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– तुफैल चतुर्वेदी
और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा
जंग रहमत है कि लानत ये सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गयी सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इन्हीं शोलों के किसी कोने में जन्नत होगी।
– कैफी आजमी
पिछले सप्ताह नाइजीरिया में घटी एक घटना सेकुलर मीडिया के महारथियों की कृपा से वंचित रही है। सेकुलर मीडिया के सारे तीरंदाज इस घटना को ऐसे छुपा गए जैसे यह घटी ही नहीं।
नाइजीरिया के एक स्कूल को रात के दो बजे बोको हराम नाम के इस्लामी आतंकवादी संगठन के लोगों ने घेर लिया। ग्यारह साल से अट्ठारह साल के बच्चों के छात्रावास के दरवाजे बाहर से बंद कर के छात्रावास में पेट्रोल बमों से आग लगा दी गई। जिन बच्चों ने खिड़कियों से छलांग लगाकर भागने की कोशिश की उनके गले भेड़-बकरियों की तरह काट डाले गए। चाकुओं, गोलियों और जलाकर मारे गए बच्चों की संख्या चालीस की है। बोको हराम को 2002 में मुहम्मद युसूफ ने स्थापित किया थ़ा। यह संगठन अल-कायदा से ह्यप्रेरणाह्ण प्राप्त करता है। इसके लोग 2001 से 2013 तक 10,000 लोगों की हत्या कर चुके हंै। यह संगठन 10-12 साल के बच्चों तक को अपने सैनिक बनाने के लिए कुख्यात है। इसका घोषित लक्ष्य शरिया का राज स्थापित करना है। भारत का पूरा सेकुलर मीडिया ही इस घटना पर मौन नहीं रहा। जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ सहित सारे लेखक संगठन, मेधा पाटकर से लेकर शबनम हाशमी, अरुंधति राय जैसे सारे मानवाधिकारवादी, शहाबुद्दीन से लेकर भारतीय फिलिस्तीन मैत्री संघ के सारे भाड़े के टट्टू, कश्मीर पर बेहूदा बकने वाले आम आदमी पार्टी के प्रशांत भूषण जैसे बयान-वीर सारे के सारे मौन रह गए।
एक मुहावरा है-ह्यऐसे चुप बैठे हो जैसे गोद में सांप रखा है और हिलना मना हैह्ण। क्या इस्लामी आतंकवाद की स्थिति गोद में रखे सांप की सी है? इस प्रश्न पर विचार करना और नीति तय करना बहुत आवश्यक है। यह प्रश्न नाइजीरिया का ही नहीं है, अपितु सारी मानव सभ्यता के भविष्य का है। आइए इतिहास के झरोखे से रोशनी लेते हैं। मानवता का यह रूप जिसकी परिणति वयस्क मताधिकार, प्रजातंत्र, मानवाधिकार, रजस्वला होने के बाद विवाह, स्त्री अधिकार के रूप में हुई, वह एक दिन में नहीं आया। मानव सभ्यता इस जगह तक बड़े संघषोंर् के बाद पहुंची है।
हमारे पूर्वज विदेशी आततायी मुगल सत्ता को ध्वस्त कर चुके थे, किन्तु शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता का अभाव था। मथुरा, हरिद्वार, काशी दर्शन उस काल के प्रत्येक हिन्दू का सपना होता था। सारे भारत के लोग समूह बना कर यात्रा के लिए निकलते थे। पाया गया कि मध्य भारत में ऐसे बहुत से समूह गायब हो जाते हैं। इक्की-दुक्की घटनाएं जंगली जानवरों, दुर्घटनाओं का परिणाम मानी जा सकती थीं,मगर ऐसा बड़े पैमाने पर होने लगा तो उन दिनों केंद्रीय सत्ता के रूप में उभर रहे अंग्रेजों के कान खड़े हुए। विलियम हैनरी स्लीमैन को इसकी जांच-पड़ताल सौंपी गयी। उन्होंने इन घटनाओं के लिए ठग समूहों को जिम्मेदार पाया। ठगों का पहला उल्लेख फिरोज शाह के समकालीन जिया-उद-दीन बरनी ने 1356 में किया है। ठगों के गिरोह लगभग 450 साल तक सक्रिय रहे। स्लीमैन ने इस समूह के एक सरदार सैयद अमीर अली, जो फिरंगिया नाम से जाना जाता था, को पकड़ लिया। अमीर अली ने सूचनाएं दीं। सैकड़ों लोगों की सामूहिक कब्रें दिखायीं। उसके बाद हजारों अन्य लोग पकड़े गए। 1400 ठगों को सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई। उन्हीं में से एक बहराम नाम का सरदार भी था। मुकदमे के दौरान उसने ब्रिटिश न्यायाधीश को तर्क दिया कि हम लोगों को मारते नहीं हैं,हम बलि चढ़ाते हैं। न्यायाधीश ने धार्मिक रीति की आड़ लेकर ऐसे अघोरी कृत्य के लिए जिम्मेदार लोगों को बच कर जाने नहीं दिया।
मगर आज का सभ्य समाज उसी तरह के कृत्यों में संलग्न लोगों की अनदेखी कर रहा है। यह स्थिति समाज को कहां ले जाएगी ?
बोको हराम, अल-कायदा जैसे अन्य संगठन और उसकी प्रेरणा-स्रोत वहाबियत यानी शुद्घ इस्लाम अपनी दृष्टि में पूर्ण जीवन प्रणाली है। इस सोच का मानना है कि उसके अतिरिक्त सभी विचार गलत ही नहीं हैं, इस हद तक गलत हैं कि उनका पूर्ण रूप से उन्मूलन किए बिना मनुष्यता ठीक नहीं हो सकती। सोचिए कि वे कैसे लोग होंगे, जो 11 साल से 18 साल के सोते हुए बच्चों को आग लगा कर, गले काट कर मार सकते हैं? ऐसा काम विक्षिप्त मानसिकता ही करवा सकती है। इस विचार के मूल स्रोत कुरआन और हदीस हैं। सम्भव है कुछ मित्र मेरी बात से असहमत हों इसलिए कुरान की कुछ आयतें देखिए-
ओ मुसलमानो, तुम गैर-मुसलमानों से लड़ो। तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिए(9-123)
और तुम उनको जहां पाओ कत्ल करो (191)
काफिरों से तब तक लड़ते रहो जब तक दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिए न हो जाए (8-39)
ऐ नबी! काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो। उनका ठिकाना जहन्नुम है (9-73 व66-9)
अल्लाह ने काफिरों के रहने के लिए नर्क की आग तय कर रखी है(9-68)
उनसे लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान लाते हैं, न आखिरत पर, जो उसे हराम नहीं जानते जिसे अल्लाह ने अपने नबी के द्वारा हराम ठहराया है। उनसे तब तक जंग करो जब तक कि वे जलील होकर जजिया न देने लगें (9-29)
तुम मनुष्य जाति में सबसे अच्छे समुदाय हो, और तुम्हें सबको सही राह पर लाने और गलत को रोकने के काम पर नियुक्त किया गया है (3-110)
जो कोई अल्लाह के साथ किसी को शरीक करेगा, उसके लिए जन्नत
हराम कर दी है। उसका ठिकाना जहन्नुम है (5-72 लम्बे समय इन पंक्तियों की, इस सोच की अवहेलना करते जाने के कारण आज सभ्य समाज को ये दिन देखने पड़ रहे हैं। इसे नाइजीरिया की ही घटना मान लेने से कुछ न होगा कि आज उनकी तो कल हमारी बारी है,यही इस्लाम है। अफगानिस्तान, कश्मीर में ये अभी कुछ साल पहले हो कर चुका है। इस बात को सदियों पहले बीती बात कह कर नहीं टाल सकते कि मुहम्मद का स्तर सामान्य पैगम्बरों जैसा नहीं है। स्वयं मुहम्मद और उनके साथियों ने जीवन भर यह किया था। उनका किया सुन्नत है यानी उनके किए को, जो सारा हदीसों में लिखा है, अपने जीवन में उतारना सबाब का, पुण्य का काम है। फर्ज अर्थात् कर्तव्य है। आतंकवाद तब भी इसलिए फैलाया गया था कि लोग इस्लाम के आक्रामक प्रहारों पर डर कर चुप हो जाएं। आज भी आतंकवाद का यही लक्ष्य है। आतंकवाद इस्लाम को बढ़ाने के लिए उसके पक्ष में डर पैदा करके उसकी आक्रामकता पर चुप रखने की योजना है। यह कार्य स्वयं मुहम्मद, उनके साथियों ने सफलतापूर्वक अरब इत्यादि देशों में किया था। यही अब सारी दुनिया में चल रहा है। यह वैचारिक लड़ाई है और इसे विचार के आधार पर चुनौती दी ही जानी चाहिए, मगर वैचारिक आधार के लिए भी सशक्त राजदंड की आवश्यकता है। सारे संसार के सभ्य समाज को इसका सशक्त विरोध करना चाहिए। नाइजीरिया सहित जहां-जहां ये चल रहा है भारत को उन देशों को सैन्य सहायता देनी चाहिए। अब खुल कर ताल ठोके बिना इससे छुटकारा नहीं मिल सकता।
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