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-शिवानंद द्विवेदी-
संविधान सम्मत लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य और शासन व्यवस्था से सम्बंधित लगभग हर बिंदु पर संवैधानिक प्रावधान होते हैं और उन्ही प्रावधानों के तहत चुनी हुई सरकारों द्वारा शासन कार्य किया जाता है। भारतीय राज्य व्यवस्था को सुचारू एवं निर्विवाद रूप से चलाने के लिए भी एक मुकम्मल लोकतांत्रिक संविधान है जिसमें नागरिक अधिकारों से लेकर अन्य तमाम प्रावधानों पर बेहद साफगोई से वर्णन मिलता है। बावजूद इसके एक सवाल आज भी सामाजिक एवं संवैधानिक रूप से अनुत्तरित है कि भारत में अल्पसंख्यक किसे कहा जा सकता है, अथवा किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक मानने का तथ्यात्मक एवं संवैधानिक पैमाना क्या है? दरअसल, ये वो सवाल है जो न सिर्फ अनुत्तरित है बल्कि भ्रमपूर्ण भी है। अगर आप गौर करें तो अल्पसंख्यक शब्द के भ्रमपूर्ण होने का सबसे ज्यादा फायदा अगर कोई उठा रहा है तो वे देश के कथित सेकुलर जमात वाले राजनीतिक दल हैं। ऐसा नहीं है कि यह शब्द अल्पसंख्यक इतना जटिल है कि इसका कोई जवाब न तलाशा जा सके बल्कि बुनियादी सचाई तो ये है कि इस मुल्क के बहुसंख्यक कथित एवं स्वघोषित सेकुलर जमात के लोगों द्वारा इसको अत्यधिक जटिल बना कर पेश किया गया है। भारतीय राजनीति की चर्चा के केन्द्र में रहने वाले इस शब्द की प्रासंगिकता किसी विमर्श और जटिलता के कारण नहीं बनी हुई है बल्कि इसके जटिलता का सीधा सरोकार वोट पाने की छिछली सियासत से है। अगर इतिहास के पर्दे को पलटकर देखने का प्रयास करें तो इस भ्रमपूर्ण वर्तमान के पीछे आजादी से पहले और आजादी के बाद हुए तमाम घटनाक्रम कारक के तौर पर नजर आयेंगे। दरअसल आजादी के पहले भारत में ब्रिटिश नीति के तहत शासन और व्यवस्था का संचालन हो रहा था जिसका प्रमुख ध्येय ही बांटो और राज करो यानी डिवाइड एंड रुल था। अगर बारीकी से देखें तो आज भी कमोबेश स्थिति उसी तरह की है। ब्रिटिश शासकों ने भारत की मजबूती को शुरुआत में ही भांप लिया था अत: उन्हें इस बात का बोध था कि भारतीय समाज की एकजुटता को वर्गीकृत किये बिना यहां सत्ता चलाना कतई सम्भव नहीं है। यह जानकार आश्चर्य होगा कि भारत में जितनी जनसँख्या मुसलमानों की है उससे ज्यादा संख्या में हिंदू दुर्दिन में जिन्दगी बसर कर रहे हैं। जिस पृथकतावादी सोच की बुनियाद ब्रिटिश हुकूमत में रखी गयी थी उसी सोच को आजादी के बाद भी हमारे हुक्मरानों ने जारी रखा। वोट की चाशनी को चाटने की लालसा कुछ यों बलवती होती गयी कि बिना किसी संवैधानिक पैमाने को तय किये एक के बाद एक फैसले लिए गए। भारत में हिंदुओं को छोड़कर सभी समुदाय अल्पसंख्यक हैं जिसमे मुस्लिम समाज को भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है। गौर करना जरूरी है कि इंडोनेशिया के बाद अगर सबसे ज्यादा मुसलमानों की आबादी किसी मुल्क में रहती है तो वह भारत ही है,लेकिन बावजूद इसके मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक हैं। यह सवाल गैर-वाजिब नहीं है कि आखिर मुसलमान कब तक अल्पसंख्यक रहेगा? आखिर कुल जनसंख्या के कितने प्रतिशत वाले समुदायों को अल्पसंख्यक माना जाएगा? क्या मुसलमान तबतक अल्पसंख्यक माना जाएगा जबतक उसकी जनसंख्या बहुसंख्यकों की जनसंख्या के पार न पहुच जाय ? दरअसल, भारत में हाल ही में शामिल किये गए जैन समुदाय को मिलाकर कुल छह अल्पसंख्यक समुदाय वर्गीकृत हैं जिनमें मुसलमान समुदाय अल्पसंख्यकों के बीच बहुसंख्यक है। यहां पर मुसलमान को अल्पसंख्यक मानने के पीछे सिवाय 1899 की उस ब्रिटिश परिभाषा के कुछ और तथ्य नहीं नजर आता। ब्रिटिश नियामकों से एक कदम आगे बढ़कर भारत में जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आऱएस लाहोटी ने अपने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग भंग करने का सुझाव तक दिया था लेकिन उसपर कोई अमल नहीं हुआ।
दरअसल अल्पसंख्यकों को चिन्हित करने के पीछे मूल मकसद यह होता है कि किसी ऐसे समुदाय, जिसकी संख्या लागातार गिर रही हो और भाषा एवं संस्कृति का क्षरण हो रहा हो, तो सरकार उन्हें अतरिक्त मदद करती है। लेकिन भारत में अल्पसंख्यक होने का कम से कम ये पैमाना तो कतई लागू नहीं है। अल्पसंख्यकों की भाषा के नाम पर सरकार महज उर्दू को संरक्षण दे रही है जबकि हज यात्रा के नाम पर कई तरह की हज समितियां काम कर रही हैं। अल्पसंख्यक संरक्षण के नाम पर महज मदरसों तक खुद को सीमित रखना यह साबित करता है कि भारत सरकार अथवा यहां के राजनीतिक दलों की नजर में अल्पसंख्यक का अर्थ महज मुसलमान होता है। बौद्घ समुदाय को तीर्थाटन के लिए क्या हज सब्सिडी की तरह कोई प्रावधान है? क्या जैन तीर्थों के लिए कुछ है? बिलकुल नहीं, नहीं है।
अत: यहां राजनीतिक दलों की मंशा साफ तौर पर झलकती है कि भारत के स्व-घोषित सेकुलर चेहरों की भाषा में अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान होता है। हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अल्पसंख्यक शब्द संविधान और हमारे राजनेताओं की संदिग्ध विचारधारा के बीच पर्देदारी का काम कर रहा है। यानी पर्दे के आड़ में संविधान को ठेंगा दिखाने का पूरा इंतजाम इस एक शब्द के द्वारा ही किया जा चुका है। बात दरअसल ये है कि हमारा संविधान पंथ आधारित किसी भी प्रावधान को नहीं मानता अत: यह संभव ही नहीं है कि सीधे तौर पर मुसलमानों को अतिरिक्त लाभ पहुंचाया जा सके। इसी वजह से अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर उनको अतरिक्त लाभ देकर वोटबैंक की राजनीति सालों से होती आ रही है। साम्प्रदायिकता का क्या है साम्प्रदायिक वे भी थे जिन्होंने सिखों का संहार किया क्योंकि सिख भी अल्पसंख्यक हैं। लेकिन यहाँ साम्प्रदायिकता का सीधा अर्थ मुसलमानों और हिंदुओं तक सीमित करके रख दिया गया है।
अज कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो इस अल्पसंख्यक की फरेबी शब्दावली पर अपना रुख स्पष्ट करते हुए ये खुल कर बताये कि जब वह सत्ता में आएगा तो अल्पसंख्यक होने का कोई संवैधानिक एवं न्यायोचित पैमाना तय करेगा। इसके उलट देश में सेकुलरिज्म की आड़ में अल्पसंख्यक शब्दावली की पर्दादारी में संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
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