सम्पादकीय : भय का भंवर
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सम्पादकीय : भय का भंवर

by
Feb 8, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Feb 2014 14:35:50

दुनियाभर में वैचारिक पालेबंदी, तर्क और भावना के दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ी दिखती है। मगर भारत तो अनूठेपन का पालना है। राय बनाने-जताने की जो लड़ाई विश्व को बांटती है उसे एक ही व्यक्तित्व में सहजता से समाहित करना इस भूमि की विशेषता है। आज राष्ट्र की जनता विशेषकर प्रतिनिधि युवा शक्ति अपने इसी शाश्वत सांस्कृतिक भाव के साथ जाग रही है।
तर्क और भावना का यह मेल अनूठा है। मन में देशहित की भावना लिए तर्कों की कसौटी पर तथ्यों को परखते युवा ऊपरी तौर पर जितने बेपरवाह और अलमस्त दिखते हैं भीतरी तौर पर वे उतने ही गंभीर, आग्रही और लक्ष्य केन्द्रित हैं।
भारत के लिए बात अच्छी है मगर देश की बात करने वाली जनता राजनीतिक नेतृत्व की योग्यता जांचती है उपनाम पर नहीं बहकती। सो, कांग्रेस के लिए यह विषाद काल है।
जनता जाग रही यह संकेत सरकार को काफी पहले ही मिलने लगे थे, लेकिन सत्ता को भ्रष्टाचार का औजार बना देने वालों के लिए परिस्थितियां कितनी गंभीर होंगी इसका अंदाजा यूपीए की कमान थामने वाले हाथों को नहीं था। इसलिए बेचैनी पहले घबराहट बनी फिर खलबली और अंतत: खीझ में बदलने लगी।
इस खीझ में सबसे साफ अगर कोई बात है तो वह है समय का चुनाव। गंभीर अपराधों में पकड़े मजहबी कट्टरपंथियों से नरमी बरतने की नसीहत देती गृहमंत्रालय की चिट्ठी, मालेगांव धमाकों में मुस्लिम युवकों के विरुद्ध मिले साक्ष्यों को दबाए राष्ट्रवादी शक्तियों को निशाना बनाने की सरकारी बेचैनी ठीक आम चुनाव से पहले सतह पर आई है। चार वर्ष के दौरान टुकड़ों में जुटाई बातों पर टिकी और पहले छपी और खारिज की जा चुकी चीजों को लेकर झूठ का एक 'कारवां' भी सत्ता का मुहूर्त देखकर चला लगता है। किसी संदिग्ध रपट को एक तरफ उछालने और दूसरी ओर लपकने की उतावली बता रही है कि बौखलाहट सरकार से क्या-क्या करा सकती है। वैसे, गंभीर पत्रकारीय सरोकारों में रुचि रखने वालों के लिए इस 'कहानी' के बरअक्स तथ्यों को खंगालने के लिए विक्रम भावे की मराठी में लिखी तथ्यों से भरी पूरी एक पुस्तक मौजूद है (देखें पेज-4)।
अपने अंतिम दिनों में यूपीए सरकार रास ना आने वाली सामाजिक व राजनीतिक शक्तियों के विरुद्ध कौन से तीर आजमाती है और जनता को कितना बांट पाती है यह देखने वाली बात है।
असल में राजकाज का कांग्रेसी अनुभव यह मान ही नहीं सकता था कि भ्रष्टाचार भी जनता के लिए कोई मुद्दा हो सकता है मगर फिर भी एक डर जरूर था। लेकिन विधानसभा चुनाव नतीजों की सुनामी में मुहर लगी इसी डर पर। पूरे शासनकाल में पर्दे के पीछे से केन्द्र सरकार चाहे जिसने चलाई आज उसे सिर्फ यही डर हांक रहा है। असल में, जनता को डराने, बांटने और राज करने का जो सूत्र ब्रिटिश शासन का मूल था वही कांग्रेस का भी बीज बना। परंतु दशकों से समाज को काटते राजनीतिक परोक्ष प्रहार आज प्रत्यक्ष रूप में सामने आ रहे हैं तो इसलिए कि अस्तित्व का संकट हर छिपे हथियार को उजागर कर देता है।
आजादी के बाद पहली बार दंगे में गिरी लाशों की गिनती टोपी और तिलक के आधार पर बताई जाती है तो सिर्फ इसलिए कि लोग कानून व्यवस्था पर सरकार से जवाब तलब करने की बजाए एक-दूसरे को नफरत से घूरते रहें। ह्ण84 का जख्म यदि कुरेदा जाता है तो सिर्फ इसलिए कि कांग्रेस नेताओं की अगुवाई में हुए नरसंहार के लिए पूरे समाज को दोषी बताया जा सके।
जनता को नागरिक मानने की बजाय उसे सिर्फ अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक पहचान देने पर तुली सरकार यदि अपने अंतिम संसदीय सत्र में विवादास्पद बिल लहराती है तो सिर्फ इस भय से कि यदि वोट बंटे नहीं तो उसकी जड़ कट जाएगी। आज कांग्रेस सरकार बनाने की दौड़ में नहीं, जड़ें बचाने की फिक्र में है।
उत्तर में जम्मू-कश्मीर से दक्षिण के राज्यों तक और पश्चिम में गुजरात से पूरब में बंगाल तक राष्ट्रवाद की उठती लहरें यूपीए कुनबे का भय और बढ़ा रही हैं।
मालेगांव हो या मलियाना, 84 का सिख कत्लेआम हो या मुजफ्फरनगर की आग समाज इन सबके पीछे की कहानियां देख-पढ़ रहा है और यूपीए की बौखलाहट भी समझता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज को काटने की राष्ट्रविरोधी साजिश और घृणित आरोपों की बौछार आम चुनाव की लहर उतरने के बाद थमेंगी और नतीजे बताएंगे कि किसी राजनीतिक पार्टी का भय समाज को भयभीत नहीं कर सकता।

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