री की फाइलें यदि उसके पास आने के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दिखाई जाएं तो किसी का भी आहत होना स्वाभाविक ही है। इसीलिए उन्होंने परमाणु संधि जैसे मामले पर इस्तीफा तक देने की धमकी दी थी, पर तब उन्हें मना लिया गया। लेकिन इस संधि पर संसद की मुहर लग जाने के बाद सोनिया गांधी के इशारे पर संजय बारू को प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार पद से हटा दिया गया था।
-शंभुनाथ
शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार
दि एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर- दि मेकिंग एण्ड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह
लेखक – संजय बारू
प्रकाशक – पेंगुइन प्रकाशन
मूल्य-599, पृष्ठ – 320
क्रूसेडर और कान्सपिरेटर?
कोलगेट एण्ड अदर ट्रूथ्स
लेखक – पी.सी. पारेख
प्रकाशक – मानस पब्लिकेशंस
मूल्य-375
शिवानन्द द्विवेदी
देश में सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए हो रहे चुनाव सिर्फ इसलिए अहम नहीं है कि देश पहली बार विशुद्ध विकासपरक मुद्दों की राजनीति की राह पर लामबंद होता दिख रहा है, यह इसलिए भी विशेष हैं कि क्योंकि चुनाव की चौखट पर सेकुलर नारों का सच और पर्दे के पीछे के सत्ताधीश चेहरे अचानक बेपर्दा हो गए हैं। यह वक्त है जब सरकार के कामकाज के अलावा उसके मुखिया का किरदार भी तथ्यों की कसौटी पर कसा जाएगा। चूंकि प्रधानमंत्री कार्यपालिका का व्यावहारिक प्रधान होता है इसलिए कार्यपालिका सम्बन्धी प्रत्येक नीति और नियामक के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उसकी सामूहिक जवाबदेही होती है। लोकतंत्र की कसौटी पर एक विदा होते हुए प्रधानमंत्री का मूल्यांकन इस लिहाज से भी होना चाहिए कि उनके जाने के बाद देश उनके कार्यकाल को किस तरह देखेगा। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी मूल्यांकन होना स्वाभाविक है।
वैसे तो कार्यकाल के दौरान काफी पहले से ही विपक्षी दलों समेत तमाम राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा यह कहा जाता रहा है कि इतिहास में मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री के रूप में याद रखा जाएगा। लेकिन मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की हाल ही में आई किताब ह्यद एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरह्ण में तमाम तथ्यों के हवाले से यह बताने की कोशिश की गयी है कि मनमोहन सिंह महज नाममात्र के प्रधानमंत्री थे। संजय बारू की किताब की मूल पृष्ठभूमि से जो बात छन कर आती है वह यह है कि एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी स्थिति किसी कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं रही जबकि सत्ता का मूल केन्द्र 10 जनपथ यानी यूपीए सुप्रीमो सोनिया गांधी के पास था। संजय बारू ने अपनी किताब में साफतौर पर लिखा है कि एक प्रधानमंत्री के तौर पर अधिकृत होने के बावजूद भी मनमोहन सिंह के पास न तो केबिनेट में नियुक्तियों का अधिकार था और न ही वह अपनी मर्जी से कोई अन्य अहम नियुक्ति कर सकते थे। नियुक्तियों के संदर्भ में मनमोहन सिंह की लाचारी की पुष्टि करते हुए संजय बारू एक जगह लिखते हैं, ह्यमनमोहन सिंह सी़ रंगराजन को वित्तमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को ठुकराते हुए प्रणव मुखर्जी को वित्तमंत्री बना दिया। बारू ने एक जगह और लिखा है कि बहुचर्चित 2जी घोटाले के आरोपी ए़ राजा का नाम उजागर होने से पहले ही मनमोहन सिंह उन्हें केबिनेट से हटाना चाहते थे लेकिन सोनिया गांधी के दबाव में ऐसा नहीं कर सके। नियुक्तियों के संदर्भ में मनमोहन सिंह की लाचारी और सोनिया गांधी के इस पर नियंत्रण होने की बात में ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस पर विश्वास न किया जाय। इस बात पर विमर्श तभी से हो रहा है जब सन् 2004 में सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी एवं अर्जुन सिंह जैसे नामों को किनारे लगाकर अपनी इच्छा से मनमोहन सिंह जैसे गैर-राजनीतिक व्यक्ति का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया था। तब से लेकर आज तक मनमोहन सिंह पर ये आरोप लगते रहे हैं कि मनमोहन सिंह का रिमोट कंट्रोल 10 जनपथ के हाथों में है। चूंकि, मनमोहन की बजाय प्रणव मुखर्जी अथवा अर्जुन सिंह सरीखे नेताओं का नाम नहीं लाने के पीछे यही वजह थी कि सोनिया गांधी एक कठपुतली प्रधानमंत्री देखना चाहती थीं जो उनके फैसलों से अधिकतम सहमत रहे। वरना अनुभव और राजनीतिक पृष्ठभूमि के लिहाज से देखा जाय तो इंदिरा गाँधी की केबिनेट में जब प्रणव मुखर्जी वित्तमंत्री होते थे तब मनमोहन सिंह उनके वित्त सचिव थे। हालांकि, संवैधानिक तौर पर यह स्पष्ट प्रावधान है कि अपनी केबिनेट की नियुक्तियों एवं बर्खास्तगियों के लिए प्रधानमंत्री को पूर्ण अधिकार होता है। प्रधानमंत्री ही अपने केबिनेट का गठन करने को अधिकृत होता है।
संजय बारू द्वारा लिखी गयी तीन सौ पृष्ठों की इस किताब में साफतौर पर लिखा गया है कि मनमोहन सिंह की केबिनेट के ही जयराम रमेश सरीखे मंत्री मनमोहन सिंह की बजाय सोनिया गाँधी के प्रति ज्यादा उत्तरदायी एवं वफादार थे। किताब से प्राप्त जानकारी के मुताबिक संजय बारू से मनमोहन सिंह ने खुद कहा था कि सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते। अगर सत्ता के दो केन्द्रों वाली बात को आधार मानकर पूरी स्थिति को समझने का प्रयास किया जाय तो कहीं न कहीं यह स्पष्ट होता है कि मनमोहन सिह के इस दस साल के कार्यकाल के दौरान जो कुछ भी हुआ है वह संसदीय लोकतंत्र के मूल ढांचे को ही कलंकित करता है। हमें समझना होगा कि संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद ही कर्तव्य, अधिकार एवं जवाबदेही के बीच के संतुलन पर टिकी होती है। लोकतंत्र न तो व्यक्ति केंद्रित हो सकता है और न ही किसी व्यक्ति विशेष के प्रति उत्तरदायी हो सकता है। संविधान सम्मत प्रावधानों में व्यवस्थापिका,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्तियों एवं जवाबदेहियों का संतुलित विकेन्द्रीकरण ही भारत के संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता है। एक तरफ व्यवस्थापिका, जहां संसद में जनता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है तो वहीं कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति जवाबदेह होते हुए कानून को लागू करने एवं क्रियान्वित करने का कार्य करती है। कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के बीच के इन संतुलित संबंधों में ही लोकतंत्र की सुंदरता को तलाशा जा सकता है। लेकिन मनमोहन सिंह के इस दस साल के कार्यकाल में जिस तरह के तथ्य सामने आये हैं वे यह बताते हैं कि कार्यपालिका व्यवस्थापिका के अलावा 10 जनपथ के प्रति भी निष्ठावान एवं आश्रित रही है। किताब ह्यद एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरह्ण में इस बात का जिक्र है कि सोनिया गांधी के कहने पर प्रधानमंत्री कार्यालय से जोड़े गए पुलक चटर्जी का 10 जनपथ नियमित आना-जाना होता था। पुलक चटर्जी प्रधानमंत्री कार्यालय के नियमित कायोंर् एवं क्रियान्वयनों से 10 जनपथ को अवगत कराते थे। निश्चित तौर पर इसे संसदीय लोकतंत्र की भारतीय परम्पराओं के लिए संवैधानिक पदों पर उमड़ते संकट के तौर पर देखा जाना चाहिए। संजय बारू की इस किताब को राहुल गांधी के उस बयान से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए जिसमंे वे खुलेआम एक जगह कहते हैं कि आईबी के किसी अधिकारी ने उनसे आतंकवादियों के संबंध में एक जानकारी साझा की थी। ऐसे में अगर आईबी पीएमओ की बजाय राहुल गांधी अथवा 10 जनपथ को रिपोर्ट करने लगे तो इसे भी लोकतंत्र की संसदीय व्यवस्था के लिए कम खतरनाक नहीं कहा जाना चाहिए ।
खैर, संजय बारू की इस किताब पर विमर्श तो आगे भी चलेगा और एक प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह का मूल्यांकन भी होता रहेगा, लेकिन फिलहाल इसमें कोई शक नहीं कि एक लाचार प्रधानमंत्री को ढाल बनाकर 10 जनपथ ने बिना किसी जवाबदेही, बिना किसी तनाव के देश के लोकतंत्र को उंगलियों पर नचाने का असंवैधानिक काम किया है। समूची यूपीए इसकी भागीदार है। कहीं न कहीं संजय बारू की इस किताब के आने के बाद मनमोहन सिंह थोड़ी राहत जरूर महसूस कर रहे होंगे क्योंकि वे भी चाहते होंगे कि लोकतंत्र को कलंकित करने वाले गुनहगारों में सिर्फ उनका नाम न आये बल्कि पर्दानशीं सभी चेहरे उजागर हों।
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