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आसन्न चुनाव के लिए अपनी-अपनी पालेबंदी में लगे राजनीतिकों की दृष्टि पूरी तरह से अप्रैल-मई केंद्रित है और इसी निकट दृष्टि दोष से पीडि़त मुख्यधारा के मीडिया में एक अत्यंत महत्वपूर्ण खबर विदेश के पन्ने पर खपा दी गई।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति ममनून हुसैन जब चीनी राष्ट्रपति जी जिनपिंग से हाथ मिलाने बीजिंग पहुंचते हैं तो इसका मतलब सिर्फ औपचारिक मुस्कानों के आदान-प्रदान और सद्भावना संदेशों की अदला-बदली के तौर पर देखना बेवकूफी है। मगर इससे परे देख कौन रहा है ! मुस्कानों के बीच आदान-प्रदान उस जमीन से होकर गुजरने का है जो इन दोनों में से किसी की नहीं…मगर बोल कौन रहा है ! क्या चीन-पाकिस्तान की यह हरकत इतने हल्के में लेने वाली बात है?
पाकिस्तानी बंदरगाह को चीन से जोड़ने के लिए चुना गया रास्ता भारतीय प्रभुसत्ता की घोर उपेक्षा ही नहीं,बल्कि उस शिकंजे की एक कील है जो भारत के ईद-गिर्द कसा जा रहा है। भारत विरोधी, कट्टर मजहबी राज्य को शह देने और सपने दिखाने का चीनी खेल मध्य एशिया में पांव पसारने की उसकी रणनीति का अहम हिस्सा है।
इस इलाके में पांव जमा तो एशिया में अथाह शक्ति का केंद्र हो जाने का रास्ता खुलता है। दुनिया की आठ बड़ी चोटियां, बहुमूल्य खनिजों का अथाह खजाना, साफ पानी के अनुपम भंडार, सोने की अनगिनत खानें यह गिलगित-बाल्टिस्तान की एक झलक है। लंदन-दुबई-मॉस्को-सिंगापुर-चेन्नै… दुनिया के मानचित्र पर अलग-अलग दिशाओं में भूमार्ग से बढ़ने की सहज सुविधा यह इस क्षेत्र की अकूत आर्थिक-रणनीतिक संभावनाओं से जुड़ी बात है। इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र पर चीन-पाकिस्तान कुंडली मार रहे हैं, मगर भारत का राजनीतिक नेतृत्व आंखें मूंदे बैठा है।
गिलगित-बाल्टिस्तान का पूरा क्षेत्र संवैधानिक रूप से भारतीय आधिपत्य की भूमि है, लेकिन यहां से व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए कैसा गलियारा बने और कैसे कराची को बीजिंग से बांधा जाए यह पड़ोसी तय करते हैं और कोई चूं भी नहीं करता, यह है प्रभुसत्ता संपन्न देश के विदेश मंत्रालय की स्थिति।
हम पल-पल हर जानकारी रखने का दम भरते हैं लेकिन देश की भौगोलिक सीमाओं, खुद अपने ही घर के हाल और इसमें हेकड़ी से कब्जा जमाते घुसपैठियों से बेखबर हैं। यह है सूचना क्रांति की स्थिति।
संवैधानिक रूप से यह जमीन भारत की है। कानूनी तौर पर यहां भारत का राज होना चाहिए, मगर अपने देश के अभिन्न हिस्से, रणनीतिक तौर पर विश्व के एक सबसे अहम मोर्चे पर पड़ोसी देशों की मनमानी चलती है और दिल्ली दम साधे बैठी रहती है। यह है नेतृत्व की पंगुता झेलते विश्व के सबसे युवा राष्ट्र की स्थिति।
वैसे, गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र की ताकत ब्रिटिश राज को पता थी। साम्राज्यवादी रूस से उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य को मिलती चुनौती का मुकाबला करने के लिए इस पूरे क्षेत्र के अधिपति, महाराजा हरिसिंह के साथ अंग्रेजों ने 1935 में एक समझौता किया जिसके अंतर्गत गिलगित के सीमावर्ती हिस्सों में अंग्रेजों को सीमित अधिकार दिए गए। 1947 में भारत स्वाधीनता अधिनियम पारित होने के बाद ब्रिटिश राज खत्म हुआ और अंग्रेज भी अपने उन सीमित अधिकारों को समाप्त कर निकल गए। 1 अगस्त, 1947 को ब्रिगेडियर घनसारा सिंह ने महाराज की ओर से गवर्नर के तौर पर पूरे गिलगित क्षेत्र का प्रशासन संभाल लिया।
26 अक्तूबर, 1947 के दिन महाराजा हरिसिंह की पूरी रियासत का भारतीय गणराज्य में पूर्ण विलय हुआ। महाराजा की रियासत के भारत का हिस्सा हो जाने के बाद कोई सवाल बाकी नहीं था, मगर दिल्ली हमेशा गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर भ्रम में दिखी और यहां के लोगों की समस्याओं से और विकास की संभावनाओं से खुद को काटे रखा।
विडंबना ही है कि 19 फरवरी के दिन जब बीजिंग में चीन और पाकिस्तान के राष्ट्रपति भारत के आंगन से गुजरने वाले गलियारे की योजना को मूर्त रूप देते हुए मुस्करा रहे थे, नए राज्यों के गठन पर उबलते-उलझते संासदों के पास अपनी ही संसद का वह बीस बरस पुराना प्रस्ताव याद करने की फुर्सत नहीं थी जिसमें पाक के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर राज्य को फिर हासिल करने का संकल्प जताया गया था।
संकल्प को जीवित रखने के लिए जागना होता है। नेताओं को भी, जनता को भी। जम्मू-कश्मीर-लद्दाख-गिलगित-बाल्टिस्तान… यह भूलने वाली बात नहीं। अपने आंगन से अनधिकृत कब्जा हटाने के लिए पूरे देश को जागना होगा।
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