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-रमेश पतंगे-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पूरी दुनिया जानती है, लेकिन यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक कौन थे ? इस बारे में पूछा जाए तो बहुत से लोगों को इस बारे में पता नहीं होता है। स्वयं को विद्वान मानने वाले बहुत से लोगों को भी यदि जानकारी होती है तो आधी अधूरी होती है। संघ से अस्पृश्यता मिटाने के लिए डॉ. हेडगेवार ने क्या किया यह जानना लोगोें के लिए जरूरी है।
महाराष्ट्र के महान समाजशास्त्री महर्षि वि. रा. शिंदे का 'रतीय अस्पृश्यता का प्रश्न'शीर्षक से बड़ा प्रसिद्ध मराठी गं्रथ है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार 1907-08 में भारत में अछूतों की जनसंख्या 5 करोड़ 32 लाख 632थी। इसके पूर्व महात्मा ज्योतिराव फूले ने हिंदू समाज में अस्पृश्य लोगों की जनसंख्या पांच से छह करोड़ होने का दावा 19वीं सदी के मध्य में किया था। डॉ. अंबेडकर ने भी उनकी संख्या को पांच से छह करोड़ होने की बात कही थी। महात्मा गांधी का यह कथन ह्यअस्पृश्यता हिंदू धर्म पर कलंक हैह्ण बहुत प्रसिद्ध है। डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सवर्णों के मन से अस्पृश्यों के प्रति संकुचित भाव कैसे निकाला? और अस्पृश्यों के मन से हीनता कैसे मिटाई? इसका अध्ययन करने का विचार भारत के एक भी विद्वान के मन में नहीं आता। यह एक बड़ा बौद्धिक दिवालियापन है। अस्पृश्यता मिटाने के लिए महात्मा बसवेश्वर से लेकर महात्मा गांधी तक सैकड़ों महान पुरुषों ने प्रयास किए। महात्मा गांधी के प्रयास प्रामाणिक थे, लेकिन क्या उनके प्रयासों से समाज से अस्पृश्यता मिटी? यदि इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर देना हो तो ह्यनहींह्ण ऐसा कहना पड़ता है। समाज में अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों का नामकरण ह्यहरिजनह्ण हो जाने से केवल शब्द बदल गया, लेकिन लोगों के मन का भाव नहीं बदला। गांधी विचार के प्रभाव के कारण पंढरपूर के विठोबा मंदिर, केरल के अनेकों मंदिरों के कपाट उनके लिए खुल गए, लेकिन अस्पृश्यता पूरी तरह से समाप्त नहीं हो पाई। अस्पृश्यता मिटाने का दूसरा महान प्रयास डॉ. अंबेडकर ने किया। उन्होंने अस्पृश्यता मिटाने को अपने जीवन का ध्येय बताते हुए कहा था कि ह्यमैं अपना सिर पटक-पटककर अस्पृश्यता की दीवार को धराशायी करने वाला हूं, अगर मुझे इसमें सफलता नहीं मिलती है तो भी मेरा बहता हुआ खून देखकर मेरे अस्पृश्य बंधुओं को संघर्ष करने की प्रेरणा मिलेगी।ह्ण डॉ. अंबेडकर का समग्र जीवन अस्पृश्यता को समाज से मिटाने के लिए संघर्ष करने में बीता। यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर नजर डालें और गहराई से आकलन करें तो उसमें कहीं भी अस्पृश्यता नहीं दिखाई देती। अस्पृश्यता का निर्माण कैसे हुआ ? इसे धर्म की आधारभूत मान्यता कैसे प्राप्त हो गई ? अस्पृश्यता, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था का संबंध क्या है ? इन प्रश्नों की डॉ. हेडगेवार ने कभी भी मीमांसा नहीं की, कोई गं्रथ भी नहीं लिखा, एक भी भाषण नहीं दिया। अस्पृश्यता कितनी बुरी है इसे मिटाना क्यों आवश्यक है इस बारे में भी नहीं कहा, लेकिन कुछ न करते हुए भी उन्होंने संघ से अस्पृश्यता को कैसे मिटाया ? ऐसा करना उनके लिए कैसे संभव हो पाया ? दरअसल उन्होंने अपने सामने एक ध्येय रखा था। वह ध्येय था हिंदू समाज का संगठन। हिंदू समाज का संगठन क्यों करना है? हिंदू असंगठित है इसलिए ! हिंदू क्यों असंगठित है? क्योंकि वे अनगिनत जातियों में बंटे हुए हैं। अनेक भाषाओं में बंटे हुए हैं, अनेक पंथों में बंट जाने से मनुष्य संकुचित हो जाता है। वह अपने हित का ही विचार करता है। यह सोचकर ही डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की और समाज संगठन के कार्य में जुट गए। उन्होंने समाज को जोड़ने वाले घटकों पर बल दिया। उन्होंने समाज को एक सूत्र दिया कि हम सब हिंदू हैं,यही हमारी पहचान है, हिंदू हमारी जाति, हिंदू हमारा धर्म। हम असंगठित हो गए इसलिए हमारा राष्ट्र दुर्बल बन गया, अगर हम संगठित हो जाते हैं तो हमारा राष्ट्र सबल बन जाएगा। उन्होंने समाज को जोड़ने वाले घटकों पर बल दिया। संगठित हिंदू समाज का भाव सारे हिंदुओं में निर्माण करने हेतु उन्होंने सार्वजनिक सभा, भाषण, सत्याग्रह,आंदोलन जैसा कोई मार्ग नहीं अपनाया। उन्होंने संघशाखा शुरू की। उन्होंने आह्वान किया, अपने चौबीसों घंटों में से एक घंटा देश के लिए दो, शाखा में आओ। संघ की कार्य पद्धति तैयार की। 1925 में संघशाखा का आरंभ किया और 1940 में पूरे देशभर में विस्तार किया। शाखाओं के माध्यम से उन्होंने हिंदू समाज की अस्पृश्यता वाली पाबंदी तोड़ डाली। शाखा में आने वाले बाल तरुण सारे एक साथ खेलते थे। सभी जातियों के तरुण शाखा में आने लगे, खेलने लगे, शाखा में सहभोज के कार्यक्रम होने लगे। घर से लाए भोजन को एक दूसरे के साथ मिल बांटकर भोजन करना आरंभ हो गया। दूसरे के घर का और दूसरे के हाथों से बनाया हुआ भोजन निषिद्ध मानने की प्रथा को त्याग दिया। संघ के विस्तार के लिए स्वयंसेवक अलग अलग प्रांतों में चले गए। अनजान स्थानों पर रहे। वर्ष1960 के बाद विदेश में भी गए। संघ ने सिंधु पाबंदी तोड़ी। जैसे-जैसे संघकार्य का विस्तार होने लगा। वैसे-वैसे सारे समाज के घटकों से संघ का संबंध होने लगा और संघ स्वयंसेवकों के परिवारों में सहज अंतरजातीय विवाह होने लगे।
डॉ. हेडगेवार ने अस्पृश्यता की शाब्दिक मीमांसा नहीं की, मगर अपनी कृति से उन्होंने कैसी मीमांसा की होगी इसका अर्थबोध अवश्य होता है। अस्पृश्यता – सवर्ण मन की लहर है और वह सवर्णों के मन में बसती है। परंपरा और रूढि़वादिता से वह मन में बस जाती है। परंपरा और प्रथाएं आगे चलाते रहना यह आम मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। अलग राह अपनाने को वह तैयार नहीं होता है। इसलिए ह्य मैं आपको अलग राह पर ले जा रहा हूंह्ण ऐसा डॉक्टर साहब ने कभी नहीं कहा। वह कहते थे, ह्यअपना यह कार्य ईश्वरीय कार्य हैह्ण। यह एक ही विधान ह्यगागर में सागर हैह्ण। ईश्वर का कार्य अर्थात सत्य का कार्य, न्याय का कार्य और सभी भूतमात्रों के कल्याण का कार्य। एक ही ईश्वर सर्वव्यापी है, वह चराचर में बसा है। अणु-परमाणु में बसा है, उसे लिंग-वंश-जाति से कोई भेद नहीं है। दूसरे मनुष्य को अपने पास लाना अर्थात उसमें बसे ईश्वर के समीप जाना है। पू. गुरुजी ने डॉक्टर साहब द्वारा बताए गए इस ईश्वरीय कार्य को अपने बौद्धिकों के माध्यम से स्वयंसेवकों को बताया।
डॉ. हेडगेवार का कहना था अपना कार्य सनातन है, मैं कुछ नया नहीं बता रहा हूं, परंपरा से चला आया विषय बता रहा हूं। हम वह भूल गए हैं इसलिए उसका स्मरण दिलाने का कार्य मैं कर रहा हूं।ह्ण स्वार्थी और संकुचित बने हिंदुओं का मन थोड़ा विशाल बनाने का कार्य उन्होंने किया। हिंदू समाज को व्यापक विचार करना सिखाया। संकीर्ण कूप में बसने वाले विशाल सागर का दर्शन कराया। जब इस भव्यता का हिंदू जनमानस को दर्शन होने लगा तब उसे अपनी संकीर्णता और बौने विचारों की लज्जा महसूस होने लगी और अस्पृश्यता के सारे भाव नष्ट होने लगे। उन्होंने स्वयंसेवकों के मन से जाति निकाली, जातिगत श्रेष्ठता का अहंकार निकाला और अस्पृश्यता का भाव मिटा डाला। स्वामी विवेकानंद ने डॉक्टर हेडगेवार से पूर्व इस कार्य को आरंभ किया था। स्वामी विवेकानंद का एक सूत्र प्रसिद्ध है, विस्तार ही जीवन है और संकीर्णता ही मृत्यु है।ह्ण हम जब संकीर्ण बन गए तब हमारी मृत्यु हुई है और समूचे विश्व को आर्य बनाने की भावना से जब हम खड़े हुए तो विश्व पदाक्रांत करने की शक्ति हममें आई है। डॉ. हेडगेवार ने इसी वैश्विक भावना की अतिभव्य कल्पना सबके सामने रखी। केवल कल्पना रखकर वे रुके नहीं बल्कि उन्होंने अपना पूरा जीवन इस ध्येय हेतु समर्पित कर दिया। डॉ. हेडगेवार साक्षात ध्येयमूर्ति थे। 'ध्येय आया देह लेकर'यह पंक्ति उनका संदेश है। उन्होंने स्वयंसेवकों के मन से अस्पृश्यता का भाव निकाल डाला। इसका कारण है कि उन्होंने अस्पृश्यों को कभी अस्पृश्यता का स्मरण नहीं दिलाया और उनके लिए कभी कोई अलग शब्द प्रयोग नहीं किया और न ही सवर्णों पर कोई आघात किया। उन्होंने सवर्ण और अस्पृश्यों को उनकी विस्मृत पहचान अवश्य दिलाई और यह पहचान थी उनके हिंदुत्व की ! मैं कौन हूं ? मैं हिंदू हूं! हिंदू ही मेरी पहचान है! इसलिए संघ में एक गीत अपने आप बन गया- ह्यआम्ही हिंदू ही तर आमची स्वाभाविक ललकारी रे!(हम हिंदू हैं यह तो हमारी स्वाभाविक गर्जना है)!
जब महात्मा गांधी वर्धा शिविर में पधारे थे तब उन्होंने पूछा कि इस शिविर में कितने अस्पृश्य हैं? तब संघ के कार्यकर्ताओं ने कहा कि एक भी नहीं, हम सब हिंदू हैं। इस उत्तर से महात्मा गांधी जी की जिज्ञासा का समाधान नहीं हो पाया और उन्होंने स्वयंसेवकों से उनकी जातियों और नामों की पूछताछ की। तब उन्हें पता चला कि संघ में तो विभिन्न जातियों के सारे लोग हैं। वर्ष 1939 में जब डॉ. अंबेडकर पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में पधारे थे तब उन्होंने भी स्वयंसेवकों से ऐसा ही सवाल पूछा था। उनको भी स्वयंसेवकों ने यही बात बोली। अस्पृश्यता एक जर्जर रोग है। जिसका ईलाज मनोवैज्ञानिक स्तर पर डॉ. हेडगेवार ने ढूंढ निकाला। अस्पृश्य वर्ग के सबलीकरण का मार्ग डॉ. अंबेडकर ने खोजा और महात्मा गांधी ने अस्पृश्यों के बारे में सवर्ण समाज के कर्तव्यबोध का मार्ग अपनाया। इन तीनों मार्गों को परस्पर पूरक मानकर कार्य करना होगा! अपने एक मात्र मार्ग से अस्पृश्यता मिटेगी, इस भ्रम में किसी को नहीं रहना चाहिए। जटिल सामाजिक प्रश्नों का केवल एक ही उत्तर नहीं हो सकता है। इसलिए कोई पूर्वाग्रह न रखते हुए पारस्परिक कार्य का योग्य मूल्यांकन करके परस्पर पूरक बनकर कार्य करने की आदत डालना आवश्यक है।
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