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.डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
अंग्रेजी का सेकुलरिज्म शब्द भारत मंे पहली बार 3 जनवरी, 1977 को देश मंे आपातकाल के दिनों में, जिस समय सत्ताधारी कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के अलावा देश के सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेता, राजनीतिज्ञ, विद्वान, विचारक तथा चिंतक जेलों के सींखचों के पीछे थे,भारतीय संविधान में केवल दस मिनट में 42वें संशोधन को पारित कर लागू कर दिया। इससे पूर्व यह भारतीय संविधान की उद्देश्यिका में न था। मूलत: यह शब्द 1951 में इंग्लैंड में एक राजनीतिक नकारात्मक तथा प्रतिक्रियावादी विचार के रूप में जन्मा था। सामान्यत: यूरोप में इसे नास्तिकता के दर्शन के रूप में लिया गया। सेकुलरिज्म शब्द की सही मीमांसा के लिए इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना उपयोगी होगा।
यूरोप में मजहबी संघर्ष
पाश्चात्य जगत में सेकुलरिज्म के चिंतन की जड़ें प्राचीन ग्रीस, रोम, यहूदी तथा ईसाई मत में प्राचीन ग्रीक मंे राजा और चर्च में कोई अंतर नहीं था, देवता की पूजा नागरिकता की पहली कसौटी थी। अफलातून ने राज्य को एक रिलीजियस कम्फैशन माना है। रोम के शासकों को भगवान माना जाता था तथा उनकी पूजा होती थी। यहूदी दैवीय कानून को भगवान की इच्छा मानते थे। ईसाई मत शीघ्र ही एक चुनौती के रूप में आया।
ईसाइयों का अगले तीन सौ वर्षों तक तीव्र विरोध हुआ। उन्हें चोर, डाकू, धोखेबाज तथा देशद्रोही आदि कहा गया। रोम के शासक कान्स्टेंटाईन ने जब ईसाई मत अपना लिया तब अत्याचारों का यही दौर गैर ईसाइयों पर चला, यूरोपीय इतिहास में यही क्रम अगले एक हजार वर्ष तक चलता रहा। मजहबी युवकों ने सभी मानवीय मूल्यों की हदें पार कर दीं। यूरोप के इस मध्यकाल, 500 ई़ से 1500 ई़ तक के काल में विचारों पर चर्च का पूर्ण नियंत्रण रहा। 15वीं शताब्दी में ग्रीक समाज में जागृति आई तथा अपने को उन्होंने ह्यविश्व की महानतम सभ्यता का वंशजह्ण बतलाया। ग्रीकों का चर्च से टकराव हुआ। यह संघर्ष ग्रीक रोमन विरासत तथा सैमेटिक प्रभाव, जिसका नेतृत्व चर्च करता था, के बीच हुआ। संघर्ष में सेकुलर शक्तियों को बढ़ावा मिला। इतना ही नहीं चर्च के विभिन्न सम्प्रदायों में आपस में मारकाट चलती रही, चर्च और राज्य की प्रभुसत्ता को लेकर अनेक प्रश्न तथा विवाद चले। इसी दौरान पुनर्जागरण तथा सुधारों का काल भी आया। पादरी मार्टिन लूथर ने 16वीं शताब्दी में प्रोटेस्टैंट मत की स्थापना की। शासक का पंथ जनता का पंथ बन गया और हजारों लोगों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमरीका में सेकुलरिज्म के लिए आंदोलन हुए। 1786 ई़ में धार्मिक स्वतन्त्रता स्थापित करने के लिए बिल रखा। इस अर्थ में अमरीका विश्व का पहला सेकुलरवादी राज्य बना। 1791 ई़ में अमरीका के संविधान में इसे मान्यता दी। अमरीका के प्रारम्भिक राष्ट्राध्यक्षों, जॉर्ज वाशिंगटन, जैफरसन, मैडीसोन, जॉन एडम्स सभी के तत्कालीन लेखों से ज्ञात होता है कि वे नास्तिक थे यद्यपि उन्हें सेकुलरवादी कहा गया है। परन्तु नास्तिकता व्यावहारिक रूप कभी न ले पाई। विश्व प्रसिद्ध नास्तिकों के वर्तमान नेता तथा संगठक रिचर्ड डाकिन्स का कथन है कि आज भी राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव में बडे़े व्यक्ति का अपने को नास्तिक कहना उसकी राजनैतिक आत्महत्या की भांति है। इंग्लैंड भी इन पांथिक झगड़ों में पीछे न था। इंग्लैंड ने प्रोटेस्टैंट सम्प्रदाय को अपनाया था। 1832 ई. के प्रथम सुधार नियम के समय रिलीजन और राजनीति को अलग करने को कहा गया था। ईश्वर व ईसाइयत के अस्तित्व को भी चुनौती दी गई थी, परन्तु इंग्लैंड को स्वीकार न था। इतना ही नहीं इंग्लैंड के सम्राट/सम्राज्ञी के लिए प्रोटेस्टैंट मत मानना अनिवार्य था।
शाब्दिक दृष्टि से ह्यसेकुलरिजमह्ण का प्रयोग सर्वप्रथम इंग्लैंड के जार्ज जैकब होलीयाक (1817-1906) ने किया। यह शब्द अंग्रेजी के ह्यसेकलुजनह्ण के प्रयोग से बना जिसका अर्थ है अलग होना। अत: यह सरकार द्वारा प्रचलित चर्च या पंथ से अलग होने की घोषणा थी। जैकब ने इसका अर्थ बतलाया-व्यक्ति के ही आत्मविवेक एवं आत्मचेतनानुसार स्वतन्त्र चिंतन की व्यवस्था। उसने अपनी पुस्तक में इसकी प्रकृति की विस्तृत व्याख्या की है। अनेकों ने इसका अर्थ नास्तिकता से लिया। आधुनिक विद्वान बटैण्ड रसैल तथा राबर्ट इन्मेटशोअल इस श्रेणी में आते हैं।
पंथनिरपेक्षता की गहरी जड़ें
भारत में सेकुलरिज्म की प्रासंगिकता का अर्थ तथा स्थिति को समझने के लिए इससे पूर्व मत तथा रिलीजन के अर्थ में अंतर समझाना अपरिहार्य होगा। पाश्चात्य देशों में पंथ के लिए रिलीजन शब्द का प्रयोग किया गया जो वस्तुत: समानार्थी या पर्यायवाची नहीं है। मत का व्यापक अर्थ कर्तव्य, नैतिकता, आचरण, जीवन के नैतिक मूल्य तथा आध्यात्मिकता है। जबकि रिलीजन के अर्थ में यह किसी विशिष्ट सम्प्रदाय, वर्ग, पंथ अथवा पूजा पद्धति के साथ जुड़ा है। मत कर्तव्य की अनुभूति कराता है जबकि राजनीति अधिकार का अनुभव कराती है।
पश्चिमी जगत में सतत पांथिक युवकों के विपरीत भारत के प्राचीनकाल से धार्मिक सहिष्णुता, उदारता तथा समरसता का बोलबाला रहा है। इसे धार्मिक आस्था की स्थली कहा गया है। ऋग्वेद में कहा गया कि सत्य एक है परन्तु विद्वानों ने इसे भिन्न-भिन्न शब्दावली में बताया है। बृहदाराण्यक उपनिषद् में धर्म को सर्वोपरि बताया है। महाभारत में कहा है कि यद्यपि राजा को अधिकार तथा शक्ति दी गई है परन्तु असली प्रभुसत्ता धर्म है राजा नहीं। कोई धर्म के ऊपर नहीं है। यही बातें गीता के धर्म सूत्रों तथा अन्य ग्रन्थों में कही गई है। मनुस्मृति में राजा को निर्देश देते कहा गया जैसे पृथ्वी माता सभी प्राणियों को समान सहायता देती है। एक राजा को भी बिना किसी भेदभाव के सहायता करनी चाहिए। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य का कर्तव्य सबकी सुरक्षा, चाहे वह किसी मत-पंथ का मानने वाला हो, बतलाया है।
भारत के प्राय: सभी शासकों ने धर्मोपासना पद्धति (रिलीजन) के आधार पर कभी भेदभाव नहीं किया। मौर्य सम्राट अशोक तथा गुप्त शासकों ने सभी पंथों तथा सम्प्रदायों को आश्रय दिया। चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के मंत्री बौद्ध तथा शैव थे। हर्षवर्धन ने सभी ब्राह्मणों, श्रमणों का सम्मान किया था, इतना ही नहीं भारत में पारसियों तक सीरियन ईसाइयों को आश्रय दिया था। पारसियों के लिए अग्नि मंदिर बनवाये, वहां त्रावणकोर के हिन्दू राजाओं ने पहला चर्च बनवाया था।
भारत के दक्षिण में चर्च तट पर पहली मस्जिद का निर्माण भी कराया गया था। विजयनगर के प्रसिद्ध सम्राट कृष्णदेवराय ने अपने राज्य में मस्जिद के साथ दो मुस्लिम बस्तियों को भी स्थान दिया था, एक पुर्तगाली यात्री बारबोसा ने लिखा राजा ने इतनी स्वतंत्रता दे रखी है कि कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार विचरण कर सकता है तथा अपने पंथ के अनुसार जीवन बिता सकता है। उसे न कोई कष्ट देगा और न यह पूछेगा कि तुम ईसाई, यहूदी, मुसलमान अथवा हिन्दू हो। शिवाजी महाराज, रणजीत सिंह की अनेक घटनाएं भी ऐसा आभास कराती हैं। संक्षेप में भारत में सदैव सर्व पंथ समभाव यहां का विश्व में एक वैशिष्ट्य रहा है।
देश-विदेश के अनेक विद्वानों ने भारत के इस सर्वपंथ समभाव की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। महात्मा गांधी ने माना है कि हिन्दू धर्म कोई पंथ नहीं है, हां यह अनेक रिलीजनों का समुच्चय है। उन्होंने हिन्दू धर्म को सत्य की अथक खोज का दूसरा नाम तथा सबसे अधिक सहिष्णु बताया तथा एक धर्म, जिसमें सिद्धांतिक कट्टरता नहीं, आत्मभिव्यक्ति का अधिक से अधिक अवसर देने वाला है। उन्होंने पुन: कहा हिन्दू मूर्खता की हद तक असाम्प्रदायिक है। विश्वविख्यात भारतीय दार्शनिक तथा भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ़ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा-भारतीय जैसी उदारता विश्व में कहीं भी नहीं है। साथ ही यह भी कहा हिन्दू किसी पद्धति या पुस्तक या पैगम्बर से नहीं बना है बल्कि निरंतर नव-अनुभवों के आधार पर सत्य की चिरंतन खोज है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध बर्नाड शॉ ने हिन्दू धर्म को ह्यविश्व का सर्वाधिक उदार धर्मह्ण बतलाया।
भारतीय संविधान सभा में चर्चा
बड़े आश्चर्य का विषय है कि लगभग तीन वर्षों (10 दिसम्बर 1946 – 26 नवम्बर 1949) में भारतीय संविधान सभा में इतनी लम्बी अवधि में इसके कार्यवाहियों के दस्तावेजों में कहीं भी सेकुलरिज्म पर कोई विशिष्ट वार्ता नहीं है। इस शब्द का प्रयोग नाममात्र का हुआ है। उल्लेखनीय है कि 15 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में भारतीय संविधान को अंतिम रूप देने में प्रत्येक अनुच्छेद पर विचार प्रारंभ हुआ तब सेकुलर शब्द के प्रयोग की बात की गई, जब भारतीय संविधान के अनुच्छेद एवं राज्यों के संघ कहने पर चर्चा हुई, तब एक सदस्य प्रो़ के़ टी़ शाह ने इसे ह्यसेकुलर फेडरल सोशलिस्ट यूनियनह्ण कहने को कहा, परन्तु इसे अस्वीकार किया गया। सेकुलर शब्द की मामूली चर्चा मौलिक अधिकारों के प्रसंग पर भी हुई परन्तु चर्चा ने पक्ष की बजाय विरोधी रूप अधिक ले लिया। सेकुलर राज्य के विचार को श्री लोकनाथ मिश्र ने फिसलनकारी बताया तथा इसका उद्देश्य भारत की प्राचीन संस्कृति के दमन का तरीका बताया। उन्होंने अनुच्छेद 18 का चार्टर ़.़ ह्यअत्यधिक अपमानजनक तथा भारतीय संविधान का कालिमा वाला भागह्ण बताया।
श्री शिब्बन लाल सक्सेना ने सेकुलर शब्द कहीं नहीं तो राज्य के नीति- निदेशक तत्वों में जोड़ने को कहा, परन्तु उनका यह प्रस्ताव भी स्वीकार न हुआ। 17 अक्तूबर 1949 को श्री बृजेश्वर प्रसाद ने पुन: ह्यसेकुलरह्ण शब्द जोड़ने का आग्रह किया। तर्क था कि इससे अल्पसंख्यकों को नैतिक बल मिलेगा पर प्रस्ताव स्वीकार न हुआ। उल्लेखनीय है कि सेकुलर शब्द के बारे में डॉ़ बी़ आऱ अम्बेडकर की भूमिका सुस्पष्ट रही। यहां तक कि पंडित जवाहरलाल नेहरू भी भारतीय संविधान के अन्तर्गत अपनी सेकुलर संबंधी महत्वाकांक्षा पूरी न कर सके। डॉ़ बी़आऱ अम्बेडकर ने 1951 में भारतीय संसद में कहा, यह संसद किसी पंथ विशेष को शेष लोगों पर थोपने की अधिकारिणी नहीं होगी।ह्ण
संविधान में सेकुलर शब्द जोड़ना
उल्लेखनीय है कि ह्यसेकुलरिज्मह्ण शब्द भारतीय संविधान की उद्देश्यिका में आपातकाल के क्रूर दिनों में, हड़बड़ी में 3 जनवरी 1977 को दस मिनट में पारित कर दिया गया। नि:संदेह इसने अनेक प्रश्नों को जन्म दिया। आपातकाल में ऐसी कौन सी आवश्यकता आन पड़ी थी जो इसे अलोकतांत्रिक ढंग से जनमत को समझे बिना भारतीय संविधान का भाग बनाया गया? क्या यह पंडित नेहरू की महत्वाकांक्षा की पूर्ति थी? क्या यह श्रीमती इंदिरा गांधी की असुरक्षा को दूर करने या प्रभुता स्थापित करने का उपाय था? क्या यह भारतीय मुसलमानों तथा ईसाइयों को प्रसन्न कर हिन्दू प्रतिरोध या भविष्य के लिए एक राजनीतिक चाल थी? क्या यह शब्द जोड़कर अनेक कांग्रेसियों की पूर्व की खटास को दूर करने का प्रयत्न था? कम से कम इसमें कोई सन्देह नहीं कि पं. जवाहरलाल नेहरू तथा उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भारत के बहुसंख्यक हिन्दू धर्म तथा हिन्दुत्व से कोई लगाव न था। देश के अनेक विद्वानों ने भारत के संदर्भ में इस शब्द ह्यसेकुलरिज्मह्ण को सार्थक बतलाया, जो पहले से ही भारतीय मूल चिन्तन में व्याप्त रूप में है। व्यावहारिक दृष्टि से यह नया नहीं है परन्तु यह लाखों भारतीयों के हृदयों तथा मस्तिष्कों में प्रवेश नहीं कर पाया। सामान्यत: अनेक स्वार्थी नेता इसे पंथनिरपेक्ष या अज्ञानवश सर्वधर्म समभाव के रूप में प्रयुक्त करते हैं जो सर्वथा असंवैधानिक, अपमानजनक तथा अपराधमूलक हैं।
भारतीय संविधान में भी ह्यसेकुलरिज्मह्ण का हिन्दी अर्थ ह्यपंथ निरपेक्षह्ण है जो सदैव भारतीय चिन्तन का मूल भाव रहा है। वस्तुत: ह्यसेकुलरिज्मह्ण भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक बनावटी, भ्रामक तथा जबरदस्ती लादा हुआ शब्द है जिसकी इस देश में जरा भी आवश्यकता नहीं थी। प्रसिद्ध विचारक मनोज राखित का यह प्रश्न भारत के संदर्भ में आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण है-पंथ निरपेक्षता के नाम पर पनपता पाखंड मतों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता है।
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