प्रहरियों को पीड़ा देने वाली सरकार की चुनावी चाल
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'एक रैंक एक पेंशन' पगम्भीरता की कमी
आलोक गोस्वामी
युद्धकाल में देश की सीमाओं पर और शांतिकाल में देश के भीतर देशद्रोहियों से निपटने और आपदाओं के वक्त नागरिकों के जान–माल की हिफाजत करने वाले देश के प्रहरी एक लंबे समय से सरकारी दुर्व्यवहार और अनदेखी से पीडि़त रहे हैं। उनका दर्द सरकार द्वारा उनके वेतन का अनुचित निर्धारण कर उनकी सेवाओं का उपहास उड़ाने से उपजा है। और यह दर्द कोई हाल–फिलहाल का नहीं, दशकों पुराना है। मोटे तौर पर इकहत्तर के युद्ध के बाद से ही हमारे सैनिकों ने अपने पद के अनुसार वेतन और सेवा अवधि के अनुसार पेंशन दिए जाने की एक नहीं अनेक बार गुहार की, ह्यएक रैंक एक पेंशनह्ण पद्धति लागू करने की मांग की, इसके लिए अदालतों के चक्कर काटे, वहां से पक्ष में फैसला आने के बाद भी सरकार की हेकड़ी झेलने को मजबूर कर दिए गए, बार बार उन्हें अपमानित होना पड़ा। अदालत के फैसलों को अपने पक्ष में व्याख्यायित करके सरकार ने उन्हें उनके जायज हक से वंचित रखा। लेकिन अब चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होते ही उस सरकार को अचानक उन सैनिकों की याद कैसे आ गई जिन्हें उसने पिछले दस साल से लारे में ही नहीं रखा बल्कि उनके हक पर कुण्डली मारे बैठी रही?
पिछले दिनों संसद में अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री चिदम्बरम ने एक रैंक एक पेंशन योजना लागू करने की घोषणा करते हुए इस मद में 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया। सरकार के इस कदम पर सेवारत सैनिकों और पूर्व सैनिकों ने जितनी तारीफ नहीं की उससे ज्यादा रोष जताते हुए सरकार की नीयत पर सवाल खड़े किए। वे खुश नहीं हैं। पांचजन्य ने कई पूर्व सैन्य अधिकारियों से बात की जिसके निचोड़ में एक ही बात सामने आई–बहुत देर में, बहुत थोड़ा।
सैनिकों के वेतन और पेंशन निर्धारण के इतिहास में थोड़ा पीछे लौटें तो 1973 तक सशस्त्र सेनाओं का अपना अलग वेतन आयोग था और उनका वेतन लोकसेवा अधिकारियों के बरअक्स बेहतर था। लेकिन उसके बाद गठित चौथे वेतन आयोग को सैनिकों के वेतन निर्धारण का जिम्मा दे दिया गया। लोकसेवकों के वेतन से सैनिक अधिकारियों का वेतन कम न रहे इस दृष्टि से आयोग ने रेंक के हिसाब से वेतन देने का फार्मूला सरकार को सुझाया था, जिसके तहत रेंक के अनुसार 200 से लेकर 1200 रु. का प्रावधान रखा गया था। लेकिन सरकार लोकसेवकों के मोह में ऐसी फंसी रही कि सैनिकों के वेतन पर ध्यान ही नहीं दिया गया। इतना ही नहीं, केन्द्रीय वेतन आयोग के सुझावों को भी लागू करने से कन्नी काट ली गई।
सरकार एक के बाद एक सैनिकों का अपमान करती आ रही है। जिसने अपने सैनिकों के सिर काट ले जाने वाले पाकिस्तान की करतूत पर चुप्पी साध ली, वह सरकार अपने चुनावी फायदे के लिए यह शगूफा छोड़ रही है।
–मेजर जनरल (से. नि.) गगनदीप बख्शी
चुनाव से ठीक पहले ऐसी घोषणा करके कांग्रेस ने साफ जता दिया है कि उसकी मंशा वोट पाने की है।
–मेजर जनरल (से. नि.) शेरू थपलियाल
मामला एक बार नहीं, कई बार देश की विभिन्न अदालतों में गया। सरकार के अनुरोध पर ऐसे सभी मामले सर्वोच्च न्यायालय के सामने लाए गए। मामले के हर पक्ष पर गौर करने के बाद देश की सबसे बड़ी अदालत ने 8 मार्च 2010 को फैसला दिया कि इस विवाद का जल्दी निपटारा किया जाए। साथ ही सरकार को आदेश दिया गया था कि सेवारत और सेवामुक्त 20 हजार सैन्य अधिकारियों को वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए बकाया राशि 6 फीसदी ब्याज के साथ दी जाए। लेकिन दिन पर दिन बीतते रहे, सरकार ने कभी पैसा न होने का बहाना बनाया, कभी पुनर्विचार की अर्जी लगाई। लेकिन सैनिकों को उनके जायज हक से दूर रखा। इससे सैनिकों के मनोबल पर असर पड़ना स्वाभाविक था। एक आंकड़े के अनुसार, 2007 से 2010 के बीच जितने सैनिक देश की सेवा करते हुए शहीद नहीं हुए (208) उससे ज्यादा (368) ने अपमान और पैसे की तंगी से टूटकर आत्महत्या कर ली। इतनी पीड़ा है इस विषय में फौजियों की। सेना की ओर से बराबर यह अनुरोध किया जाता रहा था कि वेतन आयोगों में सेना का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए, ताकि उनकी जायज मांगों पर ठीक से विचार हो सके, पर कई बार का अनुरोध सरकार के बहरे कानों से टकरा कर रह गया।
अब संसद में सरकार ने इस मद में जो 500 करोड़ रु. की घोषणा की है वह भी ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। कारण यह है कि खुद रक्षा मंत्रालय और रक्षा लेखों के महानियंत्रक ने 2014-15 के लिए इस मद में 1,730 करोड़ रु. का हिसाब बैठाया था जबकि एक अन्य सरकारी आंकड़ा 3000 करोड़ की मांग बताता था। हालांकि अभी इसकी पूरी गणना करने में कुछ महीनों का वक्त लग सकता है। लेकिन 500 करोड़ किसी तरह पूरे नहीं पड़ेंगे, ऐसा खुद सरकारी अधिकारी मानते हैं।
यहां ध्यान देने की बात है कि चिदम्बरम के संसद में यह घोषणा करने से ठीक पहले कांग्रेस के युवराज ने पूर्व सैनिकों के एक कार्यक्रम में ह्यएक रैंक एक पेंशनह्ण देने की वकालत की थी। इसलिए चिदम्बरम की इस घोषणा को सरकार की अपने युवराज को चमकाने की कवायद ही माना जा रहा है। इस पूरे प्रकरण को हास्यास्पद बताते हुए मेजर जनरल (से. नि.) गगनदीप बख्शी कहते हैं, यह कोरा चुनावी स्टंट है। यह सरकार एक के बाद एक सैनिकों का अपमान करती आ रही है। अरे, जिसे अपने 5 सैनिकों की सीमा पर शहादत से कोई सरोकार नहीं रहा, जिसने अपने सैनिकों के सिर काट ले जाने वाले पाकिस्तान की करतूत पर चुप्पी साध ली, वह अपने चुनावी फायदे के लिए यह शगूफा छोड़ रही है। इस योजना में जिस रैंक पर अधिकारी सेवानिवृत्त हुआ होगा उसके हिसाब से पेंशन दी जाएगी। उनका कहना था कि यह लड़ाई 10 साल से ज्यादा वक्त से चल रही थी, कभी सरकार को ख्याल नहीं आया। अदालत के फैसलों को भी ठेंगा दिखा दिया गया, पर अब चुनाव में वोट बटोरने की गरज से यह घोषणा हो रही है। लेकिन कांग्रेस इस बात को न भूले कि सेना के जवान अब तक हुए अपने अपमान को भूल नहीं सकते। लोग इतने आहत थे कि उन्होंने 14 मार्च 2010 को दिल्ली में अपने वीरता पदक तक लौटा दिए थे और खून से हस्ताक्षर करके विरोध पत्र सौंपा था। अब यह घोषणा करके सरकार ने जवानों के जख्मों पर नमक ही छिड़का है।
एक अन्य वरिष्ठ पूर्व सैन्य अधिकारी मेजर जनरल शेरू थपलियाल पांचजन्य से बातचीत में यह तो मानते हैं कि 'एक रैंक एक पेंशन' योजना लागू होने से कुछ लोगों को राहत महसूस होगी पर ये बहुत देर से लिया गया फैसला है। पूर्व सैनिकों की तो ये बहुत सालों से मांग रही है कि भई, सेवा क अवधि के आधार पर पेंशन दी जानी चाहिए। इसमें थोड़ा हिसाब लगाकर देखना पड़ेगा कि कितने ऐसे दावेदार जीवित हैं और किसको कितनी राशि दी जा चुकी है। इसमें कुछ समय लग सकता है। पर देखना है कि यह सरकार अपनी इस घोषणा पर कितनी कायम रहती है क्योंकि घोषणाएं तो पहले भी बहुत बार की गई हैं, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं होता है। अब चुनाव से ठीक पहले ऐसी घोषणा करके कांग्रेस ने साफ जता दिया है कि उसकी मंशा वोट पाने की है, सैनिकों की भलाई की करने की नहीं।
आज से नहीं, राजनीतिज्ञों की चुनावी राजनीति का सेना और उसकी तैयारियों पर लंबे समय से विपरीत असर पड़ रहा है। शायद यही वजह है कि युवाओं में सेना में भर्ती होने के प्रति रुझान में कमी आई है। सेना के तीनों अंगों में जवानों की कमी देखने में आ रही है। थलसेना में 9,590 अधिकारी कम हैं तो नौसेना में 2,054, और वायुसेना में 742 अधिकारी कम हैं। ये आंकड़े सरकार ने मई 2013 में संसद में दिए थे। देश के रक्षा प्रशिक्षण संस्थानों में भर्ती में कमी आई है। देहरादून की भारतीय सैन्य अकादमी में 2009 में 1,540 स्थानों पर मात्र 1,262 कैडेट भर्ती हुए थे। देश के पहरेदारों के प्रति सरकारी उदासीनता समझ से परे है। जो जवान राष्ट्र रक्षा में हर वक्त सन्नद्ध रहता है उसकी अनदेखी बर्दाश्त से बाहर है। रक्षा प्रहरी देश की सुरक्षा क रीढ़ हैं उनके मान–सम्मान की रक्षा हर हाल में होनी ही चाहिए।
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