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एक गांव की बात है। वहां एक वृद्ध रहता था। उसका एक पुत्र था। उसे फैशन करने का, दूसरों की नकल करने का बड़ा शौक था। बूढ़े ने बहुत समझाया कि 'बेटा, फालतू फैशन से क्या लाभ? हानि ही हानि है? दूसरों की नकल करना ठीक नहीं, शरीर का भी एक धर्म है। मौसम के अनुसार वह धर्म बरता जाता है।'
पुत्र ने कहा, 'भला शरीर का भी कोई धर्म होता है? यह तो अपने घर की खेती है, अपनी इच्छा है- चाहे जैसे रहो। जो चाहे खाओ और चाहे जो पहनो। आखिर जो लोग सब कोट, पैंट, टाई पहनते हैं, यह चलन हमारे यहां कब था? दूसरों की नकल न करते, तो हम यों ही गंवार बने रहते। ह्ण यही उसके विचार थे। इसी देखा देखी के कारण गर्मियों में भी वह टाई बांधे रहा तो घमौरियों से उसकी बुरी दशा हो गईर् । इस बार वह लड़का लखनऊ घूमने गया। गर्मी की ऋतु समाप्त होने वाली थी। फिर भी जो वहां के पुराने नवाबी खानदान के लोग थे, वे शाम को ठाठ से कपड़ों में इत्र लगाकर बारीक मलमल के सफेद कुर्ते पहनकर नगर में घूमने निकला करते। एक दिन एक ऐसी ही नवाब साहब ने उस किसान के लड़के को टोका- ह्यतुम ठहरे ठेठे देहाती-गंवार तुम्हें क्या पता कि लखनऊ शहर की तहजीब क्या चीज है?
लड़का शरमा गया और तब उसने नवाब की नकल करके एक मलमल का कुर्ता सिलवाया। फिर एक शाम इत्र खरीदा, कपड़ों में लगाया, और दुपल्ली बारीक टोपी पहनकर, वही कुर्ता डाट कर छड़ी नचाता निकला लखनऊ घूमने, उसी नवाब ने देखा तो कहा- ह्यहां, अब ठीक है। तुम देहाती नहीं लगते। समझने लगे हो हमारे शहर की तहजीब।'
वह गांव लौटा तो जाड़ा आरंभ हो गया था। फिर भी वह बहुत सवेरे वही मलमल का कुर्ता, नवाबी दुपल्ली बारीक टोपी पहनकर इत्र लगा कर निकला, हवाखोरी करने ताकि गांव वाले उसका रौब मानें कि वास्तव में वह 'शहरी तहजीब' बरत सकता है। परंतु उसके बूढ़े बाप ने टोका। कहा- 'बेटा ठंडी हवा चल रही। ठंड पड़ने लगी है। मोटे कपड़े पहन लो, वरना ठंड लगा जाएगी। लड़के ने तिरस्कार से नाक-भौं सिकोड़ी। बोला- 'यही तो कठनाई है बापू। तुम नहीं जानते लखनऊ की तहजीब, शहरी रहन सहन। इसलिए यह कह रहे हो। लखनऊ का कोई नवाब होता तो मुझे से कपड़े पहने देखकर प्रसन्न हो जाता। क्या बताऊं, यह ठहरा गांव देहात।' और चला गया घूमने। कई दिन उसने वही कपड़े पहनकर प्रात: सायं हवाखोरी की, तो उसे ठंड लग गई और निमोनिया हो गया। बूढ़ा पिता चिंतित। सैकड़ों रुपए उपचार में लग गए तब महीने भर बाद जाकर कहीं अच्छा हो पाया। ठीक होने पर एक दिन बूढ़े पिता ने उससे पूछा- ह्य क्यों बेटा । समझ में आया शरीर का धर्म?' लड़का तो स्वयं भुगत चुका था। मन ही मन बुदबुदाया- 'कान पकड़े ऐसी 'तहजीब' से अपने गंवई का चलन ही अच्छा । ऐसी नथनी से क्या लाभ जिससे नाक ही फट जाये।' फिर उसने किसी की नकल नहीं की। वचनेश त्रिपाठी की पुस्तक मीठे बोल कथा अनमोल से साभार
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