दुष्यंत की सुप्रसिद्ध पंक्तियां हैं : सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए। पंक्तियां अपनी जगह लेकिन देश की राजनीति में आपको सहज ही ऐसे दल और चेहरे मिल जाएंगे जिनका मकसद ही हंगामे खड़े करना और सियासत की रोटियां सेंकना रहा है। यह साफतौर पर कहा जा सकता है कि देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल का रिकार्ड इस मामले में सबसे खराब है और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने के मामले में कांग्रेस और इसके पिछलग्गू दल सबसे आगे नजर आते हैं। सांसद सदन में काली मिर्च का स्प्रे करते फिरें, साथी सांसदों से गुत्थमगुत्था हों, सत्ता अपने ही सांसदों के खिलाफ कार्रवाई करे और खुद सत्तारूढ़ दल के दर्जनों सांसद निलंबित हों, बेशर्मी की चादर ओढ़े बैठी यूपीए सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता और वह इतने पर भी विवादास्पद विधेयक आगे सरकाने से बाज नहीं आती। संसद के सम्मान की यह कांग्रेसी शैली है। अल्पमत सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने की बात हो या अपनी बात मनवाने के लिए एक-दूसरे को घूंसा जड़ने की, कुनबे की कील पर घूमती राजनीतिक पाठशाला में इसी परंपरा को पोसा गया है जहां जनता का नंबर परिवार के बाद आता है और जहां भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के सिर पर बैठाया जाता है। तेलंगाना मामले पर दुनियाभर में भारतीय संसद की किरकिरी कराने वाला जो सजीव प्रसारण सबने देखा वह इस बात की झांकी है कि जनभावनाओं को रौंदते हुए, लोगों को बांटकर, भ्रम की स्थिति में रखते हुए यूपीए सरकार किस हद तक जा सकती है। दक्षिण भारत के एक हिस्से में राजा कृष्णदेव राय की परंपरा से सीधे स्पष्ट तौर पर जुड़ाव रखने वालों को जो मुद्दा सांस्कृतिक अस्तित्व पर संकट के तौर पर मथ रहा है कांग्रेस के लिए वह वोटों की उर्वर भूमि होने से ज्यादा महत्व नहीं रखता। तुर्क संहारक की ऐतिहासिक ख्याति रखने वाले, आंध्र कवि पितामह की पालकी को कंधा देने वाले राजा से आत्मीय और सांस्कृतिक जुड़ाव रखने वालों को तेलगू साहित्य का स्वर्णकाल याद है और निजाम के राज में ह्यतेलगू बिड्डाह्ण की उपेक्षा भी लेकिन आज हैदराबाद को आगे कर दिल्ली जो खेल खेल रही है वह पर्दे के पीछे उर्दू को बढ़ाने और तेलगू का गला घोटने वाला कदम है, यह बात वहां लोग साफ समझते हैं, मगर यूपीए सरकार पचा जाना चाहती है। लोग यह दोमुहांपन क्यों बर्दाश्त करेंगे? तेलंगाना और सीमान्ध्र यूपीए सरकार के लिए सिर्फ दो नाम हैं, असली दाव तो यहां की 42 लोकसभा सीटों के लिए खेला गया है। जनता उबले, जनप्रतिनिधि खूनखराबे पर उतारू हो जाएं, इससे उसे कोई मतलब नहीं। बहरहाल, इस घटना ने जनता को सेकुलर और उदार कहलाने वाले नेताओं का विद्रूप विभाजनकारी चेहरा जरूर दिखा दिया है। समझ बढ़ाने के इस मौके पर कुछ कडि़यां जोड़कर देखें तो कुछ अन्य मामलों में भी सरकार और नेताओं की नीयत तोली जा सकती है। उदाहरण के लिए, तेलंगाना मुद्दे पर पूरे देश का सिर झुकाने वाली सरकार रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए नियामक लाने के लिए भी क्या इतना ही साहस दिखा सकती है? हरगिज नहीं, क्योंकि गांधी परिवार के दामाद का गोरखधंधा उजागर होने का डर करोड़ों निवेशकों की चिंताओं से ज्यादा बड़ा है। मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए हिन्दुओं पर गोली चलाने की बात कहने वाले मुलायम क्या मुरादाबाद दंगों के फौरन बाद पुलिस कार्रवाई के लिए ठीक इससे उलट बात कहने की हिम्मत दिखा सकते थे? हरगिज नहीं, क्योंकि उनका बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का जाप और सामाजिक वैमनस्य उनकी पार्टी के लिए खाद-पानी का काम करता है। गरीबी का कोई पंथ या जाति नहीं होती और देश में लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए, क्या यह बात कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी अपनी पार्टी के औपचारिक-अधिकृत मत के तौर पर कहते हुए भारतीय जनता पार्टी के मत का समर्थन कर सकते हैं? हरगिज नहीं, क्योंकि नीयत आरक्षण के लाभ से वंचितों को न्याय दिलाने की नहीं, सवर्ण वोट बैंक में भ्रम पैदा करने की है। बहरहाल, संसद के लिए इतिहास के सबसे शर्मनाक दिन की पटकथा लिखने वालों को शायद अंदाजा नहीं था कि इस बार हंगामा इस सीमा तक बढ़ जाएगा कि लोगों की तंद्रा टूट जाएगी। भ्रम के वातावरण में भावनाओं को उकसाकर, लोगों की पालेबंदी कर दूसरी तरफ अपना काम निकालने वालों की पहचान का यह सही वक्त है। ऐसे दल और नेताओं की परख आने वाले आम चुनाव में होगी, यह उम्मीद की जानी चाहिए। लोकतंत्र के आंगन में कुनबे और कलंक को पोसते नेता शायद नहीं जानते, अब यह देश जाग रहा है।
दुष्यंत की सुप्रसिद्ध पंक्तियां हैं : सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए। पंक्तियां अपनी जगह लेकिन देश की राजनीति में आपको सहज ही ऐसे दल और चेहरे मिल जाएंगे जिनका मकसद ही हंगामे खड़े करना और सियासत की रोटियां सेंकना रहा है। यह साफतौर पर कहा जा सकता है कि देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल का रिकार्ड इस मामले में सबसे खराब है और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने के मामले में कांग्रेस और इसके पिछलग्गू दल सबसे आगे नजर आते हैं। सांसद सदन में काली मिर्च का स्प्रे करते फिरें, साथी सांसदों से गुत्थमगुत्था हों, सत्ता अपने ही सांसदों के खिलाफ कार्रवाई करे और खुद सत्तारूढ़ दल के दर्जनों सांसद निलंबित हों, बेशर्मी की चादर ओढ़े बैठी यूपीए सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता और वह इतने पर भी विवादास्पद विधेयक आगे सरकाने से बाज नहीं आती। संसद के सम्मान की यह कांग्रेसी शैली है। अल्पमत सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने की बात हो या अपनी बात मनवाने के लिए एक-दूसरे को घूंसा जड़ने की, कुनबे की कील पर घूमती राजनीतिक पाठशाला में इसी परंपरा को पोसा गया है जहां जनता का नंबर परिवार के बाद आता है और जहां भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के सिर पर बैठाया जाता है। तेलंगाना मामले पर दुनियाभर में भारतीय संसद की किरकिरी कराने वाला जो सजीव प्रसारण सबने देखा वह इस बात की झांकी है कि जनभावनाओं को रौंदते हुए, लोगों को बांटकर, भ्रम की स्थिति में रखते हुए यूपीए सरकार किस हद तक जा सकती है। दक्षिण भारत के एक हिस्से में राजा कृष्णदेव राय की परंपरा से सीधे स्पष्ट तौर पर जुड़ाव रखने वालों को जो मुद्दा सांस्कृतिक अस्तित्व पर संकट के तौर पर मथ रहा है कांग्रेस के लिए वह वोटों की उर्वर भूमि होने से ज्यादा महत्व नहीं रखता। तुर्क संहारक की ऐतिहासिक ख्याति रखने वाले, आंध्र कवि पितामह की पालकी को कंधा देने वाले राजा से आत्मीय और सांस्कृतिक जुड़ाव रखने वालों को तेलगू साहित्य का स्वर्णकाल याद है और निजाम के राज में ह्यतेलगू बिड्डाह्ण की उपेक्षा भी लेकिन आज हैदराबाद को आगे कर दिल्ली जो खेल खेल रही है वह पर्दे के पीछे उर्दू को बढ़ाने और तेलगू का गला घोटने वाला कदम है, यह बात वहां लोग साफ समझते हैं, मगर यूपीए सरकार पचा जाना चाहती है। लोग यह दोमुहांपन क्यों बर्दाश्त करेंगे? तेलंगाना और सीमान्ध्र यूपीए सरकार के लिए सिर्फ दो नाम हैं, असली दाव तो यहां की 42 लोकसभा सीटों के लिए खेला गया है। जनता उबले, जनप्रतिनिधि खूनखराबे पर उतारू हो जाएं, इससे उसे कोई मतलब नहीं। बहरहाल, इस घटना ने जनता को सेकुलर और उदार कहलाने वाले नेताओं का विद्रूप विभाजनकारी चेहरा जरूर दिखा दिया है। समझ बढ़ाने के इस मौके पर कुछ कडि़यां जोड़कर देखें तो कुछ अन्य मामलों में भी सरकार और नेताओं की नीयत तोली जा सकती है। उदाहरण के लिए, तेलंगाना मुद्दे पर पूरे देश का सिर झुकाने वाली सरकार रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए नियामक लाने के लिए भी क्या इतना ही साहस दिखा सकती है? हरगिज नहीं, क्योंकि गांधी परिवार के दामाद का गोरखधंधा उजागर होने का डर करोड़ों निवेशकों की चिंताओं से ज्यादा बड़ा है। मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए हिन्दुओं पर गोली चलाने की बात कहने वाले मुलायम क्या मुरादाबाद दंगों के फौरन बाद पुलिस कार्रवाई के लिए ठीक इससे उलट बात कहने की हिम्मत दिखा सकते थे? हरगिज नहीं, क्योंकि उनका बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का जाप और सामाजिक वैमनस्य उनकी पार्टी के लिए खाद-पानी का काम करता है। गरीबी का कोई पंथ या जाति नहीं होती और देश में लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए, क्या यह बात कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी अपनी पार्टी के औपचारिक-अधिकृत मत के तौर पर कहते हुए भारतीय जनता पार्टी के मत का समर्थन कर सकते हैं? हरगिज नहीं, क्योंकि नीयत आरक्षण के लाभ से वंचितों को न्याय दिलाने की नहीं, सवर्ण वोट बैंक में भ्रम पैदा करने की है। बहरहाल, संसद के लिए इतिहास के सबसे शर्मनाक दिन की पटकथा लिखने वालों को शायद अंदाजा नहीं था कि इस बार हंगामा इस सीमा तक बढ़ जाएगा कि लोगों की तंद्रा टूट जाएगी। भ्रम के वातावरण में भावनाओं को उकसाकर, लोगों की पालेबंदी कर दूसरी तरफ अपना काम निकालने वालों की पहचान का यह सही वक्त है। ऐसे दल और नेताओं की परख आने वाले आम चुनाव में होगी, यह उम्मीद की जानी चाहिए। लोकतंत्र के आंगन में कुनबे और कलंक को पोसते नेता शायद नहीं जानते, अब यह देश जाग रहा है।
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