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सेकुलर इच्छा मुसलमानों को फुसलाना

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Feb 15, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 15 Feb 2014 14:29:57

-ज्ञानेन्द्र बरतरिया-

दिनांक-6 फरवरी। स्थान- मैनपुरी। घटना- मुलायम सिंह यादव की रैली। मुलायम सिंह यादव ने रैली में बोलते हुए 1990 में मुख्यमंत्री रहते कारसेवकों पर गोली चलाने के फैसले को न्यायोचित करार दिया और कहा कि अगर वह गोली चलाने का आदेश नहीं देते तो मुस्लिमों का उन पर से विश्वास उठ जाता।
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी वर्ष 2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अयोध्या से विजयी रही थी। इस जीत के बाद मुलायम सिंह ने 1990 में मुख्यमंत्री रहते कारसेवकों पर गोली चलवाने के फैसले पर अफसोस जताया था। जीत के बाद उन्होंने कहा था कि अयोध्या ने उस घटना के लिए उन्हें माफ कर दिया है। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर हुई पुलिस की गोलीबारी में कई कारसेवकों की मौत हुई थी।
समाजवादी पार्टी के मुस्लिम चेहरे आजम खां ने कहा है कि 1990 के बाद मुलायम की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है और उन्हें सेक्युलर होने के लिए किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है।
आजम खां ने जो कहा है, उसका तात्पर्य यही है कि मुलायम की विश्वसनीयता या मुलायम के सेक्युलर होने का जो सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है, वह 1990 में कारसेवकों पर गोली चलवाना है, जो कारसेवकों पर गोली चलवा दे, उनकी हत्या करवा दे, आखिर उससे ज्यादा सेक्युलर कौन हो सकता है?
मुलायम सिंह यादव ने ऐसा क्यों कहा और क्यों किया, उसका अर्थ मुलायम सिंह यादव ही समझ सकते हैं। साफ शब्दों में कहें तो, इस बयान से मुलायम सिंह यादव ने सिर्फ यह कबूल किया है कि वह मिट्टी के अखाड़े में भले ही पहलवान रहे हों, राजनीति के, या ज्यादा सही तौर पर नेतृत्व के अखाड़े में वह बेहद दीन-हीन, लाचार, कायर और दब्बू किस्म के इंसान हैं, जो अपनी दीनता दिखाकर वोट मांगने में विश्वास रखते हैं। नेतृत्व की सीधी सी कसौटी होती है- भीड़ आपके आगे चलती है या आप जनता के आगे चलते हैं। जो स्वाभाविक उत्तर मुलायम सिंह ने सिद्घ किया है, वह है- भीड़ ही उनकी नेता है, वे अपने परिवार के नेता बने रहें, परिवार के लोग उन्हें नेताजी कह कर पुकारते रहें, सीबीआई उनकी रक्षा करती रहे, उनके लिए इतना ही बहुत है।
इस मसले पर मुलायम सिंह की आलोचना करना शायद बहुत सहज और स्वाभाविक हो, लेकिन वास्तव में आलोचना की पात्र वह भीड़ है, जो स्वयं को इस तरह के हथकंडों का गुलाम साबित करती है। गौर कीजिए, शुरुआत में स्वयं को नरेन्द्र मोदी के समतुल्य जताने वाले नीतीश कुमार, अब, जब लालू प्रसाद उनके मुकाबले में सामने आ चुके हैं, तो किस तरह खिसिया रहे हैं। उन्होंने हाल ही में बयान दिया है कि मोदी रामनाम जप कर खुद के प्रधानमंत्री बनने की भीख मांग रहे हैं। नीतीश कुमार की भी पीड़ा वही है, जो मुलायम सिंह की है। और इन दोनों महान सेक्युलर नेताओं को लगता है कि हिन्दुओं और मुसलमानों की नादानी ही उनका एकमात्र सहारा है। कैसे?
'स्ट्रेटेजिक वोटिंग' और वोट बैंक जैसे शब्द सुनते हुए कम से कम 30 वर्ष हो चुके हैं। अलग-अलग स्थानों पर, अलग-अलग समय पर अलग-अलग दलों को एकमुश्त मुस्लिम वोट मिला है। लेकिन इनमें से शायद ही कुछ मुस्लिम मतदाता उस दल के समर्थक हों, उसके प्रति कोई प्रतिबद्धता या निष्ठा रखते हों। मुलायम सिंह और नीतिश कुमार को लगता है कि जब तक वे घोर हिन्दू विरोधी होकर सामने नहीं आएंगे, तब तक मुसलमानों के वोट, या एकमुश्त मुस्लिम वोट उन्हें नहीं मिल सकेंगे। यही कारण है कि एकमुश्त मुस्लिम वोट पाने की उम्मीद करने वाले नेताओं में एक दूसरे से सेक्युलरिज्म की होड़ लगती है।
यह होड़ नेतृत्व करने की नहीं है, यह होड़ पिछलग्गू बनने की है। जो जितना बड़ा पिछलग्गू, वह उतना बड़ा सेक्युलर। यही कारण है कि कोई मुसलमानों को आरक्षण देने की बात करता है, कोई मदरसा ट्रेंड लोगों को इंजीनियर-डाक्टर के बराबर रखने की करता है, कोई इमामों के वेतन-भत्तों को लेकर परेशान होता है, कोई 'ओसामाजी' की आराधना करता है, कोई बटला हाउस के आतंकवादियों की। आम आदमी पार्टी तो कश्मीर में सेना की तैनाती पर जनमत संग्रह से कराने की बात करती है, (हालांकि उसकी इस हरकत का एकमात्र मकसद वोट बैंक नहीं है) और कोई देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बताता है।
अगर मुसलमानों को सिर्फ अपने सामुदायिक हितों की चिंता हो, तो उन्हें संसाधनों पर पहला हक देने वाले मनमोहन सिंह को अपना ह्यलेटेस्टह्ण कायदे आजम मान लेना चाहिए। लेकिन मनमोहन सिंह एकाध दर्जन मुस्लिम वोटों को प्रभावित करने की स्थिति में भी शायद ही हों। इतने टोटके करने के बाद भी आज तक, केरल की मुस्लिम लीग और इक्का-दुक्का स्थानों पर अन्य दलों या व्यक्तियों को छोड़कर, किसी पार्टी के पास कोई प्रतिबद्ध मुस्लिम जनाधार नहीं है। चेहरे हैं, तो मुस्लिम समुदाय में उनकी कोई खास पकड़ नहीं है। वास्तव में इन सारे टोटकों में से किसी की भी सफलता की गुंजाइश न के बराबर है। सफल टोटका वही हो सकता है, जो मुलायम सिंह स्टाइल में घोर हिन्दू विरोधी हो। हिन्दू विरोध ही मुस्लिम पहचान की पुष्टि करने वाला है- यह सोच पाकिस्तान की भी है, आजादी के पहले से ही मुस्लिम लीग की थी, और मुस्लिम राजनीति के उस हिस्से में आज भी जारी है, जो एकमुश्त वोटों की भाषा में सोचता-समझता और बात करता है।
इसी होड़ में पड़कर मुलायम सिंह इसके लिए खुद को 'हिन्दुओं का हत्यारा' जताने में जुटे हैं, तो नीतिश कुमार एक खिसियाती बात से शायद यह जताना चाहते हैं कि वे तो राम विरोधी भी होने के लिए तैयार बैठे हैं, बस, कोई उन्हें टोपी भर पहना दे।
दोनों गलतफहमी में हैं। दो कारणों से। एक यह कि वे शायद यह नहीं समझते हैं कि इस तरह की साम्प्रदायिक राजनीति के बाद वे हिन्दू वोटों के भी एक हिस्से से हाथ धो बैठते हैं, और दूसरे यह कि भाजपा यह समझ चुकी है कि जब तक वह किसी मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम होने का सर्टिफिकेट न दे, तब तक मात्र आजम खां के सर्टिफिकेट से मुलायम सिंह को मुसलमानों के एकमुश्त वोट नहीं मिल सकते। याद कीजिए, 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान जब अटल बिहारी वाजपेयी ने मुलायम सिंह को अपना मित्र कह दिया था, तो मुलायम सिंह कितनी परेशानी में आ गए थे। वाजपेयी जिसे अपना मित्र कह दें, वह सेक्युलर कैसे हो सकता है?
सोशल मीडिया पर एक और बात कही जा रही है। वह यह कि उत्तर प्रदेश के मुसलमान भारी सांसत में हैं। वे मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद मुलायम सिंह को वोट देना नहीं चाहते हैं, बीएसपी के बारे में उन्हें लगता है कि वह चुनाव के बाद भाजपा का समर्थन कर सकती है, कांग्रेस के जीतने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं है और आम आदमी पार्टी पर उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा है। जो बात नहीं लिखी गई है, वह यह है कि मुसलमानों द्वारा भाजपा को वोट देने का सवाल ही नहीं है, और सिर्फ भाजपा को हराने वाले को वोट देना अनिवार्य है। एकमुश्त मुस्लिम वोट पाने की यह दूसरी शर्त है कि आप न केवल धुर हिन्दू-विरोधी हों, बल्कि भाजपा को रोक सकने में भी सक्षम हों।
यह सच है कि भारत (और पाकिस्तान में) मुस्लिम पहचान हिन्दू विरोध पर टिकी महसूस की जाती है। यह भी सच है कि मुस्लिम समुदाय अपनी तमाम समस्याओं के लिए हिन्दुओं को दोषी ठहराने का अभ्यस्त जैसा रहा है। जिनमें नेतृत्व करने की क्षमता नहीं है, जो पिछलग्गू बनने में अपनी राजनीतिक सफलता मानते हैं, उन्हें नेता बनाने से किस समुदाय का विकास हो सकता है- मुसलमान विद्वानों को इस पर विचार करना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता, कोई न कोई उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करता रहेगा।

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