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सुनने की कला श्रावक बनाती है

by
Apr 12, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Apr 2014 13:17:19

-ओशो-

जैसे पर्वतों में हिमालय है, या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही महापुरुषों में महावीर हैं। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्हें चढ़ाई करनी हो और शिखर पर पहुंचकर ही शिखर को देखना हो, उन्हें बड़ी तैयारी की जरूरत होती है। दरअसल दूर से जो परिचय होता है, वह वास्तविक परिचय नहीं है। महावीर में तो छलांग लगाकर ही वास्तविक परिचय पाया जा सकता है।
महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं- चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई। और महावीर के बाद वह लहर, वह सभ्यता और वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है क्योंकि वह पूरा का पूरा वातावरण, जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं हैं।
गरीब आदमी को पता चलता है धन का, अमीर आदमी को धन का पता नहीं चलता। जो नहीं है हमारे पास वह दिखाई पड़ता है, और जो है वह हम भूल जाते हैं। इसलिए जो-जो आपको मिलता चला जाता है, आप भूलते चले जाते हैं और जो नहीं मिला होता, उस पर आंख अटकी रहती है। यह सामान्य मन का लक्षण है। इस लक्षण को बदल लेना साधना है।
जो है, उसका पता चले तो बड़ी क्रांति घटित होती है। जो नहीं है आपके पास, उसका पता चले तो आपके जीवन में सिर्फ असंतोष के अतिरिक्त कुछ भी न होगा। जो है, उसका पता चले तो जीवन में परम तृप्ति छा जाएगी। जो नहीं है, उसका ही पता चले तो अक्सर अवसर जब खो जाएगा तब आपको पता चलेगा। जो है, उसका पता चले तो अवसर अभी मौजूद है, उसका आपको पता चलेगा, और अवसर आने के पहले, अवसर होते ही बोध हो जाए, तो हम अवसर को जी लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं।
इसलिए ध्यान, जो है उसको देखने की कला है। और मन, जो नहीं है उसकी वासना करने की विधि है। श्रवण करने की कला क्या है? सुनने की कला क्या है? निश्चित ही यह कला है, अ।र महावीर ने कहा है, धर्म-श्रवण, दुर्लभ चार चीजों में एक है। तो बहुत सोच कर कहा है। श्रवण की कला… सुनते तो हम सब हैं, कला की क्या बात है? हम तो पैदा ही होते हैं कान लिए हुए, सुनना हमें आता ही है।
नहीं, लेकिन हम सुनते नहीं हैं, सुनने के लिए कुछ अनिवार्य शतेंर् हैं। पहली- जब आप सुन रहे हों तब आपके भीतर विचार न हों। अगर विचार की भीड़ भीतर है तो आप जो सुनेंगे वह वही नहीं होगा, जो कहा गया है। आपके विचार उसे बदल देंगे, रूपांतरित कर देंगे। उसकी शक्ल और हो जाएगी। विचार हट जाने चाहिए बीच से। मन खाली हो, शून्य हो और सुने, तभी जो कहा गया है, वह आप सुनेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप उस पर विचार न करें। लेकिन विचार तो सुनने के बाद ही हो सकता है। सुनने के साथ ही विचार नहीं हो सकता। जो सुनने के साथ ही विचार कर रहा है वह विचार ही कर रहा है, सुन नहीं रहा है। सुनते समय सुनें, सुन लें पूरा, समझ लें क्या कहा गया है, फिर खूब विचार कर लें। लेकिन विचार और सुनने को जो साथ में मिश्रित कर देता है, वह बहरा हो जाता है। वह फिर अपने ही विचारों की प्रतिध्वनि सुनता है। फिर वह नहीं सुनता जो कहा गया है, वही सुन लेता है, जो उसके विचार उसे सुनने देते हैं।
अपने को अलग कर देना सुनने की कला है। जब सुन रहे हैं, तब सिर्फ सुनें। और जब विचार रहे हैं, तो सिर्फ विचारें। एक क्रिया को एक समय में करना ही उस क्रिया को शुद्ध करने की विधि है। लेकिन हम हजार काम एक साथ करते रहते हैं। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो आप उसे सुन भी रहे हैं, आप उस पर सोच भी रहे हैं, उस संबंध में आपने जो पहले सुना है, उसके साथ तुलना भी कर रहे हैं। अगर आपको नहीं जंच रहा है, तो विरोध भी कर रहे हैं, अगर जंच रहा है, तो प्रशंसा भी कर रहे हैं। यह सब साथ चल रहा है। इतनी पतेंर् अगर साथ चल रही हैं तो आप सुनने से चूक जाएंगे। फिर आपको राइट लिसनिंग, सम्यक श्रवण की कला नहीं आती।
महावीर ने तो श्रवण की कला को इतना मूल्य दिया है कि अपने चार घाटों में, जिनसे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंच सकता है, श्रावक को भी एक घाट कहा है। जो सुनना जानता है, उसे श्रावक कहा है। महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो भी उस पार पहुंच जाएगा, क्योंकि सत्य अगर भीतर चला जाए तो फिर आप उससे बच नहीं सकते। सत्य अगर भीतर चला जाए तो वह काम करेगा ही। अगर उससे बचना है तो उसे भीतर ही मत जाने देना, तो सुनने में ही बाधा डाल देना। उसी समय अड़चन खड़ी कर देना। एक बार सत्य की किरण भीतर पहुंच जाए तो वह काम करेगी, फिर आप कुछ कर न पाएं।
इसलिए महावीर ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले, तो भी पार हो सकता है। हमको हैरानी लगेगी कि ठीक से सुनने से कोई कैसे पार हो सकता है।
ईसा मसीह ने भी कहा है कि सत्य मुक्त करता है। अगर जान लिया जाए, तो फिर आप वही नहीं हो सकते जो आप उसके जानने के पहले थे। क्योंकि सत्य को जान लेना, सुन लेना भी, आपके भीतर एक नई घटना बन जाती है। फिर सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। फिर उस सत्य का जुड़ गया आपसे संबंध, अब आप देखेंगे और ढंग से, उठेंगे और ढंग से। अब आप कुछ भी करेंगे, वह सत्य आपके साथ होगा। अब उससे बचकर भागने का कोई उपाय नहीं है।
प्रस्तुति- स्वामी चैतन्य कीर्ति (ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन)

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