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खुशवंत सिंह का हमारे बीच में होना कहीं ना कहीं आश्वस्त कर जाता था कि अभी निराश होने की जरूरत नहीं है। खुशवंत सिंह एक अप्रतिम लेखक और जिंदादिल इंसान थे। अब उनके जाने के बाद लेखन की वह ताजगी, वह ईमानदारी कहां मिलेगी? उनका खिलंदड़ स्वभाव, मदिरापान से लेकर यौन विषयों पर खुलकर लिखने के चलते खुशवंत सिंह की एक अलग तरह की छवि बनी।
पर ह्यट्रेन टू पाकिस्तानह्ण उपन्यास से उन्होंने अपनी कलम की ताकत के जौहर दिखाने शुरू कर दिए थे। यह उपन्यास सबसे पहले 1956 में प्रकाशित हुआ था। ह्यट्रेन टू पाकिस्तानह्ण में पंजाब के एक गांव ह्यमनु माजराह्ण का नक्शा खींचा गया है। यह कहानी वाला गांव भारत-पाक सीमा के करीब ही स्थित है और यहां सदियों से मुसलमान और सिख मिल-जुल के जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर देश के विभाजन के साथ ही स्थितियां बदलती हैं और लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। यह सारा वृत्तांत एक प्रेम कहानी की पृष्ठभूमि में है। ह्यट्रेन टू पाकिस्तानह्ण लिखकर उन्होंने साहित्य की दुनिया में अपनी दस्तक दी थी।
देश विभाजन का विषय उनके दिल के बहुत करीब था। वे कहते थे, 1947 के विभाजन से अगर कोई सबक मिलता है तो सिर्फ इतना कि भविष्य में ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। दरअसल खुशवंत सिंह ने इस उपन्यास में सिर्फ विभाजन की त्रासदी ही नहीं लिखी है बल्कि मजबूरी और गरीबी के हालात का भी बड़ा मार्मिक चित्रण किया है।
खुशवंत सिंह के अपने नश्वर शरीर को छोड़ने से देश-दुनिया ने भारत के विभाजन,दिल्ली और सिख धर्म को जानने वाली एक प्रमुख हस्ती को खो दिया। ये कोई छोटा झटका नहीं है। जाहिर है,इससे उबरने में लंबा वक्त लगेगा। सबसे बड़ी बात ये है कि खुशवंत सिंह जीवनभर लिखते रहे। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के दौरान मिले अनुभव, राजनीति, भारत के भविष्य और उनके लिए धर्म के मायने क्या हैं, इसके बारे में खूब लिखा।
खुशवंत सिंह को अपनी घर की लाइब्रेरी बहुत अजीज थी। वे इस बात की इजाजत नहीं देते कि कोई उनके घर से किताब लेकर जाए और वापस न करे। उन्होंने कुछ समय पहले ही अपने बेहद सक्रिय जीवन के 100 वें वर्ष में प्रवेश किया था। कई चाहने वाले पहुंचे। देश-विदेश से लेखक,पत्रकार,कवि और उनके प्रशंसक उनसे मिलने के लिए आते रहते थे। खुशवंत सिंह के पुत्र राहुल सिंह मुंबई में रहते हैं। पाञ्चजन्य स्व. खुशवंत सिंह के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है।
प्रस्तुति : विवेक शुक्ला (लेखक लंबे समय तक खुशवंत सिंह के स्तंभ के अनुवादक रह हैं)
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