|
स्पष्ट दृष्टि, साफ रास्ता, साथी तैयार
बात शहरी क्षेत्रों की हो या ग्रामीण की, मतदाताओं में कोरे वादों और तुगलकी तेवरों को नकारते हुए सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रति अरुचि का भाव बढ़ता दिखा है और यह बात भाजपा के प्रति पुरुष और महिला मतदाता, दोनों में साफ देखी जा सकती है। यूपीए की सांसत बढ़ी है तो राजग का उत्साह। जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भरी सभा में कहा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी का घोषणा पत्र एक अभूतपूर्व दस्तावेज है तो यह साफ हो गया कि पिछले कई हफ्तों से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी और आडवाणी समेत कुछ अग्रणी नेताओं के बीच तनातनी की खबरों का सच क्या है। आडवाणी के इस बयान से पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ा और समर्थकों में भविष्य के लिए भरोसा। इस घटना को राजनीतिक दृष्टिकोण से भले ही आज कम आंका जाता हो, परंतु इसके संकेत काफी दूर तक जाते हैं। नरेंद्र मोदी व भाजपा के लिए पिछले कुछ महीनों में वक्त का पहिया काफी तेजी से घूमा है।
स्मिता मिश्रा
मोदी की लोकप्रियता पर तो पहले भी किसी को शक नहीं था। फिलहाल देशभर में, खास तौर पर युवाओं में, मोदी की टीआरपी अन्य नेताओं से कहीं ज्यादा है, यह भी काफी पहले ही साफ हो गया था। लेकिन कभी भारत के बहुत से प्रदेशों में भाजपा की कमजोर स्थिति तो कभी तथाकथित सेकुलर जमात की पार्टियों में मोदी के विरोध को लेकर शक जाहिर किया जाता रहा है। इस लिहाज से पिछले कुछ हफ्ते भाजपा और मोदी, दोनों के लिए मील का पत्थर बनकर सामने आए हैं।
इस संदर्भ में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान का पलटना शायद सबसे निर्णायक मोड़ रहा है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि पासवान बिहार और पूरी हिंदी पट्टी की एक प्रभावी दलित जाति के नेता हैं। मगर इसीलिए भी कि उन्होंने गुजरात के दंगों को वजह बनाकर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ा था। पासवान की राजग में वापसी देश की बदलती राजनीतिक हवा का प्रमाण कही जा सकती है।
मगर बात यहीं पर नहीं रुकी। कुछ रोक-रुकावटों के बाद तेलुगु देशम पार्टी के नेता एन चंद्रबाबू नायडू भी दस साल के तलाक को भुलाकर राजग के कुनबे में लौट आए हैं। नायडू ने भी 2004 में राजग सरकार की हार के पीछे गुजरात में हुई हिंसा को जिम्मेदार ठहराते हुए कुट्टी कर ली थी। जहां एक ओर पासवान राजग से जुदा होकर यूपीए से जुडे रहे वहीं नायडू कभी तीसरे तो कभी चौथे मोर्चे के रूप में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए भटकते रहे।
इस बात के भी पर्याप्त संकेत हैं कि मोदी के सेनापतित्व में राजग की सेना के विस्तार का सिलसिला अभी और आगे चलेगा। राजग का कुनबा बढ़ाने की कवायद में सूत्रधार की भूमिका निभा रहे अकाली दल नेता और सांसद नरेश गुजराल का दावा है कि राजग एक बार फिर वैसा ही रेनबो यानी सतरंगी गठबंधन बन रहा है जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरपरस्ती में तैयार हुआ था। वैसे आंकड़ों पर जाएं तो आज भी छोटे बड़े दलों को मिलाकर कुल 27-28 पार्टियां राजग के कुनबे में शरीक हो चुकी हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि राजग के विस्तार से मोदी के नेतृत्व और उनकी कार्यशैली को लेकर उठ रहे तमाम आशंकाएं व सवाल खत्म हो गए हैं। सबका साथ, सबका विकास का नारा देने वाले नरेंद्र मोदी क्या वाकई उसी सुगमता, उसी तालमेल और वैसी ही परस्पर समझदारी के साथ गठबंधन की अगुवाई कर पाएंगे जैसा कि वाजपेयी के कार्यकाल में देखने को मिला था? इस सवाल पर भाजपा के महासचिव जगत प्रकाश नड्डा का जवाब बिल्कुल साफ है। उनके मुताबिक भले ही मोदी ने अब तक गठबंधन की सरकार न चलाई हो मगर इसका यह अर्थ नहीं कि गठबंधन राजनीति से उनका सरोकार नहीं रहा है। बतौर पंजाब प्रभारी अकाली दल नेतृत्व और हरियाणा मेंं चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल सहित अलग-अलग प्रदेशों में संगठन के साथ-साथ सहयोगी दलों से भी तालमेल का काम मोदी देखते रहे हैं। नड्डा का यह भी दावा है कि गठबंधन में उठ रही सलवटों और मतभेदों की आशंका को दूर करने के लिए लंबे अनुभव से ज्यादा जरूरी है एक पैना राजनीतिक दृष्टिकोण जो देश के तमाम वर्तमान नेताओं के मुकाबले मोदी में सर्वाधिक है। नड्डा भरोसा जताते हैं कि अपनी कुशल राजनीतिक दृष्टि के सहारे मोदी गठबंधन सहयोगियों के बीच पैदा होने वाली किसी भी परेशानी को उभरने नहीं देंगे। इस संदर्भ में आंध्र की अहम पार्टी टीडीपी के साथ गठबंधन का ऐलान होने से पहले पेश आ रही मुश्किलों पर गौर करना दिलचस्प होगा। एक ओर प्रदेश भाजपा इकाई और दूसरी तरफ टीडीपी की इकाई के घोर विरोध के बावजूद मोदी ने जब यह साफ कर दिया कि दोनों दल साथ मिलकर तेलंगाना व सीमांध्र के चुनाव मैदान में उतरेंगे तो कुछ दिनों की देरी के बावजूद गठबंधन को मूर्त रूप दे दिया गया।
कुल मिलाकर कहा जाए तो गठबंधन के मामले में नरेंद्र मोदी को कमान सौंपने से भाजपा को फायदा ही हो रहा है, अब यह साफ दिख रहा है। यूपीए के कुछ वर्तमान और कुछ पूर्व सहयोगी भी चुनाव-बाद पाला बदलने को तैयार हैं, इसके संकेत मिलने लगे हैं। इनमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, द्रमुक और तेलंगाना राष्ट्र समिति प्रमुख हैं। इसके अलावा गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस खेमे की अन्नाद्रमुक और सीमांध्र में जगन मोहन के नेतृत्व में वाइएसआरसीपी का झुकाव नजर आ रहा है।
इसी हफ्ते जारी हुए भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र ने स्थिति कुछ और साफ कर दी है। इस घोषणा पत्र को खुद मोदी ने सुशासन और विकास का दस्तावेज करार दिया है। वह इस घोषणा पत्र में किए गए वायदों को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं छोडे़ंगे, यह भरोसा भी देश को दिलाया है। घोषणा पत्र की बारीकियों में न जाते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसकी दिशा विकासोन्मुखी है, देश की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की कुव्वत रखती है और महिलाओं, वंचित तबकों से लेकर अल्पसंख्यकों तक, सभी को विकास में भागीदारी देने वाली है।
घोषणापत्र के अंतिम छोर पर अयोध्या में राममंदिर, कश्मीर में धारा 370 और समान नागरिक संहिता के प्रति भाजपा के वैचारिक संकल्प को भी दोहराया गया है। क्या घोषणापत्र का यह पन्ना मोदी को विकास पुरुष के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कवायद को धक्का पहुंचा सकता है? क्या इससे सहयोगी भड़क सकते हैं या आशंकित हो सकते हैं? नरेश गुजराल आश्वस्त हैं कि इसकी संभावना बिलकुल नहीं है क्यांेकि यह घोषणापत्र भाजपा का अपना संकल्प पत्र है, राजग का नहीं। जो वैचारिक प्रतिबद्धताएं इसमें दोहराई गई हैं वह भाजपा संगठन से जुड़ी हैं। जबकि केंद्र सरकार राजग के न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित होगी जिसकी रूपरेखा बननी शुरू हो गई है।
वाजपेयी से लेकर मोदी की राजनीति का बेहद बारीकी से अध्ययन करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत मिश्र इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार करते हैं। मिश्र के मुताबिक घोषणापत्र में सांस्कृतिक विरासत शीर्षक के अंतर्गत किए गए इन मुद्दों के उल्लेख से मोदी के विकास पुरुष की राजनीति का कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए। उनके मुताबिक इन तीनों मुद्दों में न तो कहीं कानून से परे कोई बात कही गई है और न ही किसी समुदाय को आशंकित करने का सवाल। राम मंदिर या समान नागरिक संहिता के संदर्भ में संविधान और कानून के दायरे में रहकर सभी संबंधित लोगों से विस्तृत विचार विमर्श की बात ही कही गई है लिहाजा इससे मोदी की विकासोन्मुखी राजनीति पर असर पड़ने का सवाल ही नहीं उठता।
बरहाल, बदली परिस्थितियों में नरेन्द्र मोदी के जोशीले नेतृत्व में भाजपा भारत के लिए एक व्यापक भूमिका निभाने को तैयार दिखती है।
कर्नाटक में लाचार राहुल
पिछले 2 महीने में राहुल कर्नाटक तीन बार गए हैं और बेंगलूरु में युवाओं के बीच बातचीत के अपवाद को छोड़ दें तो उनका पूरा प्रचार अभियान फीका और भाषण राजनीतिक दृष्टि से प्रभावहीन रहे हैं। कांग्रेस नेताओं को आशा थी कि कांग्रेस उपाध्यक्ष विपक्ष पर हमले को नई धार देने और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढाने में कामयाब होंगे लेकिन ये दौरे पार्टी के लिए दक्षिण में निराशाजनक ही साबित हुए। निजी तौर पर उनके भाषणों और संदेशों में बौखलाहट और लड़ाई शुरू होने से पहले हार मान लेने की निराशा साफ दिखाई पड़ती है। वरिष्ठ पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार राहुल बीच राह में भटक गए। एक युवा नेता के तौर पर उन्हें सकारात्मक बातें करनी चाहिए थीं लेकिन उनका पूरा ध्यान सिर्फ मोदी पर प्रहार करने तक सिमट कर रह गया। आज तक भी उनके भाषणों में भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अवैध खनन और नरेन्द्र मोदी से संंबंधित मुद़दों पर भाजपा की आलोचना के अलावा कुछ नहीं है। ये वही मुद्दे हैं जिनको आधार बनाकर 2013 में कांग्रेस ने कर्नाटक में सरकार बनाई थी, अब मोदी लहर में मतदाताओं के गले कुछ नहीं उतर रहा है।
मांड्या से सांसद, कन्नड़ सिने अभिनेत्री रम्या (दिव्या स्पन्दन) कांग्रेस समिति में असंतुष्टों का गलियों में संघर्ष देखकर राहुल के पास गईं। उन्होंने चुनाव अभियान भी स्थगित कर दिया था। कांग्रेस के बुजुर्ग और वरिष्ठ नेताओं के द्वन्द्व में राहुल लाचार दिखते हैं।
मध्य भारत
हिन्दी पट्टी का प्रतिनिधि क्षेत्र मध्य भारत भाजपा के लिए अपेक्षा के अनुरूप नतीजे देने जा रहा है ऐसी उम्मीद हर किसी को है। शिवराज और रमन सिंह के शासन पर विधानसभा चुनावों में बहुमत की मुहर ने इस बात के साफ संकेत दिए हैं कि यह जमीन क्या नतीजे उगलने वाली है। राजस्थान में भगवा पार्टी द्वारा कांग्रेस सरकार का तख्ता पलट इस बात की जोरदार मुनादी है कि मध्य भारत की जनता का भरोसा कांग्रेस खो चुकी है। पूरी हिन्दी पट्टी में कांग्रेस की हालत खस्ता है तो इसकी वजह वह खुद है। हरियाणा में सरकार के कामकाज पर भारी रॉबर्ट वाड्रा की कारगुजारी हो या दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार पर लगे भ्रष्ट्राचार के गंभीर आरोप, देश की सबसे पुरानी पार्टी को यहां हर मोर्चे पर पांव पीछे खींचने पड़े हैं। मीडिया और राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि 83 सीटों वाले मध्यक्षेत्र में कांग्रेस यदि अपने लिए 10 फीसदी भी जमीन सुरक्षित कर सके तो गनीमत होगी।
पूर्वी भारत
नरेन्द्र मोदी के करीब दर्जनभर तूफानी दौरों के साथ पूर्वी भारत में भाजपा ने पहली बार इतनी जोरदार दस्तक दी है। लोकसभा की 88 सीटों वाला पूर्वी भारत, जो कभी भाजपा के लिए कल्पना मात्र था, आज केसरिया लहर से तरंगित दिखता है। नीदो तान्या की हत्या पर ह्यदिल्लीह्ण की असंवेदनशीलता हो या स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर का योगदान या फिर चीनी चुनौती, मोदी ने हर वह बात उठाई जिसे कहने या स्वीकारने में कांग्रेस सदा हिचकती रही। और शायद इसी वजह से बात बन गई। मीडिया और राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार यह पहली बार है कि इस पूरे क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से पर भाजपा के पक्ष में हिलोर उठती दिखाई दे रही है।
पश्चिमी भारत
गुजरात मोदी का घर है। वह पिछले 15 वर्ष से बतौर मुख्यमंत्री सूबे की सफलतापूर्वक अगुआई कर रहे हैं। 78 लोकसभा सीटों वाले पश्चिमी भारत में नरेन्द्र मोदी का जादू साफ-साफ देखा जा सकता है। मीडिया और राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार महाराष्ट्र (48 सीट) और गुजरात (26 सीट) की बड़ी राजनैतिक हिस्सेदारी वाले पश्चिमी भारत का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा फिलहाल केसरिया रंग में रंगा है। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त दोनों ही राज्य कांग्रेस और भाजपा के बीच विकास के मॉडल की बहस गरमाते रहे जिसमें बाजी मारी गुजरात ने। महाराष्ट्र में आदर्श घोटाला कांग्रेस की फांस बना तो राकांपा को लवासा आदि मामलों में फजीहत झेलनी पड़ी।
भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते मैं देशवासियों को यह विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारे घोषणापत्र में जो वादे किए गए हैं, हम सरकार में आने पर प्रत्येक वादे को पूरा करेंगे।
-राजनाथ सिंह
अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी
उत्तर भारत
कुल 162 सीटों वाले उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश और बिहार भाजपा के नए गढ़ के तौर पर उभर सकते हैं। मीडिया और राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार नरेन्द्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के प्रभाव के परिणामस्वरूप केसरिया लहर 64 प्रतिशत तक क्षेत्र को छू रही है। देखना यह है कि लहर सीटों में कितनी और किस तरह परिवर्तित होती है।
हम नहीं जानते कि चुनाव में क्या होगा। लग तो रहा है कि मोदी के सितारे बुलंद हैं। हो सकता है उनके और उनकी पार्टी के प्रयासों का यह नतीजा हो। भाग्य की बात भी हो सकती है या जेसा हिन्दू धर्म में कहा जाता है, शायद नियति यही है।
-चेतन भगत
सुप्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार
दक्षिण भारत
कभी भाजपा के लिए दुर्गम कहा जाने वाला यह क्षेत्र पार्टी के लिए अर्जित पुरस्कार साबित होने जा रहा है। 132 सीटों वाला दक्षिण का दरवाजा इस बार भाजपा के लिए उम्मीद से ज्यादा खुल जाए तो विशेषज्ञों को हैरानी नहीं होगीा। मीडिया और राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार मोदी की अगुवाई में भाजपा की लहर करीब 43 प्रतिशत क्षेत्र में देखी जा सकती है।
छोटा बच्चा और अनुभवहीन लोग देश नहीं चला सकते। दिल्ली जैसे छोटे राज्य की कक्षा छोड़कर (केजरीवाल) ऊंची कक्षा में दाखिला लेने का क्या मतलब हो सकता है। किसी बच्चे (राहुल) का ड्राइविंग सीट पर बैठना उचित नहीं होगा। देश की सत्ता अनुभवी हाथों (मोदी) में हो।
-श्री श्री रविशंकर
टिप्पणियाँ