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भले ही उपनाम की वजह से कुनबा कांग्रेस उनके लिए बिछ-बिछ जाती हो मगर पार्टी के 'युवराज' खुद अपनी ही पार्टी की भद्द पिटाने में माहिर हैं। पहले गांधी हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ उंगली उठाने और फिर 'हिटलर' का ताना खुद उनकी दादी की आपातकालीन तानाशाही पर जा लगने के बाद अब इसमें शायद ही किसी को शक हो कि राहुल गांधी की समझ का स्तर सामान्य समाज से भी कम ठहरता है।
सामान्य अध्ययनशील पाठकों की इस बाबत ई-मेल पर मिली तीखी प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि लोग घृणित सोच और घटिया समझ को फौरन ही दुरुस्त कर देना चाहते हैं। सो, इस अंक की आवरण कथा के आलेख समाज के कुछ ऐसे ही सुधी सामान्य जनों की कलम से। वैसे, देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के खेवनहार से इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वे कुछ पढ़ते-लिखते हों लेकिन यहां मामला सिफर लगता है। राजनीति के ऐसे 'शून्य' पार्टी को किस गर्त में ले जाएंगे इसकी चिंता आम मतदाताओं को नहीं पार्टी के उन रणनीतिकारों को करनी चाहिए जो कुनबा पूजन की भेड़ चाल चलते-चलते उस कगार पर आ पहुंचे हैं जहां विचारवान राजनीति का अवसान होता है।
सेकुलर लबादा ओढ़ भीड़ को गुमराह करने की राजनीति आज कांग्रेस को संभवत: उस भूलभुलैया में ले गई है जहां से निकलने का रास्ता वंश की बंसी बजाने से खुलता नहीं और संकरा होता जाता है। भगवान भला करे, अब यह तो पार्टी को खुद ही सोचना होगा कि जिसे नेमत मान बैठै कहीं वही मुसीबत तो नहीं।
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