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नैमिषारण्य देश के प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है जो कि उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में गोमती नदी के तट पर स्थित है। इस तीर्थ की महिमा का वर्णन मार्कण्डेय पुराण सहित अनेक प्राचीन ग्रंथों में ऋषियों की तपोस्थली के रूप में मिलता है। यहां 88 हजार ऋषियों ने तप किया था और सभी ऋषियों ने शोध भी किया था। यह तीर्थ भारत की सनातन संस्कृति के उद्गम स्थल के रूप में स्थापित है। सर्वप्रथम मानव जन्म की उत्पत्ति हेतु मनु-शतरूपा ने यहां 23 हजार वर्षों तक कठोर तप किया था। नैमिषारण्य की तपो भूमि पर ही ऋषि दधीचि ने लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियां देवताओं को दान में दी थीं। उनके अस्थियों से ही बने वज्र से वृतासुर का देवताओं ने वध क र विजय पाई थी। वेद व्यास ने भी यहां पर चार वेद, छह शास्त्र और 18 पुराणों की रचना की थी। श्रीराम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-
तीरथ वर नैमिष विख्याता ।
अति पुनीत साधक सिद्धि दाता।।
वाराह पुराण के अनुसार यहां भगवान द्वारा निमिष मात्र में दानवों का संहार होने से यह नैमिषारण्य कहलाया। यह भी कहते हैं कि इस स्थान पर अधिक मात्रा में पाए जाने वाले फल निमिष के कारण इसका नाम नैमिष पड़ा। एक मत यह भी है कि असुरों के दलन के अवसर पर भगवान विष्णु के चक्र की नैमि नैमिष में गिरी थी। इसके अलावा यह भी उल्लेख मिलता है कि जब देवताओं का दल महादेव के नेतृत्व में ब्रहा जी के पास असुरों के आतंक से पीडि़त होकर पहंुचा तो उन्होंने अपना चक्र छोड़ा और चक्र के गिरने वाले स्थान को अभीष्ट स्थान बताया। चक्र चौदह भुवन घूमता हुआ इसी अरण्य में पतित होकर पाताल में प्रवेश कर गया। इससे पाताल में एक प्रबल जलधारा की सृष्टि हुई। इससे स्थल जलमग्न हो गया जिसके बाद प्रार्थना करने पर ब्रहा जी के आदेश से देवी ललिता ने उस चक्र को उसी स्थान पर स्थापित कर जलधारा के प्रबल वेग को रोक दिया। चक्र गिरने वाला स्थान आज चक्रतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। चक्रतीर्थ के अतिरिक्त यहां अनेक प्रसिद्ध स्थल जैसे व्यास गद्दी, ललिता देवी मंदिर, भूतनाथ मंदिर, कुशावर्त, ब्रह्म कुंड, जानकी कुंड और पंचप्रयाग आदि स्थल हैं। नैमिषारण्य का प्राय: प्राचीनतम उल्लेख वाल्मीकि रामायण के युद्ध-काण्ड की पुष्पिका में प्राप्त होता है । उसमें उल्लेख है कि लव और कुश ने गोमती नदी के किनारे भगवान राम के अश्वमेघ यज्ञ में सात दिनों में वाल्मीकि रचित काव्य का गायन किया था ।
ग्रंथो के अनुसार महर्षि शौनक के मन में दीर्घकाल तक ज्ञान सत्र करने की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा इसे चलाते हुए चले जाओ। जहां इस चक्र की नैमि (बाहरी परिधि) गिर जाए, उसी स्थल को पवित्र समझकर वहीं आश्रम बनाकर ज्ञान बांटों। शौनक जी के साथ ऋषि भी थे। वे सब लोग उस चक्र को चलाते हुए भारत में घूमने लगे। गोमती नदी के किनारे एक तपोवन में चक्र की नैमि गिर गई और वहीं वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नैमि गिरने से वह स्थान नैमिष कहलाया, जहां चक्र भूमि में प्रवेश कर गया, वह स्थान चक्रतीर्थ कहा जाता है। यह तीर्थ गोमती नदी के वाम तट पर है और पितृस्थानों में से एक स्थान माना जाता है। यहां सोमवती अमावस्या को विशाल मेला लगता है। शौनक जी को इसी तीर्थ स्थल पर सूत जी ने 18 पुराणों की कथा सुनाई थी। द्वापर में श्रीबलराम जी यहां पधारे थे। भूल से उनके द्वारा रोमहर्षण सूत की मृत्यु हो गयी। बलराम जी ने उनके पुत्र उग्रश्रवा को वरदान दिया कि वे पुराणों के वक्ता होंगे। उन्हांेने ऋषियों को सताने वाले राक्षसों का वध किया। संपूर्ण भारत की तीर्थयात्रा करके बलराम जी फिर नैमिषारण्य आये और यहां उन्होंने यज्ञ किया था।
ललिता देवी
मां भगवती के 52 शक्तिपीठांे में से एक ललिता देवी मंदिर भी है। यहां पर मां का हृदय विष्णु जी के चक्र से कटकर गिरा था। इनका पहले नाम लिंग धारणी ललिता मां था। इसी स्थान पर प्राचीनकाल में देवताओं ने 80 वर्षों तक यज्ञ किया था जिसके उपरान्त ललिता मां प्रकट हुई थीं। लंबे समय से नैमिषारण्य में धनवंतरी पीठ प्रमुख वैद्य बाल शास्त्री मिश्र (पूर्व प्रमुख चिकित्सा अधिकारी) ने ललिता देवी मंदिर की महिमा बताते हुए कहा कि पृथ्वी पर असुरों के आतंक से देवता भयभीत हो चुके थे। इससे परेशान देवताओं ने मां से प्रार्थना कर समाधान करने को कहा। उनके आग्रह को स्वीकार कर ललिता देवी ने दैत्यों का संहार कर दिया। उसके बाद देवताओं ने उनसे यहीं पर निवास करने का निवेदन किया। उनके इस आग्रह को देवी जी ने स्वीकार कर लिया। आज भी ऐसा कहा जाता है कि देवी ललिता यहां साक्षात रूप से विराजमान रहकर अपने भक्तों की सभी इच्छाआंे की पूर्ति करती हैं।
चक्रतीर्थ
नैमिषारण्य स्टेशन से लगभग एक मील दूर चक्रतीर्थ है। यहां एक सरोवर है जिसका मध्य भाग गोलाकार है और उससे बराबर जल निकलता रहता है। उस घेरे के बाहर श्रद्धालु स्नान करते हैं। यहीं नैमिषारण्य का मुख्य तीर्थ है। इसके किनारे अनेक मंदिर हैं। श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण होने पर यहां से दंडवत होकर देवी ललिता के दरबार तक जाते हैं। इसके अतिरिक्त यहां पांडव किले के सर्वोच्च स्थान पर हनुमान जी का मंदिर है, जो कि हनुमान गढ़ी के नाम से विख्यात है।
परिक्रमा
नैमिषारण्य की परिक्रमा 84 कोस की है। यह परिक्रमा प्रत्येक वर्ष फाल्गुन की अमावस्या से शुरू होकर पूर्णिमा को पूरी होती है। पूर्णिमा से पूर्व यहां पर पांच दिनों का मेला लगता है। 84 कोस की परिक्रमा के दौरान कैलाश, हत्याहरण और जगन्नाथ इत्यादि स्थानों के दर्शन होते हैं।
छोटी परिक्रमा
यदि कोई श्रद्धालु 84 कोस की परिक्रमा करने में सक्षम नहीं होता है तो वह सवा कोस की परिक्रमा कर सकता है। कहते हैं कि सवा कोस की परिक्रमा का भी पूरा फल मिलता है। इस परिक्रमा में चक्रतीर्थ, भूतेश्वरनाथ, सूतगद्दी, श्रीपरमहंस, क्षेमकाया, भगवती देवी, ललिता देवी, पंच-प्रयाग, जानकी कुण्ड, काशी तीर्थ, अन्नपूर्णा, विश्वनाथ, चित्रगुप्त, सप्तर्षिटीला, व्यास गद्दी, मनु शतरूपा स्थल, वल्लभाचर्यजी की बैठक, ब्रह्म, गंगोत्री पुष्कर, दशाश्वमेध घाट, हनुमान गढ़ी, पञ्च पाण्डव, यज्ञवराह कूप, नरसिंह मंदिर, रामानुज कोट और जगन्नाथ मंदिर आदि स्थल शामिल हैं। इन्द्रधनुष डेस्क
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