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लोकतंत्र की जान हैं नारे। ये माहौल बनाते हैं। नारों से मतदाता किसी खास दल के साथ जुड़ता है। चुनावी सभा में जब नारे लगने लगते हैं तो माहौल गरमा जाता है। इसलिए नारों के बिना चुनावों का कोई मतलब ही नहीं समझ में आता।
विवेक शुक्ला
फिर आ गया चुनाव का मौसम। वातावरण में महसूस कर सकते हैं चुनावों की महक को। आगामी लोकसभा चुनाव के चलते ह्यअब की बार मोदी सरकारह्ण से लेकर राहुल गांधी के फोटो के साथ ह्यकथनी नहीं करनीह्ण तथा ह्यमैं नहीं, हमह्ण जैसे नारे आ गए हैं। इनके अलावा और भी नए-नए नारे आप सुनेंगे। हर पार्टी नवीन और समसामयिक नारों से जनता को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करेगी। सोशल मीडिया के बढ़ते असर के बावजूद नारों का असर बरकरार है। हर चुनाव कुछ नए नारे लेकर आता है। कुछ पुराने नारे वक्त की रफ्तार के चलते खारिज होते रहते हैं,कुछ बने रहते हैं प्रासंगिक। कुछ नारे स्थानीय होते हैं तो कुछ अखिल भारतीय। एक दौर में कितने ही नारे पूरे भारत में गूंजे थे। कुछ नारे चुनावों के समय नहीं उछाले गए और चुनावों में लाभ लेने के लिए नहीं थे, लेकिन उनका राष्ट्रीय महत्व रहा। जैसे 1966 में प्रधानमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी ने दिया था- ह्यआराम हराम हैह्ण और 1965 में लालबहादुर शास्त्री का नारा- ह्यजय किसान, जय जवानह्ण। ये नारे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं और हो सकता आगे भी बने रहें। शास्त्री जी के कालजयी नारे को आगे बढ़ाते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में पोकरण विस्फोट के बाद नारा दिया, ह्यजय जवान,जय किसान, जय विज्ञान।ह्ण
वरिष्ठ लेखक और पत्रकार सईद नकवी मानते हैं कि कि लोकतंत्र की जान हैं नारे। ये माहौल बनाते हैं। नारों से मतदाता किसी खास दल के साथ जुड़ता है। चुनावी सभा में जब नारे लगने लगते हैं तो माहौल गरमा जाता है। इसलिए नारों के बिना चुनावों का कोई मतलब ही नहीं समझ में आता।
कहां गए दीवारों पर लिखे नारे?
कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, जब पार्टियां सार्वजनिक क्षेत्रों की दीवारों पर अपने नारे लिखती थीं। हालांकि बाद में स्थानीय निकायों और चुनाव आयोग के डंडे के चलते ये परम्परा खत्म हो गई। राजधानी में विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही चुनाव आयोग का फरमान भी जारी हो गया कि जो दल दीवारों को अपने नारों से पोतेंगे,उन्हें दंडित किया जाएगा। बहरहाल, एक दौर में रात के अंधेरे में शहर के प्रमुख चौराहों की दीवारों को नए-नए नारों से रंगा जाता था। उन्हें पढ़कर चुनाव का बुखार शहर पर चढ़ता था। उन पर लंबी बहसें होती थीं। लेकिन अब ये नारे आमतौर पर दीवारों पर नही दिखाई पड़ते हैं।
मार्क टली एक अरसे से भारत के चुनावों पर नजर रखते आ रहे हैं। नारों को लेकर वे चिंतित इसलिए हैं कि ये कभी-कभी बहुत तीखे हो जाते हैं। वे विरोधियों पर तीखे वार करते हैं। इससे चुनावी माहौल स्वस्थ नहीं रह पाता। उनका इशारा बसपा की सभाओं में लगने वाले नारे- ह्यतिलक,तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार,ह्ण से था। किसी को बताने की जरूरत नहीं कि ये नारा किन-किन वगोंर् पर हमला करता था। बाद के दौर में बसपा ने इस नारे को छोड़ दिया, जब उसे लगा कि इस नारे के साथ उसे समाज के अन्य वगोंर् का साथ और समर्थन नहीं मिलेगा। टली मानते हैं कि कड़वाहट पैदा करने वाले नारे खारिज हो जाते हैं। बसपा के ये दो नारे ह्यहाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैह्ण और ह्यनागनाथ-सांपनाथह्ण भी वर्ग विशेष, दल विशेष पर निशाना लगाते थे। बसपा के एक और नारे पर गौर फरमाइये- ह्यब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जायेगा।ह्ण बहुजन समाज पार्टी का एक और नारा है, ह्यचढ़ गुण्डों की छाती पर मुहर लगेगी हाथी परह्ण ने भी खासा असर छोड़ा।
अगर 60 के दशक के पन्ने पलटें तो गोरक्षा आंदोलन को तेज करते हुए जनसंघ ने नारा दिया- ह्यगाय हमारी माता है, देश-धर्म का नाता है।ह्ण एक दौर में जनसंघ के नेता जनता से कांग्रेस सरकार बदलने के लिए अपने भाषणों में खूब तीखी शैली का प्रयोग करते थे। उनकी काट के लिए कांग्रेसियों ने नारा दिया था- दीपक बुझ गया तेल नहीं, सरकार बदलना खेल नहीं। पर भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ ने एक बड़ा नारा दिया था- ह्यहर हाथ को काम, हर खेत को पानी, हर घर में दीपक, जनसंघ की निशानी।ह्ण बाद के सालों में अटल जी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने के साथ ही भाजपा ने इस नारे को अपने पक्ष में खूब प्रचारित किया ह्यअबकी बारी, अटल बिहारीह्ण। भाजपा का एक नारा ह्यकहो दिल से, अटल फिर सेह्ण भी खूब चला।ह्ण
कांग्रेसी नारों में नेता-भक्ति
कांग्रेस पार्टी के नारों में सदैव नेता भक्ति का भाव प्रकट होता रहा है। इसे 1971 से आप देख सकते हैं। उस साल हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने ह्यकांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओह्ण का नारा दिया। इस नारे ने अपना खूब असर छोड़ा था। यह नारा जब आया तब देश समाजवादी मूल्यों को लेकर समर्पित था। इस नारे ने कांग्रेस को फायदा दिलाया। पर अगले साल 1977 के लोकसभा चुनावों में जय प्रकाश नारायण ने इसकी हवा निकालते हुए नारा दिया ह्यइंदिरा हटाओ-देश बचाओ।ह्ण
देश आपातकाल में हुई ज्यादातियों से त्रस्त था। इस नारे ने आग में घी डालने का काम किया और कांग्रेस चुनावों में हार गई। असम से कांग्रेस के नेता देवराज उर्स ने 1978 में चिकमगलूर उप चुनाव के वक्त एक हल्का नारा इंदिरा-स्तुति में दिया था। विज्ञापन विशेषज्ञ प्रसून जोशी कहते हैं कि नारा वही होता है, जो किसी पर वार करने की बजाय मतदाताओं को तुरंत अपनी और आकर्षित कर ले। लेकिन जिन नारों में ओछे वार किए जाते हैं, वे अपना असर नहीं छोड़ पाते। साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ह्यजब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा,ह्ण के नारे ने पूरे देश में सहानुभूति की लहर पैदा की और कांग्रेस को बड़ी भारी जीत हासिल हुई। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद ह्यराजीव तेरा ये बलिदान याद करेगा हिंदुस्तानह्ण खूब गूंजा और इसका असर भी मतदान पर देखा गया।
उत्तर आपातकाल का दौर
आपातकाल के बाद आम चुनाव में नारों का खासा जोर रहा। इस दौरान ह्यसन् 1977 की ललकार, दिल्ली में जनता सरकारह्ण, ह्यसंपूर्ण क्रांति का नारा है, भावी इतिहास हमारा है,ह्ण ह्यफांसी का फंदा टूटेगा, जार्ज हमारा छूटेगा,ह्ण जैसे नारे खूब चले। तब जे.पी आंदोलन से कौन अछूता था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की ये कालजयी पंक्तियां जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति का नारा बनीं, ह्यसम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास तुम्हारा है।ह्ण
दिनकर जी की कविता ह्यदो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनोह्ण ह्यसिंहासन खाली करो कि जनता आती है,ह्ण कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनी। ह्यसंपूर्ण क्रांति का नारा है, ये देश हमारा है।ह्ण जे.पी ने यह नारा 70 के दशक में दिया।
पहले भी आम आदमी
भले ही अरविंद केजरीवाल की पार्टी अब आम आदमी पर अपना कॉपीराइट दावा करती है, पर कांग्रेस ने भी कभी आम आदमी को बरगलाया था इन नारों से- ह्यकांग्रेस का हाथ,आम आदमी के साथ,ह्ण ह्यआम आदमी के बढ़ते कदम,हर कदम पर भारत बुलंद।ह्ण ये नारा साल 2009 के लोकसभा चुनावों में खासा चला था। आम आदमी की बात चली है तो आम आदमी पार्टी के कुछ ताजा नारों का जिक्र करने का मन कर रहा है। आप भी गौर फरमाइये- ह्यझाड़ू चलेगी पाप पे,मुहर लगेगी आप पे,ह्ण ह्यलगाओ झाड़ू़.़.हटाओ धूल, फिर ना कहना, हो गई भूल,ह्ण ह्यचाहे मामा हो या भांजा,चाहे जीजा हो या साड़ू,सब पर भारी पड़ने वाली है आम आदमी की झाड़ू,ह्ण ह्यआप की झाड़ू ,आप का नारा,भ्रष्टाचार मुक्त हो ,भारत देश हमारा। कितने कारगर नारे?
भारतीय जनता पार्टी का एक ह्यनारा मजबूत नेता, निर्णायक सरकारह्ण भी सिर चढ़कर बोल चुका है। सन् 1996 के लोकसभा चुनावों के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी के पक्ष में नारे लगे- ह्यअबकी बारी अटल बिहारी।ह्ण तब का भाजपा का एक और नारा-बारी, ह्यबारी, सबकी बारी, अबकी बारी अटल बिहारीह्ण ने अखिल भारतीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ी थी। सन 2004 में ह्यइंडिया शाइनिंगह्ण का नारा लगा। प्रमोद महाजन ने इसे दिया था। हालांकि कुछ नारों पर कभी किसी को यकीन नहीं होता। उदाहरण के रूप में समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह ने नारा दिया- ह्ययूपी में है दम ,क्योंकि जुर्म यहां है कमह्ण। इसे विज्ञापनों में भी चलाया गया। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन इस नारे को अपनी भारी-भरकम आवाज में बोलते थे। पर ये नारा पिट गया क्योंकि किसी को यह दावा सही नहीं लगा कि यूपी में जुर्म कम हैं।
जिस समय देश में बोफर्स सौदे में दलाली खाने का राजीव गांधी पर आरोप लग रहा था तब ह्यबोफर्स के दलालह्ण नारा भी चला और इसने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया। इसी दौर में वी.पी सिंह के समर्थन में नारे लगे- ह्यराजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है।ह्ण इसके जवाब में नारे लगे ह्यफकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।ह्ण ये वह दौर था जब वी.पी सिंह कांग्रेस से अलग होकर बोफर्स का मुद्दा उठा रहे थे। रामजन्मभूमि आंदोलन के दौर में तमाम नारे आए। उनमें से अनेक अखिल भारत स्तर पर छा भी गए। आपको याद होंगे ये तमाम नारे- ह्यये तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी हैह्ण, ह्यगांव-गांव में जाएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगेह्ण, ह्यसौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगेह्ण।
मेरे, तेरे, उसके नारे
बेशक, नारों में किसी दल विशेष की भावना को महसूस किया जा सकता है। उसमें उनकी सोच के दर्शन होते हैं। इसके बावजूद कुछ नारे दलों की सरहदों को लांघते हैं। उनका कोई दल या संगठन अपने लिए इस्तेमाल कर सकता है।
आज भले ही दीवारों से नारे गायब हो जाएं पर जनता के दिलों से दूर नहीं हो सकते नारे। अगर भारत में किसी को सियासत करनी है, तो उसे अपने नारे अवाम के सामने लाने होंगे। नारों में नवीनता और विविधता बनाए रखनी होगी। हां, कौन सा नारा कब हिट हो जाए, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता।
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