सत्य पथ के अविचल राही थे स्वामी दयानंद सरस्वती
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सत्य पथ के अविचल राही थे स्वामी दयानंद सरस्वती

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Feb 8, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Feb 2014 15:12:20

 

जन्म दिवस (12 फरवरी ) पर विशेष
सीताराम व्यास
स्वामी दयानन्द सरस्वती उन्नीसवीं शताब्दी के महान धर्म सुधारक व सांस्कृतिक आन्दोलन के प्रणेता थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर लाला लाजपत राय, लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल ने नवीन राष्ट्रवाद को जन्म दिया। रोमा रोलां के शब्दों में उनका व्यक्तित्व उच्चतम कोटि का था, स्वामी जी का सिंह जैसा स्वभाव था और उनमें सामाजिक चिन्तन तथा नेतृत्व की प्रतिभा का सम्मिश्रण था। स्वामी दयानंद की प्रतिभा तथा साधना ने पांच वर्षो में उत्तर भारत की जड़ता को समाप्त करके उसकी आकृति बदल दी। उनके आविर्भाव से पूर्व भारत की महान संस्कृति का घोर अध:पतन हो गया था। भारत के लोग वेदान्त तथा उपनिषदों के उदात्त सन्देश को भुलाकर निष्प्राण तथा अन्धविश्वास पूर्ण कर्मकाण्ड के दलदल में फंस गये थे। सती प्रथा, बलात-वैधव्य, अस्पृश्यता, कन्या-भ्रुण हत्या जैसी कुप्रथाओं ने हिन्दू-समाज की जड़ों को खोखला बना दिया था। उस काल-खण्ड में सृजनात्मक शक्ति का पूर्णतय: लोप हो गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ठीक कहा था, ह्यहिन्दू समाज मूलभूत सत्य के साथ सम्बन्धों का विच्छेद करके परिस्थितियों की पतित दासता के गड्ढ़े में पड़ा हुआ था़.़.। ऐसी स्थिति में अठारहवीं शताब्दी में पश्चिमी सभ्यता को लेकर ब्रिटिश सत्ता भारत आयी थी। ऐसी अचेत गतिहीन स्थिति में महर्षि दयानन्द ने ही हिन्दू समाज को आत्मगौरव तथा प्राचीन भारत की भव्यता तथा दिव्यता का बोध कराया। उन्होंने ही सुप्त भारत को झकझोर कर जगाया।ह्ण यह कालखण्ड भारत के पुनर्जागरण का युग कहलाता है, जिसमें स्वामी रामकृष्ण,दयानन्द, विवेकानन्द जैसी आध्यात्मिक विभूतियों ने भारत को पुन:प्राणशक्ति दी तथा सामाजिक उत्थान का मार्ग दिखाया। स्वामी दयानन्द के अथक प्रयासों से भारतीय पुनर्जागरण की चेतना प्रबल हुई, तथा राष्ट्रवाद की धारा अधिक वेग से प्रवाहित हुई, जिसके परिणाम स्वरूप भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई।
स्वामी जी के पावन जन्म पर्व पर उनके महान योगदान तथा कृतित्व का स्मरण कराना वर्तमान युवा पीढ़ी के लिये उपयोगी होगा। वे आधुनिक भारत के महानतम् निर्माताओं में से एक थे। वे जानते थे कि भारतीय जन-मानस धर्मप्राण है। इसलिए समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को समाप्त करके उनके स्वत्व को ही जगाना आवश्यक है।
यहां सर्वप्रथम उनके जीवन-चरित का स्मरण कराना होगा। स्वामी जी के बचपन का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म 12 फरवरी को गुजरात के तनकरा गांव में धार्मिक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। स्वामी जी का बाल्यकाल कठोर अनुशासन में व्यतीत हुआ। उनके पिता दर्शनलाल तिवारी उर्फ अम्बाशंकर कट्टर शैव मतावलम्बी थे। वे अपने पुत्र को भी अपने समान कट्टर शिवभक्त बनाना चाहते थे। दैवविधान से बालक मूलशंकर मूर्तिपूजा का प्रबल विरोधी हो गया। चौदह वर्ष के बालक मूलशंकर ने शिवरात्रि के पर्व की मध्यरात्रि को देखा कि चूहे दौड़-दौड़कर शिवलिंग पर चढ़ाये गये प्रसाद को खा रहे थे। इस घटना ने ही मूलशंकर के चिन्तन की दिशा को बदल दिया। वे सत्यान्वेषी और जिज्ञासु थे। उस घटना ने उनके बोधत्व को जगा दिया और उन्नीस वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया।
स्वामी दयानंद ने गृहत्याग के पश्चात देशाटन किया। देश की दशा और दिशा का गहन अवलोकन किया। देशाटन से उन्हें ज्ञात हआ कि हमारा हिन्दू समाज अन्धविश्वास, कठोर जाति-व्यवस्था पाखण्ड और अस्पृश्यता से खोखला होता जा रहा है। उन्हे सर्वत्र अनैतिकता, अज्ञानता, कायरता का वीभत्स दृश्य दिखाई पड़ रहा था। समाज की घोर पतन अवस्था को देखकर उनका संवेदनशील हृदय समाज-सुधार और देशोत्थान की भावना से उद्वेलित हो उठा। उन्होंने यह भी देखा कि हिन्दू युवक पश्चिम की चकाचौंध से विस्मित होकर ईसाई मतप्रचारकों के झूठे जंजाल में फंसकर नास्तिक बनते जा रहे हैं। विलायतीकरण एक फैशन बन गया है। ऐसी स्थिति मे स्वामी जी का चिन्तन हिन्दू समाज में संगठन,शैक्षिक जागृति, राष्ट्रीय स्वाभिमान और सामाजिक जन-जागरण की दिशा में उन्मुख हुआ। वे अनेक संतो से मिले। बड़ोदा में सच्चिदानन्द परमहंस से मिले। परमहंस ने चाणोद जाने के लिए कहा। चाणोद पहुंचकर उन्होंने परमानन्द परमहंस से वेदान्त का ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने संन्यास-दीक्षा प्रदान की और उनका नाम दयानन्द सरस्वती रख दिया। स्वामी जी सत्यपथ के अविचल राही थे। इसी खोज में भारत का भ्रमण करते रहे कि मुझे सत्यपथ का दर्शन कराने वाला कोई महापुरुष मिले। अन्त में मथुरा में स्वामी विरजानन्द से उनकी भेंट हुई, परन्तु वे किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। स्वामी दयानन्द जी को अनुभूति हुई कि मेरे सच्चे गुरु विरजानन्द ही हैं। उन्होंने बार-बार अनुनय, विनय की तो वे द्रवीभूत हो गये। उन्होंने गुरु के सान्निध्य में पाणिनी अष्टाध्यायी और वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। प्राचीन परम्परा के अनुसार गुरु आश्रम से विदा लेने का समय आया, तब स्वामी विरजानन्द ने कहा ह्यजो शिक्षा तुमने प्राप्त की है उसका समुचित उपयोग करो। देश में अज्ञान है।़.. जातियों, सम्प्रदायों में झगड़ा है, वे वेदों की अवहेलना करते हैं। तुम आजीवन आर्यावर्त में आर्षग़्रन्थों का प्रचार-प्रसार करो और अनार्य ग्रन्थों का खण्डन करोगे।ह्ण
स्वामी जी अपने गुरु से विदा लेकर देश भ्रमण के लिए निकल पड़े। वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिये वे सर्वप्रथम आगरा पहुंचे। उन्होंने वहां पर गायत्री मन्त्र के जाप का महत्व बताया। साथ ही मूर्ति पूजा का खण्डन, बहुदेवोपासना और अन्धविश्वासों पर कड़ा प्रहार किया। उत्तर भारत में आर्य-समाज का प्रचार तीव्र गति से हुआ। केवल पांच वर्षो में उत्तर भारत में आश्चर्यकारक परिवर्तन की किरणें प्रस्फुटित होती दिखायीं दीं। स्वामी जी ने सर्वप्रथम गोहत्या बन्दी का अभियान चलाया और अस्पृश्यता जैसे कलंक के विरुद्घ प्रबल शंखनाद किया। उनके विचारों से प्रभावित होकर अनेक देशभक्त युवकों ने क्रान्ति के पथ पर चलने का प्रण लिया। उनके विचारों में स्वराज्य,स्वधर्म, स्वभाषा व स्वदेशी ही राष्ट्रीयता के प्रेरक हैं। उनका कहना था कि स्वधर्म और स्वदेशी के बिना सुराज्य की स्थापना नहीं हो सकती। आग्रह था कि हमारी नारियां पुन: गार्गी मैत्रेयी,देवहुति,अनुसूया जैसी विदुषी बनें। कन्या गुरुकुलों और महाविद्यालयों के माध्यम से नारी शिक्षा के क्षेत्र में उनका अभूतपूर्व योगदान नारी शक्ति करण की दृष्टि से विशेष कल्याणकारी सिद्घ हुआ।
स्वामी जी द्वारा लिखित ह्यसत्यार्थ प्रकाशह्ण सत्य का प्रकटीकरण करने वाला गौरव ग्रन्थ है। ह्यसत्यार्थ प्रकाशह्ण समकालीन सभी पंथ-सम्प्रदायों में आये दोषों का निवारण करने वाला ग्रन्थ है। स्वामी दयानंद के हृदय में किसी भी पंथ तथा सम्प्रदाय के प्रति कटुता का भाव नहीं था। प्रत्येक मां अपने बच्चे को निर्मल और सुन्दर देखना चाहती है, उसी प्रकार की भूमिका स्वामी दयानन्द ने हिन्दू समाज के प्रति मां की ममतामयी भूमिका का सम्यक् निर्वाह किया। उनके पावन जन्म ़दिवस के उपलक्ष्य में उनके महान मेधावी व्यक्तित्व और समाज सुधार तथा राष्ट्रोद्घार के कायोंर् को स्मरण करते हुए समृद्घ, सजग और समर्थ भारत के नव निर्माण की प्रतिज्ञा करें। वैदिक चिन्तन की सकारात्मक आशावादी, अभेदमूलक, रचनात्मक जीवनदृष्टि ही महर्षि दयानन्द सरस्वती के समाजिक और राष्ट्रीय चिन्तन की आधारभूमि थी। उसी समग्र विकास की योजना पर केन्द्रित जीवनदृष्टि से भारत के भविष्य को आलोकित किया जा सकेगा।

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