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-सद्गुरु-
गांव के लोगों के जीवन से उल्लास गायब हो गया है। एक समय ऐसा था, जब बुआई-रोपाई के मौसम में गांव के लोग एक-दूसरे का हाथ बंटाते और मिल-जुल कर बुआई-रोपाई से लेकर कटाई तक का काम हंसी-खुशी से करते और खेतों में नाचते-गाते थे। लेकिन आज गांवों में नाचना-गाना गुजरे जमाने की बात हो गई है। नाचना-गाना अब या तो टीवी में दिखेगा या सिनेमा में। यह ऐसी चीज हो गई है जिसे अब आप खुद नहीं करते। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। जो चीज गांव के लोगों से छिन गई है, उसकी कोई भरपाई नहीं हो पायी है। एक किसान के पास अपने लोकसंगीत और लोकनृत्य के रूप में ऐसी थाती थी, जिससे उसे सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक आधार मिलता था। दुर्भाग्यवश कोई बेहतर चीज दिए बिना ही इस आधार को तेजी से नष्ट किया जा रहा है। आनंद और उल्लास के बिना यदि कृषि की जाएगी तो उसका परिणाम किसानों की आत्महत्या और उन तमाम बुराइयों के रूप में सामने आएगा जिसे हम आज देखने के लिए विवश हैं। भारत एक ऐसा देश है जहां साल के 365 दिनों में से हर एक दिन कोई न कोई त्योहार होता है। यहां की संस्कृति उत्सवधर्मी है, यहां सब कुछ उत्सव का रूप ले लेता है। मान लीजिए आज का दिन जुताई का है तो उसे भी उत्सव बना दिया जाता है। यदि कल का दिन रोपाई का है तो उसके लिए अलग किस्म का उत्सव होता, जहां रोपाई से जुड़े गीत और नृत्य का आनंद लिया जाता। फसल कटाई तो उत्सव का चरम होता ही है, जो काफी हद तक आज भी बैसाखी के रूप में मनाया जाता है।
बलबीर दसवीं कक्षा तक स्कूल गया है। अब उसे सबके साथ नाचने गाने में शर्म आती है। अब वह न इधर का रहा न उधर का। इससे उसका शारीरिक स्वास्थ्य भी खराब हुआ है। पिछले बीस वषोंर् में एक ग्रामीण व्यक्ति का जीवन बहुत मुश्किल हो गया है। पुरानी परंपराएं पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं, बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ी सारी बुराइयां घर कर रही हैं, लेकिन बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ी अच्छाइयां उसके आस-पास फटक तक नहीं पाई हैं। पहले वह जिन बातों पर गर्व करता था, आज वही उसके लिए शर्म का कारण बन गई हैं।
हमें अपने देश की खूबियां मालूम होनी चाहिए। यद्यपि हमारे गांवों में कृषि का बुनियादी ढांचा न के बराबर है, फिर भी हम अपने सवा अरब लोगों का पेट भरने के लिए अनाज पैदा कर लेते हैं। यह एक ऐसी उपलब्धि है जिसे हमारे किसानों ने अपने पारंपरिक ज्ञान और कौशल से हासिल किया है। आज यह सब कुछ लुप्त हो रहा है। भविष्य में हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जिस दिन हम अपने सवा अरब लोगों का पेट भरने के लिए अनाज पैदा नहीं कर पाएंगे, उस दिन एक राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बचाए रख पाना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि गांवों को सही मायने में पुनर्जीवित किया जाए। यह काम अकेले सरकार के बस का नहीं है। सरकार नीतियों में बदलाव करके लोगों को आर्थिक अवसर उपलब्ध करा सकती है, लेकिन किसी सरकार के लिए यह संभव नहीं कि वह एक-एक व्यक्ति के पास जाकर उसका जीवन बदले।
लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं, ह्यक्या किया जाए? सरकार के पास पर्याप्त संसाधन ही नहीं हैं।ह्ण मेरा कहना है कि आज कुछ कंपनियां, जिन्हें निगम कहा जाता है, इतनी बड़ी हो चुकी हैं कि संसाधनों के मामले में वे किसी देश के किसी निगम से कम नहीं हैं। जरूरत इस बात की है कि प्रत्येक औद्योगिक इकाई देश में एक-एक तालुका को गोद लेकर वहां प्रशिक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को बेहतर करने का काम करे। इसे परोपकार की बजाए एक दीर्घकालीन निवेश माना जाना चाहिए।
यदि आप नारियल का पेड़ उगाना चाहते हैं तो आप फल देखने के लिए आठ साल इंतजार करते हैं। इसी तरह यदि आप शिक्षा, पोषण जैसे पहलुओं पर निवेश करते हैं, तो ऐसे कई तरीके हैं जिनसे आप को प्रतिफल मिल सकेगा। हो सकता है इसमें बहुत लाभ न हो, लेकिन इतना लाभ जरूर हो जाएगा कि उससे काम चलता रहे। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप के पास दस वषोंर् में ऐसा शानदार मानव संसाधन तैयार हो जाएगा जो पूरी तरह से आप के लिए समर्पित होगा। इस प्रक्रिया पर सरकारी नियंत्रण रखा जा सकता है ताकि इसका दुरुपयोग न हो और किसी का शोषण न हो सके। कुछ कानून भी बनाए जा सकते हैं, जिनके अधीन इस तरह की गतिविधियां संचालित की जाएं। सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं और संबंधित जनसमुदाय के साथ-साथ उद्योग जगत को भी इस प्रक्रिया में शामिल होना पड़ेगा ताकि जमीन पर इसे उतारा जा सके। हमारा ईशा फाउंडेशन इस बात पर अमल कर रहा है। हम हमेशा भारत को 120 करोड़ लोगों के देश के रूप में सोचते हैं। लेकिन सोचने का यह तरीका ठीक नहीं है। आप एक जिले के बारे में सोचिए और उसे बदलने में लग जाइए। हम इस सबके बारे में बहुत लंबे समय से बात करते आए हैं। अब इस पर अमल करने का वक्त आ गया है।ल्ल (लेखक ईशा फाउंडेशन के संस्थापक हैं और दुनिया में शांति तथा खुशहाली लाने के लिए काम कर रहे हैं)
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