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शियाओं के लिए करबला पवित्र, मक्का नहीं

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Feb 1, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 01 Feb 2014 14:10:56

इराक के नूरी अल मालिकी की तुगलकी घोषणा

-मुजफ्फर हुसैन-

इस्लाम की दृष्टि से मुसलमानों का सबसे पवित्र स्थान मक्का स्थित काबा शरीफ है। जहां मुस्लिम हज यात्रा के समय परिक्रमा करके अपनी प्राथमिक और बुनियादी आस्था को प्रदर्शित करते हैं। इस मान्यता के अनुसार मुस्लिम चाहे जिस सम्प्रदाय और पंथ से संबंधित हो उसकी पहली श्रद्धा का केन्द्र मक्का का काबा है। इसलिए दुनिया के प्रत्येक मुस्लिम की यह बुनियादी आस्था होती है कि वह जीवन में एक बार यहां उपस्थित होकर नमाज पढ़े और उसकी परिक्रमा लगाने का पुण्य कमाए। उक्त प्रक्रिया हज यात्रा से संबंधित है। इस मस्जिद में उपस्थित होकर हर मुसलमान यह भूल जाता है कि वह किसी विशेष पंथ अथवा सम्प्रदाय का है। उसकी नागरिकता और राष्ट्रीयता भी यहां आड़े नहीं आती है। आर्थिक स्थिति ठीक होने और स्वास्थ्य के मामले में चुस्त और दुरुस्त होने की स्थिति में सभी जाति और सम्प्रदाय के मुस्लिम के लिए यह अनिवार्य बंधन है। अरबी महीने जिलहज की दसवीं तारीख को हज यात्रा पूर्ण होती है जिसे मुस्लिम बंधु ईदुल अजहा (बकरा ईद) के नाम से पुकारते हैं। हजरत मोहम्मद पैगम्बर साहब ने स्वयं इसे इस्लाम की बुनियादी मान्यता घोषित की है। इसलिए इस पर न तो कोई विवाद उठा सकता है और न ही कोई प्रश्न कर सकता है। जबसे इस्लाम दुनिया में आया है यह परम्परा अनिवार्य रूप से जारी है। यहां आकर शिया-सुन्नी, काले-गोरे और देशी-विदेशी का अंतर समाप्त हो जाता है।
मुस्लिमों का दूसरा आस्था का केन्द्र है करबला। करबला इराक में बगदाद के निकट है। यहां इमाम हुसैन को शहीद किया गया था। करबला भी पवित्र तीर्थ के रूप में प्रख्यात है। लेकिन करबला का स्थान वह नहीं है जो इस्लाम में मक्का का है। करबला का महत्व इसलिए है कि वहां इमाम हुसैन को शहीद किया गया था। मुस्लिमों में दो बड़े सम्प्रदाय हैं शिया और सुन्नी। करबला केवल शियाओं के लिए पवित्र स्थल है। इस्लामी शरीयत के आधार पर वहां जाना मक्का की तरह अनिवार्य नहीं है। करबला में तत्कालीन मुस्लिम सत्ताधीशों ने उत्तराधिकार को लेकर इमाम हुसैन को शहीद कर दिया था। हजरत अली के पुत्र इमाम हुसैन को यजीद के शासन ने मान्यता नहीं दी। बल्कि उनके परिवार को मदीना से धोखाधड़ी करके करबला बुलाया जहां उनके परिवार सहित 72 लोगों को यजीद की सेना ने दस मोहर्रम को शहीद कर दिया। शिया सम्प्रदाय इस घटना को इस्लाम में सबसे अधिक महत्व देता है। इमाम हुसैन के साथ जो कुछ हुआ उसकी भर्त्सना करते शोक में डूब जाता है। यह घटना 10 मोहर्रम के दिवस घटी थी।
इराक में इस समय नूरी अल मालिकी की सरकार है। नूरी शिया हैं और वहां की सरकार के मुखिया हैं। जब तक इराक में सद्दाम की सरकार रही वहां सुन्नियों का बोलबाला रहा। इराक में यद्यपि शिया बहुसंख्यक हैं लेकिन वहां हमेशा से सुन्नियों की सरकार ही रही है। इराक में जनसंख्या का प्रतिशत देखा जाए तो शिया 55 और सुन्नी 45 प्रतिशत हैं। लेकिन वहां सुन्नियों का बोलबाला इतना अधिक रहा कि हमेशा सुन्नी मुसलमानों की ही सरकार बनती रही। लेकिन सद्दाम के पतन के पश्चात अमरीका ने शियाओं को प्रोत्साहित किया। अब स्थिति यह है कि नूरी अल मालिकी इराक के शिया नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए हैं। इराक के सुन्नियों को ईरान के कट्टरवादियों से भय लगा रहता था। लेकिन अब वहां रुहानी को राष्ट्रपति चुन लिए जाने के पश्चात अमरीका के लिए सुखद वातावरण बनना शुरू हो गया है। इराक के शियाओं की बढ़ती ताकत ईरान के आयतुल्लाह खुमैनी और अहमद निजादी जैसे नेता ही थे। लेकिन प्रवाह बदल जाने के पश्चात अब अमरीका को राहत मिल गई है। इस्रायल और ईरान हमेशा आमने सामने रहते थे, लेकिन अब इस्रायल भी इतना आक्रामक नहीं रहा है। इसलिए अमरीका और इस्रायल को जो सुन्नियों की आवश्यकता पड़ती थी अभी वह समस्या नहीं रही है। जब इन दोनों बड़े दुश्मनों से ईरान को राहत मिल गई है तब वह फिर इराक में शिया सरकार को समर्थन क्यों न दे? इसलिए अब इराक के शियाओं को लग रहा है कि जो काम आज तक नहीं हो सका वह अब बड़ी सरलता से हो सकता है।
इराक में सुन्नी कमजोर होते ही अलकायदा की और आकर्षित हो रहे हैं। अलकायदा इस क्षेत्र में बैठकर अमरीका को चुनौती देना चाहते हैं। अमरीका अपना बचाव शिया सरकार के माध्यम से करना चाहता है। ईरान और इराक का शिया यदि अमरीका के पीछे खड़ा हो जाता है तो निश्चित ही अल कायदा को चुनौती मिल सकती है। अमरीका का सबसे बड़ा शत्रु तो अलकायदा है इसलिए वह ईरान और इराक की शिया सरकार से हाथ मिला कर अपने इस कट्टर दुश्मन का सफाया करने का मन बना चुका है। यही कारण है कि नूरी अल मालिकी अब अमरीका के पक्ष में खड़े होकर इराक के सुन्नियों से दो-दो हाथ कर लेने में अपना भला मानते हैं। इराक के शियाओं को यह बात कांटे की तरह खटकती रही कि हमारा इराक में बहुमत है लेकिन हमारी सरकार नहीं बन पाई है। सद्दाम के जीवित रहते तो यह बात कभी भी संभव नहीं थी। सभी ओर से शिया बहुमत में होने के बावजूद दबाव में थे। इसलिए अब यह अवसर हाथ लगा है तो वहां के शिया इसका लाभ क्यों न उठाएं।
ईरान से निकटता के कारण अमरीका के हाथ से सऊदी अरब निकलता दिखलाई पड़ रहा है। इसलिए खाड़ी के आसपास के क्षेत्र में उसके साथ ऐसी ताकत होनी चाहिए जो उसकी सहायता कर सके। सऊदी अरब सबसे बड़ा तेल का क्षेत्र था। वह अब अमरीका से दूर- दूर रहता है। इसलिए अमरीका ने न केवल ईरान से दोस्ती कर ली बल्कि इराक की नूरी अजमालिकी की हुकूमत को भी विश्वास दिला दिया कि अमरीका अब सुन्नियों के साथ न होकर शियाओं के साथ है। अमरीका यदि मुस्लिम राष्ट्रों पर हावी होना चाहता है तो उसे ईरान-इराक वाले क्षेत्र में अपना दबदबा कायम करना पड़ेगा। इस बहती गंगा में इराक हाथ क्यों नहीं धोएगा? इसलिए नूरी अलमालिकी ने अब इसका राग अलापना शुरू कर दिया कि इराक भूतकाल में चाहे जो रहा हो लेकिन अब वह शिया देश के रूप में ही उभरने वाला है। नूरी की सरकार का मानना है कि वह अब शियाओं का नूर और सुरूर बनकर अपने परचम लहराएगा।

नूरी अलमालिकी सुन्नी और शियाओं के बीच दरार डालना चाहते हैं। शिया अधिक संगठित होकर इराक में अपना वर्चस्व जमा लें इस उधेड़बुन में उसने इस्लामी बुनियाद पर ही हमला बोल दिया है। आज तक सभी मुस्लिम काबा को सर्वोपरि मानते थे। दुनिया में सुन्नी मुसलमानों की संख्या शियाओं से अधिक है। इसलिए सुन्नी मुसलमान काबा को सर्वोपरि रखने में दबदबा कायम करने में सफल हो जाते थे। नूरी अल मालिकी ने इस बुनियादी सिद्धांत को ही चुनौती दे डाली। नूरी का मत है कि शियाओं के लिए करबला सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च है। यह कह कर उन्होंने काबा को दोयम दर्जे पर रखने का कुप्रयास किया है। सुन्नी इसे केवल नूरी की बकवास और पागलपन से निरुपित कर रहे हैं। उनका यह कहना है कि इस प्रकार की विवादास्पद बात कह कर नूरी अल मालिकी ने समस्त इस्लामी दुनिया का अपमान किया है। काबा से रिश्ता तोड़ने वाला भला किस प्रकार मुसलमान हो सकता है? इस्लाम का जन्म जिस मक्का में हुआ और जिस मस्जिद में पैगम्बर साहब ने इस्लाम का प्रचार शुरू किया उसकी तुलना में कोई अन्य स्थान का महत्व किस प्रकार बढ़ सकता है? नूरी सुन्नी पंथ की नहीं बल्कि समस्त इस्लामी दुनिया का अपमान कर रहे हैं। उनके यह फतवा तो इस्लाम के इतिहास के ही उलट-पुलट कर रख सकता है। शिया सम्प्रदाय निश्चित ही चौथे खलीफा हजरत अली को अपना प्रथम इमाम मानता है और उनके पुत्र इमाम हुसैन की शहादतगाह करबला को पवित्र स्थान मानता है। लेकिन करबला का अस्तित्व मक्का के पश्चात हुआ। इमाम हुसैन ने करबला में जिस इस्लाम के लिए अपना सर्वस्व लुटाया वह तो मक्का में जन्मे इस्लाम के लिए ही था। इस्लाम की बुनियाद मक्का से है करबला से नहीं।
अमरीका के लिए उपरोक्त विवाद संजीवनी के समान है, क्योंकि दुनिया में अमरीका का टकराव अधिक से अधिक इस्लामी देशों में ही है। मध्य पूर्व के तीनों मतों में यहूदी और ईसाइयत के बाद इस्लाम का जन्म हुआ। लेकिन इस्लाम बहुत तेजी से फैल गया। इसका बढ़ आज भी मध्य पूर्व के देश ही हैं जो अपनी खनिज सम्पदा के कारण दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण भाग में स्थित है। अमरीका अपने वर्चस्व की अंतिम लड़ाई इसी प्रदेश में लड़ रहा है। इसलिए अमरीका को मुस्लिमों में फूट डालने और एक देश को दूसरे से लड़ा कर ही सफलता मिल सकती है।
अलकायदा जो अमरीका का नम्बर एक का दुश्मन है वह अपना वर्चस्व इन्हीं देशों में बढ़ाना चाहता है ताकि वे अपने प्रतिस्पर्धी से निपट सके। इस्लामी जगत हमेशा शिया-सुन्नी विवाद के कारण ही बंटा हुआ है इसलिए अमरीका इस खाई को अधिक चौड़ी कर रहा है। नूरी अल मालिकी के इस बयान पर मुस्लिम नाराज हैं लेकिन शिया जगत ने अब तक इसकी निंदा नहीं की है। इराक की उपरोक्त मान्यता को कोई स्वीकार नहीं कर सकता है लेकिन मक्का से करबला को अधिक महत्व देने की बात दोनों पंथों में एक स्थायी विवाद का कारण बन सकता है। शिया-सुन्नी संघर्ष मुस्लिम दुनिया के लिए नई बात नहीं है लेकिन जिस नए परिवेश में उसे नूरी अल मालिकी ने उठाया है वह एक खूनी संघर्ष का कारण बन सकता है। 

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