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पुलिस को मजबूत तो करिए

by
Jan 25, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Jan 2014 16:26:20

-जोगिंदर सिंह-

कुछ  समय पूर्व कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा संचालित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों में पीडि़त लोगों को भड़का कर आतंकी संगठनों से जोड़ना चाहता है। दिसम्बर, 2013 में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने लश्कर-ए -तैयबा से जुड़े हरियाणा से दो संदिग्ध इमामों को गिरफ्तार किया था। इन्होंने मुजफ्फरनगर में दंगा पीडि़तों के शिविरों में जाकर उनसे संपर्क कर आतंकी संगठनों से उन्हें जोड़ने की कथित कोशिश की थी। इस बीच दंगा पीडि़तों ने दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ को उनके बारे में सूचना देकर पकड़वा दिया था। 31 दिसम्बर, 2013 को उनके बयान दिल्ली में नगर दंडाधिकारी के समक्ष सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज किए गए थे, जिन्हें साक्ष्य के तौर पर स्वीकृति मिल चुकी है।
हमारे देश में आतंकवाद से लड़ने के लिए कोई कड़ा कानून नहीं है, जिसका देश के दुश्मन आसानी से लाभ उठा रहे हैं। देश में आज भी अंग्रेजों द्वारा सन् 1861 व 1863 में निर्माण किए गए कानूनों का पालन हो रहा है, जबकि पूरी दुनिया में नये कानून बन चुके हैं। देश के पूर्व गृहमंत्री पी़  चिदम्बरम ने स्वीकार किया था कि देश में निचले स्तर पर तैनात पुलिसकर्मी बिना अत्याधुनिक हथियारों के आतंकवादी और नक्सलियों की गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। देश की आंतरिक सुरक्षा की चुनौती के बारे में उन्होंने कहा था कि पुलिसिया ढांचा पुराना हो चुका है, प्रशिक्षण की कमी, अत्याधुनिक हथियारों का अभाव और पुलिसकर्मियों को वेतन भी पर्याप्त नहीं मिलता है। उन्होंने कहा था कि सिपाही पूरे साल रोजाना 12 से 14 घंटे ड्यूटी पर तैनात रहते हैं, उनके साथ इससे बड़ा भेदभाव और क्या होगा? जबकि सिपाही प्रशासनिक व्यवस्था और न्याय का हिस्सा है। ये मामले सीधे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हैं। केन्द्र सरकार ने कुछ  संस्थान खोलकर इन कमियों को दूर करने का प्रयास किया है, जैसे कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर मानवाधिकार आयोग का गठन करके।
सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिसिया ढांचे में सुधार के लिए 22 नवम्बर, 2006 को एक आदेश पास किया था। हैरानी की बात यह है कि किसी भी राज्य ने उस आदेश को लागू नहीं किया। उदाहरण के लिए, राज्य स्तर पर एक समिति ऐसी होनी चाहिए, जो कि पुलिसकर्मियों के तबादले और तैनाती को देखे, जबकि दूसरी समिति पुलिस के खिलाफ शिकायतों का निस्तारण करे। कुछ राज्यों में ऐसी समितियों की व्यवस्था है तो कुछ मंे नहीं है।  जिन राज्यों में ऐसी समितियां कार्यरत भी हैं वे वास्तव में उस तरह से कार्य नहीं कर रही हैं, जैसी कि उनसे अपेक्षाएं हैं। सर्वोच्च न्यायालय लगातार समितियां नहीं बनाने वाले या फिर समिति बनाकर उन्हें पालन में नहीं लाने वाले राज्यों की खिंचाई करता रहता है। हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए इन सुझावों का पूरी तरह से समर्थन करते हैं।
देश में इतिहास और वर्तमान को देखते हुए एक नई परम्परा बन चुकी है कि समाज के किसी भी वर्ग की सरकार से कोई मांग होती है तो वह सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करता है। शांतिपूर्ण आंदोलन करना तो बीते दिनों की बात हो गई है, बंद, हिंसा, हत्या और तोड़फोड़ ने आज उसकी जगह ले ली है।
पुलिस, जिसका इन सब विषयों से कोई लेना-देना नहीं होता, वह प्रदर्शनकारियों की मांगों और सरकार के रुख के बीच में फंसकर रह जाती है। पुलिस समाज में सरकार और उसके प्रशासन का दिखाई देने वाला प्रतिरूप है, इसलिए सरकार पर वार करने का यह सबसे आसान साधन बन गया है। वास्तव में सरकार का विरोध पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच का विरोध बनकर रह गया है।
आजकल आम शिकायत यह रहती है कि पुलिस बल ने लूटपाट व आगजनी करने वाले दंगाइयों पर अत्यधिक बल का प्रयोग किया। कमरों मंे आराम से कुर्सी पर बैठकर पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाना आसान है। नुकसान को रोकने के लिए यदि पुलिस बल प्रयोग करती है या भीड़ पर गोली चलाकर काबू करती है, या फिर इस कार्रवाई में कभी कोई आतंकी मारा जाता है तो उसे पुलिस की अनावश्यक और अनुचित कार्रवाई करार दिया जाता है। यदि पुलिस सावधानीपूर्ण तरीके से कार्रवाई नहीं करती है तो उस पर निष्क्रियता का आरोप लगाया जाता है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी कहा है कि पुलिस को एक कसी रस्सी पर चलना पड़ता है। एक तरफ सत्तारूढ़ सरकार तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों के बीच पिसना पड़ता है। इन हालात में पुलिस की छवि धंुधली रहती है और कानून का पालन कराने वाली निष्पक्ष संस्था को नुकसान उठाना पड़ता है।
आज ऐसी धारणा बन चुकी है कि राजनेता पुलिस को निर्देश देकर उनके सभी कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। ये सभी हस्तक्षेप मौखिक रूप से होते हैं, जिन्हें कभी न्यायालय में और राजनेताओं द्वारा आयोग गठित होने पर साबित करना मुश्किल हो जाता है। राजनेता हमेशा पुलिस को मौखिक आदेश देते हैं न कि लिखित रूप में। ऐसे में जवाबदेही पुलिस और प्रशासन की बन जाती है न कि राजनेताओं की। प्रो. डेविड. एच. बेल्ली ने कहा है कि आपराधिक न्याय में दोहरी व्यवस्था का चलन हो गया है, एक कानून की और दूसरी राजनीति की। पुलिस के संबंध में जो भी निर्णय पुलिस अधिकारी कानून लागू करने के बारे में लेते हैं, उनके पुनरावलोकन का अधिकार जनप्रतिनिधियों को होता है। पुलिस अधिकारियों की स्वायत्तता को इस माध्यम से दबाया जाता है। साथ ही कानून एवं व्यवस्था में यही परेशानी उनके सामने नहीं आती और भी परेशानियां हैं जिनसे उन्हें निपटना पड़ता है।
इसके अलावा राजनीति से संबंधित लोगों का ध्यान अपराधी अपनी ओर आकर्षित करते हैं,  जिससे उन्हें कानूनी लाभ मिल सके। पूरे भारत में पुलिस अधिकारी कोई भी कदम उठाने से पहले उसके राजनीतिक परिणाम के बारे में सोचते हैं। उनमें अपने भविष्य, तैनाती और तबादले को लेकर एक घबराहट रहती है। लेकिन सभी जगह राजनेता बडे़ अधिकारियों द्वारा निचले अधिकारियों के उठाए गए कदमों के लिए उनकी व्यक्तिगत जवाबदेही की अपेक्षा रखते हैं। आखिरकार आधुनिक भारत में कानून के नियम, जिन पर न्याय व्यवस्था टिकी हुई है, राजनीति के सामने बौने साबित होते हैं।
उत्तर प्रदेश में करीब 50 फीसदी पुलिस बल की कमी है। यह प्रदेश सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित रहा है। अंतरराष्ट्रीय नियम के मुताबिक एक लाख की आबादी पर 240 पुलिसकर्मियों की जरूरत होती है, जबकि उत्तर प्रदेश में एक लाख की जनसंख्या पर सिर्फ 70 पुलिसकर्मी ही हैं। इनमें से 50 फीसदी पुलिसकर्मियों के पद रिक्त हैं। बिहार में तो एक लाख की आबादी पर 50 पुलिसकर्मी ही हैं, जिनमें से 30 प्रतिशत पद रिक्त हैं। 25 फीसदी पुलिसकर्मी सदैव प्रशिक्षण में होने चाहिए, जिससे उन्हें नये-नये कानूनों की जानकारी मिलती रहे। वास्तविकता यह है कि राज्यों में जो पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र हैं, उनमें सेवानिवृत्त पुलिसकर्मियों के बदले नए आए पुलिसकर्मियों को भी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था तक नहीं है।
भारत में पुलिस बल के दुरुपयोग का प्रत्यक्ष उदाहरण यासीन भटकल का प्रकरण है। उसके खिलाफ बिहार सरकार ने कोई भी कार्रवाई नहीं की, जबकि इंडियन मुजाहिदीन के तार पूरे बिहार में फैले हुए थे। पूरे राष्ट्र को उसके द्वारा आतंकी हमलों के बारे में जानकारी थी। यहां तक कि एक पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी आतंकी हमले से अछूते नहीं रहे, जबकि इस पार्टी के साथ बिहार में साझा सरकार थी। राज्य सरकार ने रैली में हुए विस्फोट पर या बोधगया में हुए विस्फोट के बारे में केन्द्र सरकार द्वारा कोई भी पूर्व सूचना होने से साफ मना कर दिया। हर राज्य स्वतंत्र इकाई के रूप मंे कार्य कर रहा है न कि संयुक्त रूप से। राष्ट्रीय मुद्दों की महत्ता राज्यों पर निर्भर करती है। इसका परिणाम यह है कि केन्द्र सरकार आतंकवाद पर जिम्मेवारी से मुंह फेर लेती है और उसे राज्य का मुद्दा बताती रहती है। कोई भी राज्य भारत की सुरक्षा और अखंडता से ऊपर नहीं है। सत्ता के लालच में वोट बैंक की राजनीति कर राजनेता ऐसा गंदा खेल खेलते हैं।
मजहब, जाति के नाम पर ऐसे लोग सत्ता में आ जाते हैं और अपने हितों को पूरा करते हैं। सर विंस्टन चर्चिल ने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक का विरोध करते हुए अगस्त, 1947 में कहा था कि सत्ता दुष्टों और गलत लोगों के हाथों में चली जाएगी। सभी नेता कम क्षमता वाले होंगे। उनकी मीठी जुबान होगी और वे आपस में सत्ता के लिए झगडे़ंगे। साथ ही देश राजनीतिक विवाद में उलझ जाएंगे। एक दिन ऐसा आएगा कि जब हवा और पानी पर भी कर लगेगा। उन्होंने 67 वर्ष पहले ऐसा लिखा था। मेरा कहना है कि हमेशा राष्ट्र के प्रति वफादार रहें, पर सरकार के प्रति तब वफादार रहें कि जब वह इसके योग्य हो।  (लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं)
ज्यादातर राज्यों के पास पुलिस बल संख्या का अभाव है जैसा कि निम्नलिखित सरकारी आंकड़े बताते हैं। देश के 5 शीर्ष राज्यों में बड़ी संख्या में पुलिस बल की कमी है। 1 जनवरी, 2012 तक के आंकड़ों के अनुसार:

राज्य    राज्य में    वास्तविक    अंतर    प्रति एक लाख    अंतर
    पुलिसकर्मी    पुलिस बल        की आबादी
                स्वीकृत/वास्तविक
उत्तर प्रदेश    368,618    173,341    195,277    163/71    92   
महाराष्ट्र    181,803    134,696    47,107    149/111    38   
गुजरात    103,545    57,889    45,656    140/89    51   
आंध्र प्रदेश    132,712    89,325    43,887    135/89    46   
बिहार    87,314    67,964    25,350    70/55    15   
देशभर में स्थिति    2,124,596    1,585,117    539,479    140/102    38
वर्ष    सुरक्षा मुहैया    स्वीकृति दी    वास्तविक    अंतर
            तैनाती
2011    14,842    32,476    47,557    15,081   
2010    16,788    28,298    50,059    21,761   
(स्रोत:  पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो)
 

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