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-ज्ञानेन्द्र बरतरिया-
इस लेख का उद्देश्य रैमन मैग्सेसे, बुकर और इसी तरह के तमाम अन्य पुरस्कारों के किसी देशी-विदेशी विजेता की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाना नहीं है। भारत में आम चुनावों के संदर्भ में सामने आई तमाम अनशन, धरना, गालीगलौज, लांछन और अराजकता बहादुरों की नई टोपीधारी खेप के कारण इन पुरस्कार विजेताओं की प्रतिष्ठा कम से कम भारत की जनता के एक बड़े वर्ग के सामने पहले ही स्पष्ट हो चुकी है। इतनी कि अब इन पुरस्कारों को प्रायोजित करने वाली फाउंडेशनों को अब अगले कई वर्ष तक सारे पुरस्कार मन मारकर बांटने पड़ेंगे, ताकि उनसे थोड़ा बहुत सम्मान खरीदा जा सके। संदर्भ यह है कि इन्हीं में से कुछ पुरस्कार विजेताओं को इस बात पर घोर आपत्ति है कि पैंग्विन प्रकाशन ने अमरीकी लेखिका वेंडी डोनिगर की पुस्तक- ह्यद हिन्दूज : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीह्ण को प्रकाशित करने के बाद वापस क्यों ले लिया।
सेक्युलर-उदारवादी-नवउदारवादी-नवराजनीतिवादी-अराजकतावादी इस लॉबी ने लगे-लिपटे शब्दों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल उठा दिया है। इस सवाल पर, इस लॉबी की मंशा पर, वेंडी डोनिगर की पुस्तक की मंशा पर लौटें, इसके पहले एक बार देखते हैं कि आखिर वेंडी डोनिगर ने क्या किया है।
वेंडी डोनिगर 73 वर्ष की यहूदी मूल की एक अमरीकी इंडोलॉजिस्ट हैं, जो शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रही हैं। इंडोलॉजिस्ट का शाब्दिक अनुवाद होता है- भारतविद्। लेकिन यह शब्द व्यवहार में शास्त्रीय कम और राजनीतिक-सामाजिक ज्यादा है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेज सरकार को देशी लोगों पर राज करने के लिए ऐसे पढ़े-लिखे लोगों की जरूरत हुई, जो भारत के बारे में जानते हों, हिन्दू परम्पराओं का, हिन्दू विधि का, संस्कृत का और संभवत: इतिहास का ज्ञान रखते हों। इस लंबे-चौड़े दायरे का अध्ययन करने वाले इंडोलॉजिस्ट कहलाए। जाहिर तौर पर, अधिकांश अध्ययन करने वाले भारत को एक औपनिवेशिक और नस्लभेदी दृष्टि से देखने के विशेषज्ञ बने। वेद, पुराण, हिन्दू प्रतीक, हिन्दू संत, देवी-देवता, परम्पराएं- सभी घृणा और हेयता की दृष्टि के साथ देखे गए, उनकी पुनर्समीक्षा की गई, उनका वैकल्पिक इतिहास लिखा गया। यह परिपाटी विलियम जोन्स से समय से चली आ रही है और वेंडी या माइकल विट्जेल उसी श्रृंखला की आधुनिक कडि़यां हैं।
कुछ उदाहरण वेंडी डोनिगर की पुस्तक से देखें। वेंडी डोनिगर के अनुसार, ह्यहिन्दुत्व के ड्रामा में तीन जानवर विशेष तौर पर चमत्कारी हैं- घोड़े, कुत्ते और गायें। हिन्दुत्व के इतिहास का लक्ष्य रहा है- बंदर के पीछे चलना या घोड़े के पीछे चलना।ह्ण वेंडी अपनी औपनिवेशिक और नस्लभेदी दृष्टि का एक अच्छा उदाहरण देती हैं- ह्यभारत अपने तमाम बंदरों और लोगों और रंगों और बाजार की बदबू के बूते़.़ (इस) निर्वात की पूर्ति नहीं कर सकताह्ण (जिसकी पूर्ति वेंडी डोनिगर की दृष्टि में, भारत में बनी मस्जिदों ने की)। वेंडी को धर्म और इतिहास में हर स्थान पर सिर्फ विकृति और यौनाचार नजर आता रहा। जिसमें यौनाचार की भी हर संभव विकृति शामिल रही। इसी तरह के अनेक प्रकरण इस पुस्तक में मौजूद हैं।
वेंडी डोनिगर ने ऐसा क्यों किया? क्या अमरीकी विश्वविद्यालयों की खींचतान में उनका दबदबा खत्म हो रहा था और अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखना उनके लिए बहुत जरूरी हो गया था? शायद हां। लेकिन इस तरह के भौतिक प्रलोभनों से कहीं अधिक प्रभावी वे मानसिक-मनोवैज्ञानिक बाध्यताएं थीं, जो एक के बाद दूसरी वेंडी डोनिगर तैयार करती रहती हैं। एक और उदाहरण देखिए, माइक्रोसफ्ट एन्कार्टा में कहा गया है- ह्यहोली बसंत का मेला है, जिसमें सभी जातियों के लोग घुलमिल जाते हैं़.़ और एक दूसरे पर लाल रंग और द्रव डालते हैं, जो रक्त का प्रतीक होता है, जो संभवत: अतीत की शताब्दियों में प्रयोग किया जाता रहा होगा।ह्ण माइक्रोसफ्ट एन्कार्टा अब प्रचलन से बाहर हो चुका है। लेकिन जिसने भी ऐसा लिखा, उसे निश्चित तौर पर बहुत दूर की कौड़ी पास में नजर आती होगी, और यही माइक्रोसफ्ट एन्कार्टा अमरीका में हिन्दुत्व को समझने का एक संदर्भ ग्रंथ होता था।
ऐसी बातें दूसरे मत-पंथों के लिए नहीं लिखी जाती हैं। कोई हल्की सी भी बात उनकी सोच-समझ के विपरीत हो, तो उसके लिए भारी आतंकवाद पैदा किया जाता है, हिन्दू धर्म का सीधा अपमान करने पर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला बना दिया जाता है। इससे भी बढ़कर यह कि इन प्रलापों पर आपत्ति जताने पर तुरंत उसे 'हिन्दू कट्टरपंथ', फासीवाद वगैरह संज्ञाएं दे दी जाती हैं। क्यों?
वेंडी डोनिगर की पुस्तक पर प्रतिबंध नहीं लगा है। सिर्फ प्रकाशक ने, अदालत के बाहर हुए समझौते के तहत, स्वेच्छा से, उसकी प्रतियां, सिर्फ भारत में, वापस ले ली हैं। उस पर इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला कह कर पेश किया जा रहा है।
एक पुरानी उक्ति है कि किसी देवता में अधिकतम उतनी ही शक्ति होती है, जितनी उसके मानने वालों में होती है। यह सही हो या न हो, प्रासंगिक जरूर है। विडंबना यह है कि हिन्दुत्व पर उंगली उठाने वाली वेंडी भारत में ही उस सेक्युलर-उदारवादी-नवउदारवादी-नवराजनीतिवादी-अराजकतावादी लॉबी की सिद्घांतकार बन जाती हैं, जो अपनी ओर से संस्कृत या इतिहास की जरा भी जानकारी नहीं रखते हैं। भारत की विशाल हिन्दू जनता निश्चित तौर पर किसी वेंडी डोनिगर से सहमत नहीं है। लेकिन वही विशाल हिन्दू जनता शांत और मूक भी है, और ज्यादा खतरनाक ढंग से, अपनी भावी पीढि़यों को वेंडी डोनिगरों का शिकार बनने का मौका छोड़ देती है।
वास्तव में अगर कोई इंडोलॉजिस्ट है, तो उसे इस विषय को कुरेदना चाहिए। कल्पना कीजिए कि वेंडी डोनिगर ने जो शब्द और जो बातें (तथ्य के रूप में) राम, कृष्ण या शिव के लिए और गीता और रामायण के लिए लिखी हैं, अगर वैसी ही बातें, किसी गैर भारतीय पंथ के लिए, उस पंथ की पुस्तक के लिए कही जातीं, तो वेंडी डोनिगर का, उसके प्रकाशक का, उसका प्रकाशन करने वाले देश का क्या हश्र होता? डेनमार्क के कार्टूनों का मामला कोई बहुत पुराना नहीं है। वेंडी डोनिगर के मामले में और इस मामले में क्या अंतर है?
आपका उत्तर ही वह तथ्य है, जो वेंडी डोनिगरों को अगला ग्रंथ लिखने के लिए प्रेरित करता है। यह परम्परा पुरानी है, और शायद आगे भी जारी रहे।
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