समान नागरिक संहिता पर हाय-तौबा!
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समान नागरिक संहिता पर हाय-तौबा!

by
Apr 19, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Apr 2014 17:17:04

-राजेन्द्र कुमार मिश्र –

अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं विधि आयोग के पूर्व सदस्य ताहिर महमूद का एक लेख इंडियन एक्सप्रेस (11 अप्रैल ) में प्रकाशित हुआ है। इस लेख में वे भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता के सैद्धातिंक-औपचारिक उल्लेख को अप्रत्याशित गंभीरता से लेते हुए उत्तेजित स्वर में कहते हैं कि किसी भी शासन को अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) का उन्मूलन करने या उसके साथ छेड़छाड़ करने का अधिकार नहीं है। खासतौर से इसलिए जब हिंदुओं पर लागू होने वाले व्यक्तिगत कानून दोषपूर्ण हैं और अन्य मतावलंबियों के प्रति भेदभाव से ग्रसित हैं। इतना ही नहीं स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव और अन्य विषमताओं से भी दूषित हैं।
अपनी आपत्तियों के समर्थन में महमूद ने संविधान में हिंदुओं से संबंधित कानूनों में बार-बार संशोधन पर खासतौर से विरोध जताया है। दरअसल, उनके लेख का उत्तर केवल एक वाक्य में दिया जा सकता है। हिंदुओं को स्वयं पर लागू होने वाले कानूनों में संशोधन पर कोई आपत्ति नहीं है। यदि ये संशोधन किसी अंतरविरोध को दूर करने, किसी के प्रति अन्याय या भेदभाव मिटाने या नई परिस्थितियों में आवश्यक होने के कारण किए जाते हैं।
हिंदुओं के लिए बनाए गए कानून मुसलमानों या ईसाइयों पर लागू नहीं होते। हिंदू शरिया कानून जैसी अपरिवर्तनशीलता और कठोरता के कायल नहीं हैं, क्योंकि वे कानूनों को परमेश्वर या किसी पैगंबर द्वारा सृजित और इस कारण निर्विकार नहीं समझते, बल्कि मनुष्य द्वारा रचित और इस कारण आश्वस्त और समयानुसार परिवर्तनशील मानते हैं, लेकिन महमूद की आपत्तियों का संक्षिप्त उत्तर देना इसलिए जरूरी है कि वे कोई स्वार्थ-साधक राजनीतिज्ञ नहीं हैं, बल्कि एक प्रख्यात विधि विशेषज्ञ हैं।
महमूद की पहली आपत्ति यह है कि स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 को हिंदू मैरिज एक्ट 1955 द्वारा संशोधित किया गया, जबकि उसके अंतर्गत हिंदू ही नहीं मुसलमानों सहित कोई भी मतावलंबी सिविल मैरिज या कोर्ट मैरिज कर सकता था, बशर्ते वह पहले से शादीशुदा न हो। यानी मुसलमान भी केवल एक शादी करने को बाध्य होगा। महमूद यह भूल जाते हैं कि कोई भी मुस्लिम पति चाहे उसने किसी भी कानून के अंतर्गत शादी की हो, वह अपनी पत्नी को इस्लामी कानून के अंतर्गत मौखिक तलाक दे सकता है या मुसलमान होने के कारण, दूसरी, तीसरी या चौथी शादी भी कर सकता है। कोई अदालत उसे चार शादियां करने के लिए सजा नहीं दे सकती। अगर देती है तो अदालत के निर्णय के विरोध में शाहबानो मामले की तरह आंदोलन की पूरी संभावना रहेगी।
महमूद की दूसरी आपत्ति यह है कि हिंदू मैरिज एक्ट 1955 को हिंदू मैरिज एक्ट क्यों कहा जाता है, जबकि यह सिखों, जैनियों और बौद्धों पर भी लागू होता है। उल्लेखनीय है कि सिखों, जैनियों और बौद्धों को इस नामकरण पर कोई आपत्ति नहीं है। दरअसल हिंदू मैरिज एक्ट उन पर भी लागू होता है।
हिन्दू मैरिज एक्ट 1955, जो हिंदू कोड बिल का एक भाग है, को पारित कराने का सबसे बड़ा कारण था केवल पुत्र ही नहीं , बल्कि पुत्र और पुत्री दोनों को अपने पूर्वजों की संपत्ति में समान अधिकार दिलाना, जो स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में नहीं था। (पुत्री को संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त होने के चलते सर्वोच्च न्यायालय के एक बाद एक निर्णय के अनुसार अब वृद्ध माता-पिता की देखरेख की जिम्मेदारी केवल पुत्र की नहीं, बल्कि पुत्री की भी हो गई है) इस्लामी कानून के अनुसार पति एक छोटी सी समय सीमा समाप्त होने के बाद अपनी तलाकशुदा और नि:सहाय पत्नी की दाल-रोटी के लिए भी जिम्मेदार नहीं है।
स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत यदि पत्नी 18 साल से कम और पति 21 साल से कम हो तो शादी अवैध हो जाती है। इसके विपरीत हिंदू मैरिज एक्ट के अंतर्गत इस कारण शादी परिस्थिति के अनुसार अवैध हो सकती है और नहीं भी हो सकती, हालांकि इसके गुनहगारों को सजा हो सकती है। यह लचीला कानून इसलिए जरूरी था कि उन दिनों आज भी पुरानी पंरपराओं के अनुसार या अज्ञानवश अनेक शादियां 18 और 21 वर्ष की आयु के पहले ही कर दी जाती हैं। ऐसी लाखों शादियों के अवैध हो जाने से एक अत्यंत कठिन समस्या खड़ी हो जाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के अंतर्गत एक हिंदू स्त्री एक मुस्लिम से बिना इस्लाम कबूल किए शादी करती है तो यह शादी शरिया कानून के अंतर्गत वैध नहीं होगी, लेकिन शादी करने के बावजूद पति मुस्लिम होने के कारण दूसरी शादी कर सकता है। दरअसल, मुस्लिम होने के नाते वह चार शादियां कर सकता है। इसके परिणाम पहली पत्नी को ही भुगतने पड़ेंगे, खासतौर से यदि वह गैर-मुस्लिम हो। महमूद को एक और शिकायत है। हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 के अंतर्गत एक मुस्लिम या एक हिंदू, जो अपने पिता के हिंदू धर्म त्यागने और दूसरा मजहब स्वीकार करने के बाद पैदा हुआ है, विरासत में मिलने वाली संपत्ति का अधिकार खो देता है। विरासत का लाभ उठाने के लिए उसे हिंदू होना पड़ेगा। यह सही भी है, क्योंकि उसके पिता को विरासत हिंदू होने के कारण मिली थी।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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