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-आलोक बंसल-
समुद्र के रास्ते भारत को घेरने की कोशिश
19 फरवरी, 2014 को चीन के राष्ट्रपति झाई जिन पिंग और पाकिस्तान के राष्ट्रपति ममनून हुसैन, जो अपनी पहली विदेश यात्रा पर चीन गए हैं, ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को विकसित करने का करार किया है। नए चुने गए राष्ट्रपति का अपनी पहली विदेश यात्रा में बीजिंग जाना, पाकिस्तान के लिए चीन के महत्व को रेखांकित क रता है। चीन और पाक विश्लेषकों के अनुसार,आर्थिक गलियारे में पूरे क्षेत्र को जबरदस्त व्यापार और आर्थिक गतिविधि तथा प्रगति के नये आयाम खुलने से पूरे इलाके को बदलने की शक्ति है। इस परियोजना में ग्वादर बंदरगााह पर नया हवाई हड्डा बनाना, कराकोरम राजमार्ग को उन्नत करना और गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके के ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्र में से रेल मार्ग और पाइप लाइन गुजारना शामिल है। संवैधानिक और कानूनी रूप से यह क्षेत्र भारत का अभिन्न अंग है। लेकिन यह 2000 किलोमीटर लम्बा गलियारा चीन के सिंक्यांग प्रान्त में काशगर को बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ेगा।
पिछले साल 18 फरवरी को पाकिस्तान सरकार ने चीन की ओवरसीज पोर्ट होल्डि़ग अथॉरिटी के साथ करार किया था, जिसके तहत ग्वादर बंदरगाह का संचालन पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी से ले लेकर चीनियों को सौंप दिया गया था। चीन की कंपनी ने बंदरगाह की क्षमता को बढ़ाने और उसके ढांचे को सुधारने के लिए 750 मिलियन डॉलर निवेश करने की योजना बनाई है। उम्मीद की जा रही है कि इससे बहुचर्चित बंदरगाह के आसपास आर्थिक गतिविधि में इजाफा होगा, जो अब तक तंगहाली से गुजर रहा था।
नवंबर 2002 में बनना शुरू होकर बंदरगाह मार्च 2007 में बनकर तैयार हुआ था। पहली बार 21 दिसम्बर 2008 को ऊर्वरकों से भरा एक जहाज कतर से यहां पहंुचा था। उस समय के बंदरगाह और नौवहन मंत्री नबील अहमद और बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री नवाब मोहम्मद असलम ने बंदरगाह के उद्घाटन कार्यक्रम में भाग लेते हुए घोषणा की थी कि ये इस इलाके में आर्थिक विकास को बल देगा। लेकिन उसके बाद से ग्वादर, मध्य एशिया, मध्य पूर्व, दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया के हिस्सों के लिए ऊर्जा गलियारे के रूप में उभरने में असफल रहा है।
यह बंदरगाह तब स्थापित किया गया था जब एशियन डेवलपमेंट बैंक के पोस्ट मास्टरप्लान ने अध्ययन करके ग्वादर को बड़े जहाजों और बड़े तेल पोतों के आवागमन के लिए उपयुक्त स्थान बताया था। इसे परशियन गल्फ पोर्ट्स के एक विकल्प के तौर पर माना गया था। इसके अलावा इसने मध्य एशिया के देशों के लिए सबसे छोटा समुद्री मार्ग उपलब्ध कराया था।
शुरुआत से ही चीन ग्वादर को सिंक्यांग से जोड़ने में दिलचस्पी लेता रहा था ताकि दक्षिण पूर्व एशिया के तंग रास्तों से उसकी ऊर्जा आपूर्ति में कोई बाधा न आए। चीन इस बंदरगाह को अपनी तेल आपूर्ति के दक्षिण पूर्व एशिया की खाडि़यों में फंसने की चिंता छोड़कर सीधे अपने देश तक ले जाने के लिए इस्तेमाल कर सकता है। चीन की योजना है ग्वादर से गिलगित तक दोतरफा राजमार्ग विकसित करके तेल और गैस की पाइप लाइनें तथा ऑप्टिकल फाइबर बिछाया जाए। पाकिस्तान और चीन के बीच तिब्बत से पटरी को बढ़ाते हुए एक रेल मार्ग बनाने की भी उसकी योजना है। ग्वादर पर तेल शोधन कारखाना स्थापित करने की भी योजना लम्बित है क्योंकि यह उस होरमुज स्ट्रेट के मुहाने पर स्थित है, जहां से दुनिया का 40 प्रतिशत तेल गुजरता है। चीन की मदद से बना यह बंदरगाह पाकिस्तान में चीन की सबसे बड़ी ढांचागत परियोजना है।
20 मीटर गहरी जलधारा के पहंुच मार्ग वाला ग्वादर बंदरगाह पाकिस्तान का सबसे गहरा बंदरगाह है और भारी-भरकम तेल पोतों को अपने किनारे तक ला सकता है। इस बंदरगाह की पूरी संभावनाओं का फायदा उठाने में एक बड़ी बाधा बलूचिस्तान में जारी विद्रोह और कुछ हद तक गिलगित-बाल्टिस्तान में हिंसा के कारण आ रही है। जब तक पाकिस्तान में हिंसा जारी रहेगी यह चीन के लिए ऊर्जा गलियारे के तौर पर नहीं उभर सकता, न ही मध्य एशिया तक सीधा सड़क मार्ग बन सकता है। बलूच लोग ग्वादर को अपनी धरती को उपनिवेश बनाने की इस्लामाबाद की चाल का एक औजार मानते हैं। उनको लगता है कि ग्वादर से जुड़े फैसले बलूचिस्तान के बाहर लिए जा रहे हैं। क्योंकि ग्वादर कराची से जुड़ा है, न की मुख्य बलूच भूमि से। इस लिए उन्हें इस इलाके में बड़ी तादाद में बाहरी लोगों के आ बसने का भी अंदेशा है, जो उनको अपनी ही परम्परागत धरती पर स्थायी रूप से अल्पसंख्यक बना देगा। यही कारण है कि वे ग्वादर से जुड़े कामों और कामगारों पर हमले बोलते रहे हैं। उन्हांेने चीनी हितों पर भी खासतौर पर निशाना साधा है क्योंकि उन्हें लगता है कि चीन उनकी धरती को उपनिवेश बनाने की इस्लामाबाद की साजिश में मदद दे रहा है। यह बलूच विरोध ही है, जिसने बंदरगाह को आर्थिक रूप से एक कारोबारी बंदरगाह बनने से रोका हुआ है। ग्वादर पर अब चीन का शिकंजा कसने से, यह बीजिंग को होरमुज स्ट्रेट्स के नजदीक एक रणनीतिक चौकी उपलब्ध कराएगा। इस स्ट्रेट्स से हर रोज 1.3 करोड़ बैरल से ज्यादा तेल गुजरता है। ग्वादर में चीनियों की मौजूदगी खाड़ी में अमरीका के पारदेशीय आधार के बेहद नजदीक होने से अमरीका सतर्क होना अवश्यंभावी ही है।
संभावना है कि इस बंदरगाह को पाकिस्तान की नौसेना और चीन की नौसेना इस्तेमाल कर सकती है। यह चीन को अरब सागर और हिन्द महासागर में एक रणनीतिक आधार पर भी उपलब्ध कराता है और चीन को फारस की खाड़ी से होने वाले ऊर्जा के आवागमन पर नजर रखने की सुविधा भी दे सकता है। खाड़ी के रास्ते भारत के अधिकांश ऊर्जा आयात ग्वादर के बहुत पास से गुजरते हैं, इसलिए वहां मौजूद समुद्री सैन्य बल उसमें बाधा डाल सकता है। आने वाले समय में यह बंदरगाह पाकिस्तान को जहां बेतहाशा फायदे पहंुचा सकता है, वहीं चीन को फारस की खाड़ी में एक अहम चौकी उपलब्ध करा सकता है।
ग्वादर – कुछ तथ्य
'ग्वादर बन्दरगाह पर चीन के कब्जे से उसे अरब देश से तेल आयात करने में बहुत आसानी हो जाएगी, क्योंकि चीन 60 प्रतिशत कच्चा तेल इन्ही देशों से आयात करता है।' पाकिस्तान ने पहले ग्वादर बन्दरगाह 40 वर्ष के लिए सिंगापुर की कंपनी को दिया था, लेकिन नयी संधि से अब इस पर चीन का कब्जा हो गया। 'पाक-चीन संधि में चीन के काशगर से ग्वादर बन्दरगाह तक 2000 किलोमीटर ट्रांसपोर्ट लिंक बनना है।
धूल खाता पीओके पर संसद का प्रस्ताव
-विवेक शुक्ला-
22 फरवरी,1994। ये बेहद खास दिन है भारत की कश्मीर नीति की रोशनी में। 20 साल पहले इसी दिन संसद ने एक प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करके पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर(पीओके) पर अपना हक जताते हुए कहा था कि ये भारत का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना होगा, जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है। इस बाबत संसद का प्रस्ताव मोटे तौर पर इस तरह से था-
ह्ययह सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों पर गंभीर चिंता जताता है। इसका मानना है कि पाकिस्तान की तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की आपूर्ति के साथ-साथ भारत में घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है। सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है-
(1) पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। भारत अपने इस भाग के विलय का हरसंभव प्रयास करेगा।
(2) भारत में इस बात की पर्याप्त क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे, जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रिय अखंडता के खिलाफ हों और मांग करता है-
(3) पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करे, जिन्हें उसने कब्जाया हुआ है।
(4) भारत के आंतरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा।
इस प्रस्ताव को संसद ने ध्वनिमत से पारित किया था। तो क्या प्रस्ताव पारित करना काफी है? कोई नहीं जानता कि बीते बीस सालों के दौरान देश ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के भारत में विलय की दिशा में क्या-क्या कदम उठाए। बहरहाल, पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के बाद नवाज शरीफ ने अपने अमरीका दौरे के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और दूसरे अमरीकी नेताओं से कश्मीर मसले के हल का आग्रह किया था।
सवाल यह है कि कश्मीर मसले का वे क्या हल चाहते हैं। जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। संसद का प्रस्ताव है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का देश से विलय करना है। इसके बाद क्या बचा है। हां, पर ये सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि पीओके का भारत से विलय कब होगा। क्या संसद में प्रस्ताव पारित करना पर्याप्त है?
अब क्या हो सकता है? कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ और लेखक राहुल जलाली की अपनी ही सोच है। वह कहते हैं कि संसद में पारित प्रस्ताव का कोई मतलब नहीं है इस रोशनी में कि भारत-पाकिस्तान ने 1972 में हुए शिमला समझौते में एलओसी को दोनों देशों के बीच सरहद के रूप में स्वीकार कर ही लिया था। जब हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के वजीरे आजम जुल्फिकार अली भट्टो ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर करके एलओसी को दोनों देशों की सीमा के रूप में स्वीकार कर लिया है तो हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का भारत में विलय किस तरह से कर सकते हैं। वे दावा करते हैं कि अब दोनों देशों के नक्शे नहीं बदलेंगे। महत्वपूर्ण है कि जिसे हम पीओके और पाकिस्तान ह्यआजाद कश्मीरह्ण कहता है, वह जम्मू का हिस्सा था न कि कश्मीर का। इसलिए उसे कश्मीर कहना ही गलत है। वहां की जुबान कश्मीरी न होकर डोगरी और मीरपुरी का मिश्रण है। रक्षा मामलों के कुछ विशेषज्ञ भी कहते हैं कि अब चूंकि भारत और पाकिस्तान परमाणु अस्त्रों से सुसज्जित देश हैं तो मसले के सैन्य समाधान की उम्मीद करने का भी कोई मतलब नहीं है।
अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो पीओके पर भारत का पक्ष साफ हो जाएगा। देश के विभाजन के बाद कश्मीर के महाराजा हरि सिंह कश्मीर राज्य के भारत में विलय के प्रस्ताव को मान गए थे। इस विलय के उपरांत भारत को तत्कालीन कश्मीर राज्य के वर्तमान भाग पर अधिकार मिला। भारत का दावा है कि महाराजा हरि सिंह से हुई संधि के परिणामस्वरूप पूरे कश्मीर राज्य पर भारत का अधिकार बनता है। इस कारण भारत का दावा पूरे कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर एवं आजाद कश्मीर सहित) पर सही है।
यूं तो संसद का पीओके को लेकर प्रस्ताव पारित हो चुका है, पर अब ये पूछा जा सकता है कि सरकार संसद में पारित प्रस्ताव को अमली जामा पहनाने के लिए क्या किसी तरह की कूटनीतिक पहल कर रही है। क्या उसे पीओके के भारत में विलय के लिए युद्घ भी मंजूर है? ये क्यों ना माना जाए कि सरकार ने संसद में पीओके को लेकर जो प्रस्ताव पारित किया था, वो देश की आंखों में धूल झोंकने के समान था। अब तो पीओके में चीन की भी बड़ी उपस्थिति है। नवाज शरीफ पाकिस्तान के पीएम बनने के बाद चीन भी गए। वहां नवाज शरीफ की चीन के प्रधानमंत्री ली की कियांग के साथ हुई बातचीत के बाद सुरंग समेत आठ समझौतों पर दस्तखत किए गए। इनमें चीन और पाकिस्तान ने पीओके से होते हुए 200 किमी लंबी सुरंग बनाने का समझौता किया है । रणनीतिक लिहाज से अहम इस इलाके में सुरंग को बनाने पर 18 अरब डलर का भारी भरकम खर्च किए जाने की योजना है। पीओके से गुजरने वाले पाक-चीन आर्थिक गलियारे से चीन का रणनीतिक हित जुड़ा है। यह सुरंग अरब सागर में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन में काशगर से जोड़ेगी। महत्वपूर्ण ग्वादर बंदरगाह का नियंत्रण चीन के हाथ में आ चुका है। सुरंग के बनने से चीन की पश्चिम एशिया स्ट्रेट ऑफ हरमुज तक पहुंच सुगम होगी, जहां से दुनिया के एक तिहाई तेल का परिवहन होता है। बीते दो दशकों के दौरान केंद्र में जो भी सरकारें रहीं, उनके द्वारा कभी भी देश को ये बताने की चेष्टा नहीं की गई कि पीओके पर संसद के प्रस्ताव का क्या हुआ। क्या देश को अब उस प्रस्ताव की बात नहीं करनी चाहिए? क्या पीओके पर संसद के प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में फेंक देना चाहिए?
नियति के साझीदार और भारत की नियति
-आशुतोष भटनागर-
्रपाकिस्तान के राष्ट्रपति ममनून हुसैन हाल ही में चीन के तीन दिवसीय दौरे पर थे। अपने चीनी समकक्ष जिन पिंग के साथ उन्होंने पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किये। दोनों ने एक-दूसरे को नियति का साझीदार बताया। चीन की प्रशंसा करते हुए हुसैन ने उसकी मित्रता को पाकिस्तान की विदेशनीति की आधारशिला बताया। बदले में चीन ने वैश्विक आतंकवाद के विरुद्घ पाकिस्तान की कुर्बानी को
प्रशंसनीय बताया।
दोनों देशों के बीच चीन के काशगर से लेकर बलूचिस्तान (पाकिस्तान) के ग्वादर बंदरगाह तक आर्थिक गलियारे के निर्माण का समझौता हुआ जिसमें दो हजार किमी लम्बे मार्ग को जोड़ते हुए विकास गतिविधियां तेज की जायेंगी। यह समझौता 2005 में प्रारंभ हुए मित्रता के दौर का ही अनुवर्तन है। क्रमश: मुशर्रफ, नवाजशरीफ और अब ममनून हुसैन इसे आगे बढ़ाते रहे हैं।
आम तौर पर यह दो देशों के बीच होने वाला समझौता है जिसमें किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता या संभावना नहीं है। लेकिन ऐसे किसी भी समझौते का असर अन्य पड़ोसी देशों के साथ संबंधों पर पड़ना भी स्वाभाविक है और हर देश अंतरराष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए उसका विश्लेषण करता है और जरूरी कूटनीतिक उपाय अपनाता है। पाकिस्तान और चीन, दोनों ही भारत के साथ शत्रुता रखते हैं। दोनों के साथ भारत युद्घ लड़ चुका है, दोनों के साथ ही सीमा पर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि पाक और चीन के बीच होने वाली किसी भी संधि पर भारत नजर रखे और समुचित
प्रतिक्रिया दे।
दोनों देशों के बीच हाल में हुए समझौते में एक और पहलू है जो भारत को चिंतित करने वाला है। काशगर और ग्वादर के बीच बनने वाला यह गलियारा ह्यपाक अधिकृत जम्मू-कश्मीरह्ण के गिलगित से होकर गुजरता है। यह वही भूमि है जिसे वापस लेने की इच्छा और क्षमता भारत में है, यह विश्वास व्यक्त करते हुए 22 फरवरी 1994 को भारत की संसद ने सर्वसम्मत संकल्प स्वीकृत किया था। संकल्प के दो दशक पूरे होने के अवसर पर समझौता कर चीन और पाक ने भारत की संप्रभुता पर एक बार फिर चोट की है। वहीं भारत सरकार ने इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया न देकर अपनी कायर मनोवृत्ति और आपराधिक लापरवाही का एक बार पुन: परिचय दिया है।
सच तो यह है कि 1947 में कब्जा करने के बाद पाकिस्तान और उसके कुछ समय बाद से ही चीन भी इस क्षेत्र में अपनी मनमानी कर रहा है। वे वहां पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लिप्त हैं। वहां के नागरिकों के साथ निरंतर हिंसाचार हो रहा है। आतंकवाद को खाद-पानी देने का काम इस भू-भाग में हो रहा है। दोनों देश मिल कर यहां के जलस्रोतों का दुरुपयोग कर रहे हैं। नदियों की धाराओं को मोड़ रहे हैं, बांध बना रहे हैं। स्थानीय निवासियों को अंधेरे में रख कर यहां के संसाधनों से रावलपिंडी और इस्लामाबाद को रोशन किया जा रहा है।
शोषण और नरसंहार से त्रस्त यह नागरिक जायें तो जायें कहां की स्थिति में हैं। भारत सरकार की इस परिप्रेक्ष्य में क्या भूमिका रही है? आपराधिक चुप्पी और सूचनाओं पर पाबंदी के भरोसे भारत की सरकार इस समस्या के समाधान का दिखावा कर रही है। पर क्या पराजित मानसिकता से गंभीर समस्याओं का समाधान किया जा सकता है ? चीन और पाकिस्तान भारत की भूमि पर आर्थिक गलियारा बनाने का समझौता करते हैं और भारत सरकार की ओर से इसका विरोध तक नहीं दर्ज कराया जाता। एक आधिकारिक बयान जारी करने तक का कष्ट देश की सरकार नहीं करती। वहां के राजदूत तथा उच्चायुक्त को तलब नहीं किया जाता। स्पष्टीकरण की मांग नहीं की जाती। क्या कायरतापूर्ण आचरण वाली सरकार के भरोसे देश की संप्रभुता की रक्षा संभव है?
भारत के साथ चीन कूटनीतिक खेल खेल रहा है। वह चारों ओर से भारत को घेर रहा है। उसके शत्रुओं को बढ़ावा दे रहा है। बार-बार उसके सैनिक भारत की सीमा में प्रवेश करते हैं। सीमा पर स्थित गांवों के निवासियों, पशुपालकों को परेशान करते हैं । भारत की सीमा में घुस कर वहां ह्यचाइनाह्ण लिख जाते हैं। चीन आधिकारिक रूप से कहता है कि दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारण न होने के कारण यह समस्या होती है। दुर्भाग्य से भारत द्वारा भी अपनी सीमा को स्पष्टता से रखने के बजाय चीन की ही लाइन को दोहराया जाता है। संभव है कि चीन का सीमा के संबंध में मत भिन्न हो लेकिन भारत अपनी सीमा रेखा किसे मानता है यह तो भारत को ही स्पष्ट करना होगा। साथ ही उस रेखा के अनुसार चीन की उपस्थिति कहां है, यह बताना तो भारत की ही जिम्मेदारी है। यदि चीन को कोई आपत्ति हो तो उस पर वार्ता अवश्य हो लेकिन उससे पहले अपना पक्ष दृढ़ता से रखने का साहस तो भारत को करना ही होगा। निर्णायक क्षणों में कमजोरी दिखाने के कारण भारत ने बार-बार कूटनीतिक मोर्चे पर चोट खायी है और अपनी भूमि गंवाई है। घुटने टेकने का यह इतिहास अब पुराना पड़ चुका है।
हम 1948 में सुरक्षा परिषद द्वारा पाकिस्तान को भारतीय भूमि खाली करने के प्रस्ताव को लागू कराने के लिये अपेक्षित दवाब बनाने से चूके। 1965 में हमने पाकिस्तान से भूमि खाली नहीं करायी। 1971 में पाकिस्तान के एक लाख फौजियों को छोड़ने से पहले हम भारतीय भू-भाग खाली करने की शर्त रख सकते थे, जो हमने नहीं रखी। करगिल में हमने संयम बरता। हम चाहते थे कि हमारे पड़ोसी देश इसे हमारी उदारता समझें किन्तु उन्होंने इसे हमारी कायरता ही माना।1962 में आक्रमण कर चीन ने भारत की 36 हजार वर्ग किमी भूमि हड़प ली। बाद में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर की पांच हजार वर्ग किमी से अधिक भूमि पाकिस्तान ने उसे दे दी। इस भूमि पर कराकोरम हाइवे का निर्माण कर दिया गया। हाल के समझौते में भी जिस गलियारे को बनाने की बात कही गयी है, वास्तव में उस पर बहुत पहले से काम चल रहा है।
पाकिस्तान और चीन, दोनों ही यह जानते हुए कि वे भारतीय भू-भाग पर निर्माण कार्य कर रहे हैं, लगता है इस बात से निश्चित हैं कि भारत अभी या कभी भी इस पर आपत्ति करेगा। भारतीय भूमि पर निर्माण करते हुए उन्हें न भारत को विश्वास में लेने की जरूरत महसूस होती है और न ही उसे अपनी नियति में साझीदार बनाने का विचार आता है। चीन और पाकिस्तान जो स्वयं को नियति का साझीदार बता रहे हैं, के बीच उत्पन्न दुरभिसंधि को चीर कर भारत को अपनी नियति के द्वार तक पहुंचाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति वाला पराक्रमी और दूरदृष्टा नेतृत्व समय की मांग है।
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