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साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा ( निवारण) विधेयक 2013
-विवेक शुक्ला -
साम्प्रदायिक एवं लाक्षित हिंसा (निवारण) विधेयक 2013 पर यूपीए सरकार का खौफनाक चेहरा एक बार देश देख रहा है। तुष्टीकरण की सियासत का इतना घिनौना खेल सरकार खेलेगी,शायद ही किसी ने सोचा हो। जाहिर है,जब वर्तमान लोकसभा के अंतिम सत्र में इस विधेयक को बहस के लिए रखा गया तो विपक्ष एक साथ खड़ा हो गया। सरकार इस विधेयक को कानून की शक्ल देकर साबित करना चाहती है कि साम्प्रदायिक दंगों के लिए हमेशा बहुसंख्यक समुदाय ही जिम्मेदार होता है।
अब जबकि आगामी लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं तब सरकार का इस विधेयक को संसद में रखना एक रणनीति के तहत हुआ। एक तरह से सरकार मुसलमानों को खुश करने के लिए इस विधेयक को लाई है। इसके साथ ही एक बड़ा सवाल ये है कि सरकार इस विधेयक को लेकर इतनी गंभीर क्यों है,जबकि उसकी तरफ से ह्यरीयल एस्टेटह्ण सेक्टर के लिए रेगुलेटर लाने की कोई तत्परता नहीं दिखी। जिस विधेयक के कानून बनने से देश के हजारों-लाखों आम आदमी की छत का सपना साकार हो सकता है, उसको लेकर वह कतई गंभीर नहीं है। देश में बार-बार मुबई के कैंपा कोला कंपाउंड जैसे मामले सामने आ रहे हैं, पर सरकार में ह्यरीयल एस्टेटह्ण को चुस्त करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। हो सकता है, सरकार को लगता हो कि अगर वह इस सेक्टर के लिए रेगुलेटर लाती है तो सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा जैसे लोग फंसंेगे। वे कितने जमीन घोटालों में कथित रूप से फंसे हैं, सबको मालूम है।
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार का साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा (निवारण) विधेयक 2013 को कानून बनाने के पीछे इरादा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को फंसाना है। केंद्रीय विधि मंत्री कपिल सिब्बल ने विधेयक को सदन में रखते हुए कहा कि ह्यराज्य प्रायोजित सांप्रदायिक गतिविधियांह्ण होने की स्थिति में, जैसा कि गुजरात में हुआ, केन्द्र के हस्तक्षेप के लिए एक विधेयक होना चाहिए। हालांकि मोदी को 2002 के दंगों के लिए किसी भी जांच या अदालत ने दोषी साबित नहीं किया पर सरकार उन्हें घेरने से बाज नहीं आ रही। ये वह सरकार है,जिसकी देखरेख में 1984 में हजारों सिखों का कत्लेआम हुआ था। इसके बावजूद उसी दल के दंगों में लिप्त नेता खुले घूम रहे हैं।
साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा (निवारण) विधेयक 2013 खतरनाक है, क्योंकि यह संविधान के संघीय ढांचे को क्षति पहुंचाने वाला है। यह केन्द्र को सारी शक्तियां सौंपता है। इसके अलावा यह विधेयक किसी को नागरिक के रूप में स्वीकार नहीं करता है, बल्कि हर व्यक्ति को बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में देखता है।
भाजपा ने कहा कि अगर इस हिंसा विधेयक ने कानून की शक्ल ले ली तो इससे मुजफ्फरनगर दंगों के लिए बहुसंख्यक समुदाय के लोग दंडित होंगे। ये देश के संघीय ढांचे पर करारी चोट करता है। जब कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है तो सरकार इस विधेयक को राज्य की सरकारों से सलाह-मशविरा करने के बाद क्यों नहीं लेकर आई? कहने की जरूरत नहीं है कि इस विधेयक के माध्यम से राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों का अपहरण ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि आपराधिक न्याय शास्त्रों के बुनियादी सिद्घांतों को भी कुचला जा रहा है।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस विधेयक को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे एक पत्र में कहा है, ह्यइस बिल के माध्यम से राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों का अपहरण ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि आपराधिक न्याय शास्त्रों के बुनियादी सिद्घांतों को भी कुचला जा रहा है। यह विधेयक एक ऐसे खतरनाक पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा की स्थिति में राज्य की कानून प्रवर्तनकारी शक्ति को ही संदेह के घेरे में लाया जा रहा है।ह्ण
दरअसल पिछले कुछ समय से केन्द्र सरकार लगातार राज्य सरकारों की अधिकारिता के विषयों पर कानून बना रही है। भू-अर्जन अधिनियम, कृषि, जैव सुरक्षा विधेयक, कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य विधेयक, बायोटेकनोलाजी नियामक प्राधिकरण विधेयक आदि इसके उदाहरण हैं।
केन्द्र की इस प्रवृत्ति को संवैधानिक बुनियादी स्तंभ ह्यसंघीय ढांचेह्ण को कमजोर करना माना जा सकता है। प्रस्तावित विधेयक के अनुच्छेद 5 और 6 के जरिये वस्तुत: राज्य सरकार की शक्तियों को राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों को सौंपा जा रहा है। राज्य सरकार की संप्रभु शक्तियों एवं प्रशासनिक अधिकारों को छीनकर इन आयोगों को ऐसी कार्यकारी शक्ति दी जा रही है, जिससे वे लोक सेवकों के कायोंर् का निरीक्षण, निगरानी और समीक्षा कर सकें।
विधि वेत्ताओं का यह भी मानना है कि इस विधेयक से जहां एक ओर संविधान के अनुच्छेद 311 और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 से निभाए गए कर्तव्यों के संदर्भ में लोक सेवकों को अभियोजन के संबंध में संरक्षण देता है। वहीं प्रस्तावित विधेयक लोक सेवकों को संविधान की भावना के विपरीत जाकर तुरंत संदेह का पात्र बना देता है।
शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि मध्यप्रदेश सरकार, सांप्रदायिक हिंसा को खत्म करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्घ है, जबकि प्रस्तावित विधेयक इस लक्ष्य को प्राप्त ही नहीं कर सकता और जितनी समस्याएं इससे सुलझेंगी नहीं, उससे कहीं अधिक यह उलझनें पैदा करेगा।
लेखक और पूर्व आईएएस अधिकारी जफर इकबाल कहते हैं, ह्यविधेयक इस के कानून बनने की हालत में आप किसी व्यक्ति को महज इसलिए अपराधी करार दे देंगे कि वह बहुसंख्यक समुदाय में जन्मा है और किसी व्यक्ति को केवल इसलिए पीडि़त मान लिया जाएगा, क्योंकि वह अल्पसंख्यक समुदाय में पैदा हुआ है।ह्ण
माना जा रहा है कि अगर यह विधेयक वर्तमान प्रारूप में पारित हो गया तो इससे साम्प्रदायिक तनाव कम होने की बजाए और बढ़ेगा, क्योंकि यह देश को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय में बांटने का प्रयास है।
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