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कसाई के पास छुरा है, नेताओं के पास जुबान। अपने मतलब की बोटियां निकालने के लिए कसाई छुरा चलाता है, समाज को टुकड़े-टुकड़े कर खास वोट बैंक को अलग निकालने के लिए प्रगतिशील नेता सेकुलर जुबान हिलाते हैं।
एकता, भाई-चारे के ढोल-नगाड़े बजाते हुए एक भाई को दूसरे भाई के विरुद्ध चारे की तरह इस्तेमाल करने की राजनीति ही दरअसल सेकुलर सियासत का सच है। वैसे तो, तुष्टीकरण की राजनीति के लिए जनतंत्र में कोई जगह नहीं होती लेकिन सेकुलर ठप्पे के साथ नेता मानो कुछ भी करने को आजाद हैं। यह ध्यान देनी वाली बात है कि प्रगतिशील होने का ढोंग रचते हुए समाज को बांटने का हर षड्यंत्र इस सेकुलर बिरादरी के ही खेमे में रचा जाता रहा है। विडंबना है कि समाज में द्वेष बढ़ाने के इस खेल में देश की सबसे पुरानी पार्टी ने इशारों-इशारों में यह भी जता दिया कि समाज को काटने-बांटने के खेल में जो जितना ज्यादा गिरेगा उसका दर्जा दस जनपथ की नजर में उतना ही ऊंचा उठेगा।
सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद ने भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को 'काटकर' फेंक देने का जहरीला बयान दिया। होना यह चाहिए था कि घृणित आपराधिक मानसिकता वाले ऐसे व्यक्ति की उम्मीदवारी खुद पार्टी रद्द करती किन्तु बदले में मिला राहुल गांधी के दौरे का पुरस्कार।
मुज्जफ्फरनगर दंगों में उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार की भूमिका की भर्त्सना देश के शीर्ष न्यायालय ने की। होना यह चाहिए था कि ऐसी राज्य सरकार की नाकामी उजागर करते हुए दल का राजनीतिक बहिष्कार किया जाता किन्तु अमेठी-रायबरेली में सपा ने गांधी परिवार का समर्थन किया और दंगों का दाग एक झटके में धुल गया।
मगर इस बार शायद नफरत की राजनीति करने वालों को पुचकारना भर काफी नहीं था, विभाजन की खाई गहरी करने के लिए समाज के एक हिस्से को झकझोर कर डराने के लिए खुद कांग्रेस अध्यक्ष मैदान में उतरीं।
सोनिया गांधी की शाही इमाम से मुलाकात और मुस्लिम मतदाताओं से सेकुलर वोट बंटने ना देने की अपील बताती है कि देश और समाज को उसके समग्र-एकाग्र रूप में देखने की ना तो कांग्रेस को आदत है और ना ही वह पूरे समाज की प्रतिनिधि भावना की वाहक है। यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा समाज की एकता और भाई-चारे से ही है।
दरअसल, भय और विभाजन की राजनीति ही कांग्रेस का बीज है। ए.ओ. ह्यूम से सोनिया माइनो गांधी तक कहानी जरा भी नहीं बदली। सामाजिक आक्रोश को शांत करने वाले मंच के तौर पर स्थापित होने और दिखने वाले तंत्र के लिए आज भी यह जरूरी है कि वैमनस्य का तंदूर गर्म रहे वरना उसकी भूमिका और पहचान खुद-ब-खुद खत्म होने लगती है। वैमनस्य नहीं होगा, समाज में जाति और धर्म के आधार पर खाई गहरी नहीं होगी तो सेकुलर शांतिदूत का दाना-पानी कैसे चलेगा? सो, दाना-पानी चलता रहे इसलिए तंदूर की आग भड़काना और इस खेल में मदद करने वालों को सेकुलर ठप्पा लगाकर साथ रखना कांग्रेस का राजनीतिक स्वार्थ-स्वभाव है।
जनाकांक्षाओं के प्रतीक के तौर पर स्थापित पार्टी सदा एक ठंडी मुस्कान के साथ जनता की भावनाओं को रौंदती चली तो सिर्फ इसलिए कि उसने समाज के एक भाग को दूसरे भाग के प्रति आशंकित और भयाक्रांत रखा और स्वयं को ऐसे निर्णयकर्ता के तौर पर प्रस्तुत करती रही जो सब कुछ न्यायपूर्ण ढंग से ठीक कर सकता है। मगर इस बार चुनावी स्थितियां अलग हैं। सामाजिक न्याय के पैरोकार, सेकुलर नारों के व्यापारी और विभाजनकारी राजनीति के विशेषज्ञ डरे हुए हैं। लगता है जनता उन चेहरों को पहचानने लगी है जो सांप्रदायिकता को भुनाते हैं, भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगाते हैं और विकास की राजनीति से भागते फिरते हैं।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस आम चुनाव में देश के मतदाता सिर्फ सरकार ही नहीं चुनेंगे बल्कि देख-परख कर इस बात पर भी मुहर लगाएंगे कि सहारनपुर में जहर की खेती कौन लोग कर रहे हैं, मुज्जफ्फरनगर में हुई मौतों का सौदागर कौन है और दिल्ली में कौन है जिसकी दुकान डर पर चलती है।
सम्पादक
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