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धरना यहां, धरना वहां!

by
Feb 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Feb 2014 15:50:27

-अरुणेन्द्र नाथ वर्मा-

कुहरे से भरे आकाश के नीचे ठंडी जमीन पर बिछे लिहाफ में घुसकर मुख्यमंत्री जी ने जब बगल में खड़ी अपनी वैगनआर कार की तरफ देखा तो मन मसोस कर रह गया। काश उसके अन्दर ही बैठे रहते। अब पता नहीं कितने दिन ठंड में कुड़कुड़ाना पड़े। अब तो धरने पर तब तक बैठना पडे़गा जब तक उनकी सरकार की सारी मांगें मान नहीं ली जातीं। कहां से क्या कह दिया कि गणतंत्र दिवस तक दिल्ली पुलिस को मुश्कें बांधकर आप की खाप में निर्णय सुनने के लिए पेश नहीं किया गया तो राजपथ को गणतंत्र दिवस की परेड के बजाय देश भर से आये लाखों लोगों से खचाखच भर दिया जाएगा। जापान के प्रधानमंत्री गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि की हैसियत से पधारने वाले थे। जब राजपथ दिल्ली पुलिस के मार्च करते हुए जवानों की बजाय पुलिस को ललकारने वाली भीड़ से घिरा होगा, वे इस विलक्षण दृश्य को देखने के लिए बैठेंगे कहां? वैसे तो ये सिरदर्द मुख्यमंत्री जी का नहीं, केन्द्र का था, पर क्यूं न जापानी प्रधानमंत्री महोदय को भारत-जापान सहयोग की मिसाल मारुती-सुजुकी वैगनआर कार की ड्राइवर सीट पर बैठकर यह अद्भुत नजारा दिखाया जाये । वैसे भी मुख्यमंत्री जी को ड्राइवर सीट की बजाए धरने -मोर्चे पर बैठना ज्यादा पसंद था, गाड़ी अपनी हो या प्रदेश की, ड्राइवर सीट खाली ही रहती थी।
चुनाव से पहले पार्टी के पोस्टर को जिन ऑटोज के पीछे चिपकाते थे उन पर प्राय: लिखा हुआ मिलता था-मिलेगा मुकद्दर। कितना सच था इसमें! गद्दी संभालते ही जिसने पैंतालीस रैनबसेरे बनवाये वही आज खुली सड़क पर ठंड में कांपने को मजबूर था! धरने पर बैठने से पहले मौसम का ध्यान ही नहीं आया मुख्यमंत्री जी ने उसी क्षण तय कर लिया कि अगला धरना सर्दियों में नहीं रखेंगे। गणतंत्र दिवस के बाद पंद्रह अगस्त पर धरना होगा लेकिन मुद्दा क्या हो, इस पर अभी मंत्रिपरिषद के सदस्यों से बात करने के लिए लिहाफ के बाहर जैसे ही पैर निकाला तो दिल धक् से रह गया। चप्पल गायब थी। केंद्र सरकार और पुलिस की ये साफ साफ मिलीभगत थी। चिंता ने आ घेरा। अपनी चप्पल चोरी होने की रपट कहां लिखायें? जंतर मंतर की पुलिस तो धारा एक सौ चव्वालीस तोड़ने से पहले ही खार खाए बैठी थी। उस कंपकंपाती ठंड में हिम्मत नहीं हुई कि नंगे पैरों निकल कर चप्पल खोजें़। चप्पल चोरी की रपट लिखाने की चिंता टालकर वे दुबारा लिहाफ में घुस गए। पर तय किया कम से कम चार दिनों की छुट्टी पर थानेदार को भिजवाये बिना नहीं मानेंगे।
चप्पल की याद फिर भी सताती रही। उसके बिना भयंकर ठंड में डामर की सड़क उतनी ही चुभेगी जितने अन्ना हजारे के अनशन के दिनों में साथ रहे सहयोगियों की नुक्ताचीनी आजकल कर रही थी। स्थिति ऐसी थी कि न लिहाफ के अन्दर चैन था, न लिहाफ के बाहर। लिहाफ स्वयं उनकी बदली हुई परिस्थितियों का प्रतीक बन गया था। चुनाव से पहले सोचते थे, एक बार सरकार को लिहाफ बना कर उसमे घुस लिए तो ठंड की तरह, देश नहीं तो कम से कम दिल्ली की, सब समस्याओं पर काबू पा लेंगे। अब सरकार रूपी लिहाफ को ओढ़ कर उसके अन्दर की समस्याओं से मुक्ति नहीं मिल रही थी। उन्हें पता था कि गणतंत्र दिवस परेड का सत्यानाश न तो केंद्र होने देगा न ही उप राज्यपाल महोदय। अत: सड़क पर लिहाफ ओढ़कर करवटें बदलने से तो एकाध दिन में मुक्ति मिल ही जायेगी। पर अब खुद स्वयं की सरकार के खिलाफ प्रस्तावित धरनों की कतारें लगी हुई थीं। वे उद्विग्न थे। तभी अचानक दिमाग की बत्ती जली ़विष ही विष को काटता है। दिल्ली बस सेवा वालों ने, अस्थायी शिक्षकों ने और तमाम अन्य विभागों के कर्मचारियों ने धरनों की नोटिसें दी हुई थी। क्यूं न हर धरने का जवाब सरकार स्वयं धरने से दे। धरना मंत्रालय बनाकर कानून मंत्री को उसका अतिरिक्त प्रभार सौंप दिया जाए तो सब दुरुस्त हो जायेंगे। वैसे भी कानून मंत्री इस कला में अद्भुत कौशल दिखा रहे थे। इस विचार मात्र से मुख्यमंत्री जी के बदन में गरम खून दौड़ गया। जिस सर्दी के डर से सोच रहे थे कि अगला धरना अभी नहीं उसने सताना बंद कर दिया। बैठी हुई आवाज और सत्याग्रह करते गले के बावजूद होंठ गुनगुनाने लगे- धरना यहां, धरना वहां, इसके सिवा जाना कहां।

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