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-डा. भरत झुनझुनवाला-
हमारे नेताओं ने सत्ता पर काबिज़ रहने का विशेष फार्मूला निकाला था। देश को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा लूटे जाने के लिए खोल दिया गया। घरेलू बड़ी कम्पनियों को भी छूट दी गई। कम्पनियों द्वारा की जा रही इस लूट में नेताओं की भागीदारी थी। वे अपना हिस्सा वसूल रहे थे। सोचा था कि इन कम्पनियों से कर वसूलकर गरीब को राहत पहुंचाई जाएगी। मनरेगा, गरीबों को सस्ता अनाज एवं किसानों के लिए ऋण की माफी जैसे कार्यक्रम चलाए जाएंगे। नेताओं और सरकारी कर्मियों के दोनों हाथ में लड्डू थे। बड़ी कम्पनियों को लूट की छूट देने में कमीशन मिलता था। गरीब को राहत पहुंचाने में दुबारा कमीशन मिलता था। साथ-साथ गरीब के वोट भी मिल जाते थे। इसके अतिरिक्त समाज को मजहब, जाति,गरीबों और अमीरों में बांटकर लोगों को आपस में लड़ाकर नेता अपनी रोटी भी सेंक रहे थे।
यह मॉडल अब ध्वस्त होता दिख रहा है। दो समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। पहली समस्या है कि बड़ी कम्पनियों और नेताओं द्वारा लूटे जाने से अर्थव्यवस्था मन्द पड़ रही है। नेताओं की सोच थी कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लूटने की छूट देंगे तो विदेशी निवेश बड़ी मात्रा में आता रहेगा। अर्थव्यवस्था से हो रहे रिसाव को पूंजी की यह आवक ढक लेगी जैसे घाटे में चल रही कम्पनी के खस्ता हालत, कर्ज से मिली रकम से ढक जाती है। परन्तु यह खेल ज्यादा समय तक नहीं चलता है। शीघ्र ही नए कर्ज मिलना बन्द हो जाते हैं और कम्पनी का दीवाला निकल जाता है। इसी प्रकार अन्दर से खोखली हो रही अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश मिलना कम हो गया है। जैसे खून निकाल लेने से एथलीट भी कमजोर पड़ जाता है वैसे ही हमारी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ रही है। देश के नागरिकों द्वारा उपार्जित धन का बड़ा हिस्सा कम्पनी और नेताओं द्वारा विदेश भेजा जा रहा है और अर्थव्यवस्था मन्द पड़ रही है। सरकार के पास गरीब को राहत बांटने के लिए पैसा उपलब्ध नहीं रह गया है। यह मॉडल असफलता के कगार पर है।
दूसरी समस्या जन चेतना की जागृति से उत्पन्न हो रही है। नेताओं की सोच थी कि गरीब को नए-नए तरीकों से राहत देकर उसे लगातार बांधे रखा जा सकेगा। ऐसा नहीं हो सका है। आदमी के पास खाने को न हो तो वह भोजन के लिए वोट देने को तैयार हो जाएगा। लेकिन रोटी, कपड़ा और मकान मिल जाने के बाद जरूरी नहीं है कि वह फ्री साइकिल अथवा टेलीविजन के लिए अपना कीमती वोट दे दे। उसकी चेतना जागृत हो जाती है। वह नेताओं और सरकारी कर्मियों के ऐशेाआराम से उद्वेलित होता है। वह देखता है कि सुबह साइकिल पर दूध बेचने निकलता है और शाम तक मशक्कत करके मात्र 300 रुपए कमा पाता है, जबकि सरकारी कार्यालयों में कर्मी चाय पीकर दिन काट देते हैं और 10,000 रुपए कमाते हैं। वह चाहता है कि देश की समृद्धि में उसका भी हिस्सा बने। वह दुकान खोलना अथवा टैक्सी खरीदना चाहता है। फ्री टेलीविजन के स्थान पर उसके लिए उत्पादन के अवसर ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। यही कारण है कि तमाम राहत कार्योंं के बावजूद यूपीए सरकार से मतदाता नाराज हैं। मतदाता कह रहा है कि हमें फ्री टेलीविजन मत दीजिए; हमें सड़क दीजिए और पीडब्ल्यूडी के भ्रष्टाचार को बन्द कीजिए। इस प्रकार लूट तथा राहत का मॉडल विफल हो गया है।
आने वाले समय के प्रति मैं उत्साहित हूं। पूरे देश की चेतना जागृत होती दिख रही है। मेरे गांव में गरीब मनरेगा में नहीं जाना चाहते हैं, क्योंकि दिहाड़ी देर से मिलती है और बाजार में वेतन भी अच्छे हैं। लोग समझ रहे हैं कि जाति, मजहब और बीपीएल के माध्यम से हमें भिड़ाया जा रहा है। जैसे चतुर बिल्ली ने दो कुत्तों के बीच बंटवारा करने में रोटी चट कर दी थी उसी प्रकार अपनों के बीच कलह कराकर नेता और अधिकारी उनकी सड़क को चट कर रहे हैंंंंंंंंंं। आज मांग उठने लगी है कि जाति आधारित आरक्षण समाप्त किए जाएं। आने वाले समय में मजहब और बीपीएल आधारित कार्यक्रमों के विरुद्ध भी आवाजें उठने लगेंगी, ऐसा मेरा अनुमान है। गांधी जी ने देशवासियों को समझाया था कि ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर अपने छुद्र स्वार्थ को हासिल करने के स्थान पर वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़कर अपने बड़े स्वार्थ को हासिल करें। आज ऐसा ही वैचारिक बदलाव होता दिखाई दे रहा है। जनता आवाज उठा रही है कि जाति, मजहब और बीपीएल आदि के नाम पर अपने क्षुद्र स्वार्थ को हासिल करने के स्थान पर हमें बिजली, पानी और सड़क चाहिए। लेकिन इस बदलाव में विजय किसकी होगी, यह अभी कहना कठिन है। देवताओं और असुरों के बीच युद्ध अनवरत चलता रहता है। लम्बे समय तक देवता हारते भी रहे हैं। अतएव जनता के मन में आ रहा यह शुभ बदलाव राजनीति में परिणत होगा या नहीं यह कहना कठिन है। फिर भी सद् नेताओं के द्वारा इन मुद्दों के उठाए जाने से लूट और राहत का असुर एक दिन अवश्य पस्त हो जाएगा।
इस समय हमारे सामने चार चुनौतियां हैं। पहली चुनौती भ्रष्टाचार और सुशासन की है। देश की 98 प्रतिशत जनता की भूमिका मात्र इतनी रह गई है कि वे दो प्रतिशत नेताओं और सरकारी कर्मियों का पेट भरें। 100 रुपए की दिहाड़ी कमाने वाली महिला की माचिस पर टैक्स लगा करके इन राक्षसों का पेट भरा जा रहा है। नेताओं और सरकारी कर्मियों के असुर ने देश को ग्रस लिया है। चुनौती है कि सातवें वेतन वेतन आयोग के ह्यटर्म्स ऑफ रेफरेन्सह्ण को कार्यकुशलता में सुधार तक सीमित कर दिया जाए। सरकारी कर्मियों के वेतन में वृद्धि का लेश मात्र भी औचित्य नहीं है। लोकपाल, सीएजी, सीईसी, सीवीसी, सीबीआई के निदेशक एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सरकारी दखल को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए। इन पदों पर नियुक्ति करने वालों की समिति में वरिष्ठतम शंकराचार्य, सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष, वरिष्ठतम अर्जुन पुरस्कार विजेता जैसे व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए। ऐसा करने से ईमानदार व्यक्तियों की संवैधानिक पदों पर नियुक्ति होने की संभावना बढ़ जाएगी।
दूसरी चुनौती बेरोजगारी और असमानता की है। आज देश में लगभग एक चौथाई युवा बेरोजगार हैं। विस्फोटक स्थिति उत्पन्न हो रही है। मनरेगा से इस समस्या का समाधान नहीं होगा। जरूरत है कि चिन्हित श्रम सघन क्षेत्रों में बड़ी कम्पनियों पर भारी कर लगा दिया जाए। जैसे टैक्सटाइल मिलों पर भारी कर लगा दिया जाए तो हथकरघा उद्योग चल निकलेगा और देखते-देखते बेरोजगारी दूर हो जाएगी। असमानता पर नियंत्रण के लिए विलासिता की वस्तुओं जैसे एयरकंडीशनर पर एक्साइज ड्यूटी में भारी वृद्धि करनी चाहिए। डीजल सब्सिडी, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जन कल्याण जैसे कार्यक्रमों पर सरकार द्वारा लगभग 500 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष खर्च किए जा रहे हैं। इन तमाम कार्यक्रमों को तत्काल बन्द करके इस रकम को 20 करोड़ परिवारों में सीधे नगद वितरित कर दिया जाए तो प्रत्येक परिवार को 25,000 रुपए प्रतिवर्ष मिल जाएंगे। इस रकम से वे भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की अपनी न्यूनतम जरूरतों को बाजार से खरीदकर पूरा कर सकेंगे। बीपीएल के ठप्पे तथा मनरेगा के कारण नौकरी पर न जा पाने की समस्या समाप्त हो जाएगी। आम आदमी ऊर्जावान हो जाएगा।
तीसरी चुनौती बुनियादी संरचना की है। पिछले दशक में हाइवे, बंदरगाह, एयरपोर्ट एवं रेल इत्यादि में सरकारी निवेश में भारी कटौती हुई है। निजी कम्पनियों के इन क्षेत्रों में प्रवेश का स्वागत है। परन्तु जहां निजी कम्पनियां प्रवेश नहीं कर रही हैं वहां सरकारी निवेश जारी रहना चाहिए। निजी कम्पनियों के द्वारा इन क्षेत्रों में की जा रही लूट पर भी नियंत्रण जरूरी है। चौथी चुनौती देश की पूंजी के पलायन को रोकने एवं विदेशी बैंकों में पड़ी पूंजी को वापस लाने की है। यूं तो सुशासन स्थापित होने से अर्थव्यवस्था स्वयं चल निकलेगी और पूंजी का पलायन रुक सकता है। फिर भी पूंजी के गैरकानूनी प्रेषण और विदेश में पड़ी पूंजी को वापस लाने के लिए अलग खुफिया तंत्र स्थापित करना चाहिए। इस समय देश में जो विदेशी पूंजी आ रही है उसका बड़ा हिस्सा अपनी पूंजी का राउन्डट्रिपिंग है। जानकारों का अनुमान है कि 75 प्रतिशत विदेशी निवेश अपने ही काले धन की वापसी है। इसे रोक लें तो देश की समृद्धि का रिसाव बन्द हो जाएगा और हमारा छिपा वैभव प्रत्यक्ष दिखने लगेगा।
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