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-ईश्वर दयाल माथुर-
'बिनु पद चले सुने बिनुकाना।
कर बिनु कर्म करे विधिनाना।
'इस चौपाई की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे समय की, जब देश चलाने के लिए किसी विधि संहिता का निर्माण नहीं हुआ था या फिर इसकी कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। भैंस और लाठी के प्रगाढ़ संबंधों को आधार मानकर ही राजवंश अथवा सल्तनतें चलती थीं। फिर गोस्वामी तुलसीदास जी को एकाएक विधि-विधान के गतिशील रहने का आभास कैसे हो गया यह शोधनीय है। जरूर इसमें साजिश या तो भैंस की, नहीं तो लाठी की रही होगी। उनके (तुलसी) अनुसार विधि अमूर्त अथवा बिना काया का है, बिना हाथ-पांव का है फिर भी चल रहा है तथा संसार भर को चला रहा है। भारतीय दंड संहिता ड्राफ्ट के रचयिता मैकाले महाशय भी श्री तुलसीदास के समकालीन नहीं थे और न था कोई भी विधि विश्वविद्यालय, जो विधिवेत्ता की डिग्री से विभूषित करता। ऐसा भी संभव है कि रामचरित मानस के दो पात्रों सम्पाती और कालनेमि, जिन्हें गजब की दूरदृष्टि प्राप्त थी, का प्रभाव तुलसीदास जी की रचना पर पड़ा हो।
वे यह भी भांप चुके थे कि लाठी और भैंस की जुगलबंदी सदा नहीं टिक पायेगी। अत: शासन-अनुशासन के लिए विधि का निराकार ही चलते रहना श्रेयस्कर रहेगा। आज हम हर न्यायालय परिसर में देखते हैं कि न्यायदेवी की स्थापित प्रतिमा, जिसके हाथ में तराजू है, मगर आंखों पर पट्टी है। यह पट्टी तुलसी जी की अधूरी उक्ति बिनु पद व बिनु काना के अन्य भाग, गिरा अनयन नयन बिनु बानी की ही पूरक है। गोस्वामी तुलसीदास जी विधिक ज्ञान में इतने पारंगत कैसे हो गए इसके भी मूल में अवश्य कोई कटु कारक रहा होगा। न्याय का मोल वही समझ सकता है, जिसने अन्याय का सामना किया हो। विद्योत्तमा ने लकड़हारे से टक्कर ली तो उसे कालिदास बना दिया और कालिदास सोचने को विवश हुआ ह्यकिस पारस से लोहा यह टकरा गया उसे रच के चितेरा भी चकरा गया।ह्ण और रत्नावली ने न्याय व सौहार्द के साथ यदि तुलसी को अपना लिया होता तो वे बनारस न लौटते और न ही असि घाट पर डेरा डालकर उच्चारते ह्यहम तो चाखा प्रेम रस पत्नी के उपदेसह्ण। परिणामत: मानस की रचना न हो पाती और हम सभी तुलसीदास जी के विधिक व आध्यात्मिक ज्ञान से वंचित रह जाते।
रत्नावली जी के प्रति हमें कृतज्ञ भाव तो दर्शाना ही होगा। आंख नहीं फिर भी देखता है, कान नहीं तो भी सुनता है और बिना पांव के भी चलता है यह वैध या कानूनी बात तो वास्तव में अब न्यायदेवी की प्रतिमा भी कह रही है। वास्तव में हमने इसके चलने की प्रक्रिया आंखों देखी है। यह संस्मरण लगभग तीन दशक पूर्व का है, जब हम रेल के तीसरे दर्जे में सफर कर रहे थे। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी हुई थी। हमारे सामने की सीट पर एक युवती अपने पिता के साथ सफर कर रही थी। अचानक चाय वाला आया और एक कप चाय युवती के आगे बढ़ा दी। युवती ने बैरे से कहा कि मैंने तो नहीं मंगाई। बैरे ने बताया कि उनके पीछे बैठे युवक ने यह चाय भिजवाई है। युवती ने किस्सा अपने पिता को बता दिया, पिता के क्रोध का ठिकाना न रहा और वे एक सिपाही को
बुला लाये।
ह्यचल रे! थाने चल, गुण्डागर्दी मचा रखी हैह्ण कहते हुए सिपाही जबरन उस लड़के को उतार ले गया। थोड़ी देर बाद दो सिपाही और आए व पिता-पुत्री को भी थाने चलने को कहा। पिता का तर्क था कि हमने तो रपट कर दी अब थाना करता रहे कार्यवाही। सिपाहियों ने जोर दिया कि आपने रपट की है इसलिए आपके बयान भी थाने में होंगे। रपट करके आप ही फिसल जाएंगे तो भला कानून कैसे चलेगा? इस प्रक्रिया से मुझे आभास हुआ कि कानून कैसे चलता व धकियाया जाता है। कानून सदा तीन पहियों पर चलता है, पुलिस, वकील और न्यायालय। इनसे बचते हुए हमारे देश में समझदार आदमी (या औरत) गीता के ज्ञान, मान, अपमान को एक समान समझने को दरकिनार कर थाने पर जाने की जुर्रत ही नहीं करते।
पाश्चात्य देशों में वहां के कानूनी विशेषज्ञों ने बड़ी ही रोचक टिप्पणियां कानून पर की हुई हैं। कुछ इस प्रकार हैं:-जब मैकाले महोदय ने भारतीय दंड संहिता का ड्राफ्ट लिखकर ब्रिटिश हुकूमत को अनुमोदन के लिए पेश किया तो वहां के विशेषज्ञ सांसद एडमंड वर्क ने टिप्पणी की थी, ह्यकभी भी किसी चतुर कौम पर शासक द्वारा अत्याचार करने, उसे दरिद्र बना देने, उसे चरित्र भ्रष्ट कर देने और उसके अन्दर के मानवत्व का सत्यानाश कर देने के लिए इससे अधिक उपयोगी ग्रंथ तैयार ही नहीं किया जा सकता।ह्ण
अनातोले फ्रांस के अनुसार- कानून एक बेकार चीज है। अच्छे लोगों को कानून की जरूरत नहीं और बुरे लोग कानून की परवाह नहीं करते।
सिसरो – आंग्ल भाषा की पुस्तक बूढ़ा तरकारी वाला में कानून एक गधा है बुद्धिमान लोग उसकी सवारी करते हैं और मूर्ख लोग उसकी दुलत्ती
खाते हैं।
विशेषज्ञ कहते ही उसे हैं, जो जानता है कि अपेक्षित कानून किस प्रकार सुझाए तो जाते हैं, मगर कार्यान्वित नहीं किए जा सकते।
मैकाले के ड्राफ्ट ताजीराते हिन्द या भारतीय दंड संहिता से कुन्द होकर बाबू भारतेन्दु हरिशचंद्र ने ह्यताजीराते शौहरह्ण व ह्यअंधेर नगरीह्ण जैसे व्यंग्य की रचना करके अपना विरोध दर्ज कराया था। कुछ वर्ष पूर्व जयपुर में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार विषयक राष्ट्रस्तरीय गोष्ठी सम्पन्न हुई। इस दौरान कुछ विशिष्ट विधि विशेषज्ञों द्वारा इस प्रकार के मत प्रकट किए गए-भारत में छूटते और विदेशों में सजा पाते हैं अपराधी, अमरीका में नौ और जापान में तीन महीने में अधिकतर मामलों की सुनवाई पूरी हो जाती है, वहीं भारत में सालों लग जाते हैं, उम्र गुजर जाती है, जेलों में तथ्य को
छूने में।
आम आदमी डरता है कानून से। महिलाओं की थाने-कचहरी जाने की हिम्मत ही नहीं होती।
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