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चीन के प्रति अपनी कूटनीति में भारत लगातार विफल रहा है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा उत्तरी क्षेत्र में राजनायिक रेखा और पूर्वी क्षेत्र में मैकमोहन रेखा को भारत की सीमा रेखा के रूप में निर्धारित किया गया था और उस पर जोर न देकर भारतीय राजनायिक राष्ट्र के प्रति एक बड़ा अपराध कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद भारत के आधिकारिक मानचित्र में इन दोनों रेखाओं को मान्यता दी गई है।
चीन ने उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों में हजारों वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र पर जबरन कब्जा कर रखा है। इसमें 5,800 वर्ग किलोमीटर का गिलगित-बाल्टिस्तान का वह क्षेत्र भी शामिल है, जिसे पाकिस्तान ने भारत से पहले ही छीन लिया था, और बाद में उसे चीन को सौंप दिया था। कुल मिलाकर चीन का क्षेत्र लद्दाख के एक बड़े हिस्से के अलावा, गिलगित-बाल्टिस्तान के 20,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक पर काबिज है, जिसमें शक्सगाम, रस्काम और आगिल घाटियां शामिल हैं। यह आश्चर्य की बात है कि भारत जहां जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्जे को लेकर पाकिस्तान के साथ निरंतर बातचीत करता है, वहीं उसने इसी राज्य के जिन हिस्सों पर चीन ने अवैध कब्जा कर रखा है, उनकी वापसी के लिए चीन के साथ बातचीत का कोई कदम नहीं उठाता है।
हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बीजिंग यात्रा के दौरान हस्ताक्षरित सीमा विकास सहयोग समझौता (बीडीसीए) भारतीय कूटनीति के ताबूत में आखिरी कील है। सबसे पहली बात यह है कि यह समझौता स्वीकार करता है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर कोई साझी समझ नहीं है। वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर भिन्न विचारों की इस खुली स्वीकार्यता के रहते दोनों पक्षों के बीच सीमा सहयोग कैसे किया जा सकता है? इससे इस समझौते का खोखलापन उजागर होता है।
समझौते में कहा गया है कि दोनों पक्ष अपने संबंधित कानूनों और प्रासंगिक द्विपक्षीय समझौतों के आधार पर सीमा रक्षा सहयोग करेंगे। इससे पहले भी भारत सीमा मुद्दों पर चीन के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुका है, लेकिन चीन कई बार इन समझौतों का उल्लंघन कर चुका है। इस बात की क्या गारंटी है कि चीन इस नए समझौते का उल्लंघन नहीं करेगा? इसके अलावा बीडीसीए में कहा गया है कि दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हैं कि वे उन इलाकों में, जहां एलएसी पर कोई साझा समझ नहीं है, दूसरे पक्ष के गश्ती दलों का पीछा नहीं करेंगे। चीनियों का हमेशा मानना रहा है कि वे भारतीय क्षेत्र में घुस सकते हैं, जैसा कि उन्होंने हाल ही में चुमार, डेपसांग और दौलत बेग ओल्डी क्षेत्रों में हाल ही में किया था।
ऐसी संदिग्ध स्थितियों में बीडीसीए कहता है कि किसी भी पक्ष को दूसरे पक्ष से स्पष्टीकरण मांगने का अधिकार है और स्पष्टीकरण और उत्तरों का आदान-प्रदान स्थापित तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए।
भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ कुछ क्षेत्रों में गश्त रोक दी है। कई स्थानों पर पर्याप्त बुनियादी ढांचा और सीमा चौकियां स्थापित नहीं की गई हैं। इससे चीनी पक्ष को भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने का एक अतिरिक्त लाभ मिलता है और उधर बीडीसीए के तहत भारत को चीनी गश्ती दलों का पीछा करने की मनाही है। जब-जब चीनी घुसपैठ होती है, हर बार हमारे नेताओं को उससे इनकार करने की आदत हो गई है और आगे बढ़कर वह उसे यह कह कर ढांपने की कोशिश करते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा के बारे में भिन्न धारणाएं हैं।
तथ्य यह है कि भारत अभी तक सुन त्सु की चीनी चाल को समझ नहीं सका है। वह यह कि – युद्घ की सर्वोच्च कला बिना लड़े दुश्मन को परास्त करना है। चीन यह खेल 1962 के बाद से लगातार इस खेल रहा है और भारत सैन्य क्षमता होने के बावजूद इसका माकूल जवाब देने में सक्षम नहीं रहा है। वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने ठीक ही कहा था कि यदि भारतीय वायुसेना को 1962 के युद्घ में सीधे शामिल किया गया होता, तो चीनियों को वापस सीमा से परे धकेल दिया गया होता। भारतीय वायुसेना कारगिल सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को वापस धकेलने में सफल रही थी।
चीन के सुन त्सु हथकंडे के उत्तर में वर्तमान भारतीय नेता यही रट लगाए हुए हैं कि भारत और चीन के बीच सीमा अपरिभाषित है। यह बात इस तथ्य के ठीक विपरीत है कि आजादी के बाद से ही भारत सरकार अधिकृत मानचित्र प्रकाशित कर रही है, जिनमें पर चीन के साथ स्पष्ट रूप से परिभाषित सीमाएं हैं, जो औपनिवेशिक युग के दौरान खींची गई रेखाओं पर आधारित हैं।
1865 में ब्रिटिश शासकों को रूसी जारशाही और चीनी साम्राज्य की विस्तारवादी योजनाओं का अहसास था, और इस कारण उन्होंने भारत की उत्तरी सीमा लद्दाख क्षेत्र में तिब्बत के साथ निर्धारित की थी, जो कुएन लुन (कुनलुन) पहाड़ों से आगे खोतान तक थीं, जिनमें अक्साई चिन रेगिस्तान शामिल था और जो दक्षिण में डेमचोक को उत्तर में 18,000 फुट की ऊंचाई पर काराकोरम दर्रे से जोड़ता था। सर्वे अफ इंडिया के डब्लू़ एच. जॉनसन के नाम पर इसे जॉनसन रेखा कहा जाता है। इसके तहत लेह से लगभग 400 किलोमीटर दूर काराकश घाटी में शहीदुल्ला शामिल था।
इस सीमा रेखा से चीनी पक्ष को सहमत कराने की दृष्टि से तत्कालीन वायसराय लॉर्ड जार्ज कर्जन ने 1899 में मॅककार्टिनी-मॅकडोनल रेखा के जरिए अक्साई चिन का बहुत बड़ा हिस्सा बाहर करने का प्रस्ताव देने की कोशिश की, लेकिन चीनी पक्ष ने इससे इनकार कर दिया। रोचक बात यह है कि यह रेखा मोटे तौर पर वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ और चीनी दावों की रेखा से मेल खाती है। लेकिन अक्साई चिन के रणनीतिक महत्व को समझते हुए और सोवियत समर्थक सेना प्रमुख शेंग शिह-त्साई की सिनकियांग सरकार की आक्रामक योजनाओं का आभास होने पर 1940-41 में ब्रिटिश सरकार ने पुनर्विचार किया और वापस जॉनसन रेखा पर जोर दिया।
उस समय भारत के साथ जिस तिब्बत की सीमाएं लगती थीं, तब वह चीनी साम्राज्य से स्वतंत्र था, लिहाजा चीन की सहमति आवश्यक नहीं थी। ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत को एक बफर राज्य घोषित कर दिया। इस प्रकार जॉनसन रेखा भारत और तिब्बत के बीच उत्तरी सीमा बन गई। 1907 में ब्रिटेन और रूस में तिब्बत को अलग-थलग पड़े रहने की उस अवस्था में छोड़ देने का समझौता हुआ, जिससे बाहर निकलने का उसने हाल तक में कोई इरादा नहीं जताया था।
हालांकि जम्मू और कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य था, लेकिन 1846 की अमृतसर की संधि के तहत इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अंग्रेजों को दे दी गई थी। इस संधि के तहत ब्रिटेन जम्मू-कश्मीर की उत्तरी और पूर्वी सीमाओं के लिए जिम्मेदार होता था, जो एक ओर सिनकियांग के साथ लगती थीं और दूसरी ओर तिब्बत के साथ।
1826 में असम पर, मुख्यत: ब्रह्मपुत्र घाटी पर, कब्जा करने के बाद अंग्रेजों ने 1886 में पहाडि़यों पर तब नियंत्रण कर लिया, जब एक अभियान आज के अरुणाचल प्रदेश के दूसरे छोर तक लोहित घाटी गया। लेकिन भूटान के ठीक पूर्व में, यानी इस क्षेत्र के पश्चिमी छोर में तिब्बतियों के नियंत्रण वाला एक दर्रा था, जिसे त्वांग दर्रा कहते थे, जो भूटान के पूर्व से शुरु होकर इसकी दक्षिणी सीमा तक था और पूर्व में बोमडिला के ऐन पश्चिम तक जाता था। अंग्रेज इसे एक स्वायत्त देश मानते थे।
1910 के दशक के मध्य से चीन ने तिब्बत पर अपना अधिकार जताना शुरू कर दिया। 1911 में, चीन की विस्तारवादी नीति को एक कारण बताते हुए वायसराय हाडिंर्ग ने एक मजबूत सामरिक सीमा के निर्माण का आदेश दिया। सितम्बर 1911 में अंग्रेजों ने फैसला किया कि पूरे वनवासी क्षेत्र और त्वांग दर्रे को शामिल करते हुए बाहरी रेखा को तिब्बत-और-चीन के साथ सीमा रेखा होना चाहिए। अंग्रेजों ने 1913-14 में शिमला में एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें चीनियों ने अनिच्छा से भाग लिया, लेकिन अपने चीनी संप्रभु के साथ संघर्ष में शामिल तिब्बती अधिकारी उसमें काफी उत्सुकता से शामिल हुए थे। ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व तत्कालीन विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन ने किया। इस सम्मेलन के बाद निर्धारित की गई सीमा रेखा को मैकमोहन रेखा कहा गया, जो तिब्बती पठार के किनारे तक जाती थी। यह एक अर्थ में एक जातीय सीमा थी क्योंकि तवांग दर्रे को छोड़कर, यह क्षेत्र गैर-तिब्बती चरित्र का था। सर्वे ऑफ इंडिया ने पहली बार मैकमोहन रेखा को भारत की आधिकारिक सीमा के रूप में दिखाया। हालांकि तिब्बतियों ने तवांग दर्रे के विलय को स्वीकार नहीं किया, लेकिन बिना शोर-शराबे के मैकमोहन रेखा के बाकी सीमांकन को स्वीकार कर लिया। लेकिन चीनियों ने जल्द ही शिमला सम्मेलन और उसके साथ-साथ मैकमोहन रेखा को नकार दिया।
देश के लिए यह एक दुखद नियति है कि आजादी के बाद हम उस रणनीतिक विरासत को संभालने में सक्षम नहीं हो सके, जो तत्कालीन ब्रिटिश शासकों ने हमें सौंपी थी। यह सही समय है कि राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के हित में, सरकार और राजनयिक जॉनसन रेखा और मैकमोहन रेखा दोनों पर जोर दें। अक्साई चिन पर चीनी कब्जा एक रणनीतिक कदम था, जो संसाधनों की भविष्य की आवश्यकताओं को देखकर उठाया गया था। यही स्थिति पाकिस्तान को परमाणु सहायता देने के बदले में शक्सगाम घाटी को अपने नियंत्रण में लेने और अब गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में अपने रणनीतिक पदचिन्ह छोड़ने में शामिल है।
1963 में पाकिस्तान ने 5,800 वर्ग किलोमीटर से अधिक का गिलगित-बाल्टिस्तान का इलाका (जो उसने भारत से छीना था) स्थानीय लोगों की सहमति के बिना चीन को सौंप दिया। पाकिस्तानी प्रशासन ने हुन्जा के शासक को प्रताड़ना और कैद की धमकी भी दी। हुन्जा के शासक का दावा आगिल दर्रे तक के क्षेत्र पर था। फ्रंटियर सेटलमेंट प्लान के तहत तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो और तत्कालीन चीनी विदेश मंत्री चेन यी ने 2 मार्च 1963 को बीजिंग में एक अस्थायी समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत गिलगित-बाल्टिस्तान के विवादित क्षेत्र के शक्सगाम, रस्काम, शिमशाल और आगिल घाटियों के क्षेत्र पर चीन को कब्जा करने की अनुमति दे दी गई। चीन पहले ही पूर्व की दिशा में जाने वाली फीडर सड़कों का निर्माण कर चुका था, जो शक्सगाम होते हुए जाती थीं और गिलगित को होतान से जोड़ती थीं। होतान तिब्बत-झिंजियांग राजमार्ग और होतान-गोलमद राजमार्ग के चौराहे पर पड़ने वाला एक महत्वपूर्ण चीनी सैन्य मुख्यालय है। पूर्वी तुर्कमेनिस्तान की दक्षिणी धुरी के साथ-साथ बढ़ती यह फीडर रोड गिलगित को अक्साई चिन से जोड़ती है और इससे उनकी दूरी 800 से अधिक मील कम हो जाती है। गिलगित-बाल्टिस्तान की उत्तरी घाटियों पर चीन के नियंत्रण से उसे उत्तरी-पश्चिमी तिब्बत के सैनिक और औद्योगिक अड्डों को पाकिस्तान के ग्वाडर बंदरगाह और ईरान के बंदरगाहों से भी जोड़ने में मदद मिलती है। चीन 18 अरब डॉलर का अतिरिक्त निवेश करके गिलगित-बाल्टिस्तान में 200 किलोमीटर लंबी एक सुरंग का निर्माण कर रहा है, जो काश्गर और बलूचिस्तान में ग्वाडर बंदरगाह के बीच रेल सेवा चलाने में मददगार रहेगी। इस आशय के एक समझौते पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा हस्ताक्षर किए गए हैं। नवाज शरीफ काराकोरम राजमार्ग के साथ-साथ चीनी औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने और काराकोरम पहाड़ों के आर-पार फाइबर अप्टिक बिछाने के लिए भी सहमत हो गए हैं।
सितम्बर 1951 में तिब्बत पर कब्जा करने के जल्द ही बाद चीन ने पक्की सड़कों के निर्माण को प्राथमिकता दी- चाम्डो-ल्हासा, क्विंघाई-ल्हासा, और तिब्बत-झिंजियांग राजमार्ग जो अक्साई चिन से होकर गुजर रहे हैं और पश्चिमी तिब्बत को पूर्वी तुर्कमेनिस्तान से जोड़ते हैं।
1962 के युद्घ (चीनी आक्रमण) की आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व नियोजित तिब्बत-सिनकियांग सड़क के लिए प्रारंभिक सर्वेक्षण का कार्य 1950 के दशक के मध्य में पूरा हो चुका था, चीन ने 1955 की गर्मियों में एक पक्की सड़क का निर्माण शुरू कर दिया था। यह राजमार्ग पर उत्तर-पूर्व लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र में 160 किलोमीटर पार तक जाता था। 1957 की दूसरी छमाही में इसे पूरा कर लिया गया था। राजमार्ग के साथ तिब्बत को जोड़ने वाली सप्लाई सड़कें भी बना दी गई थीं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भ्रम में थे और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की चीनी रटंत से प्रभावित हो चुके थे, और इस कारण वह चीनी षड़यंत्र को समझ नहीं सके थे। तिब्बत पर दुराचार को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के समर्थन के बूते समय रहते रोका जा सकता था और सीमा पर पर्याप्त बाहरी चौकियां स्थापित की जा सकती थीं। भारत सदियों से मध्य एशिया और विशेष रूप से काश्गर और यारकंद के साथ व्यापार कर रहा था। जोली-ला दर्रा भारत के नियंत्रण में था और साथ ही और काराकोरम दर्रा और लद्दाख व्यापारिक आवाजाही के लिए खुले थे। लेकिन नेहरू ने काश्गर में भारतीय वाणिज्य दूतावास बंद करने का फैसला लिया, सिर्फ इसलिए कि चीन ने आपत्ति उठाई थी कि डेमचोक ही लद्दाख और पश्चिमी तिब्बत के बीच व्यापारियों के लिए सीमा चौकी है। चीन अब हिन्द महासागर में म्यांमार, श्रीलंका और पाकिस्तान में अपनी उपस्थिति (स्ट्रिंग अफ पर्ल्स) के जरिए भारत की घेराबंदी कर रहा है। नेपाल भी कई बार हिमालय पार के अपने उत्तरी पड़ोसी की धुनों पर नृत्य कर रहा है और चीन भूटान में डोकलाम पठार पर अपना दावा कर रहा है और उसका इरादा भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को मुख्य भूमि से जोड़ने वाले गलियारे (चिकननेक) को काटने का है। इसके विपरीत भारत ने फिलीपींस और वियतनाम द्वारा किए जा रहे अनुकूल प्रस्तावों के बावजूद पूर्वी और दक्षिणी चीनी समुद्र में चीन को घेरने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है। यहां भारत की उपस्थिति कुछ तेल अन्वेषण ब्लॉक्स तक सीमित है। चीन के आपत्ति उठाने पर कुछ तेल अन्वेषण के कुछ कार्यक्रम खटाई में पड़ गए हैं।
समय आ गया है कि भारत सुस्ती छोड़े और अपनी क्षेत्रीय अखंडता की खातिर चीन पर सख्त तेवर अपनाए। उसे दीवार पर लिखी इबारत पढ़ लेनी चाहिए। 1840-42 के अफीम युद्घ में अंग्रेजों के हाथों चीन साम्राज्य को मिले अपमान का बदला लेने और खोए गए इलाकों को दोबारा करने के इरादे से चीन की सरकार का समर्थक अखबार- में प्रकाशित एक लेख में अगले 50 वषोंर् में चीन की छह युद्घ रणनीतियों का उल्लेख किया गया है। चीन सरकार ने अभी तक इस लेख में कही गई बातों का खण्डन नहीं किया है।
इस लेख के अनुसार प्रथम युद्घ ताइवान के एकीकरण के लिए वर्ष 2020-25 में लड़ा जाएगा, दूसरा युद्घ स्पार्टले द्वीप पर पुनर्विजय के लिए 2025-30 में होगा, तीसरा युद्घ दक्षिणी तिब्बत (भारत में अरुणाचल प्रदेश) में पुनर्विजय के लिए 2035-40 में लड़ा जाएगा, चौथा युद्घ दिआओयू (सेनकाकू) और र्याकू द्वीपों पर पुनर्विजय के लिए 2040-45 में होगा, पांचवां युद्घ 2045-50 में बाहरी मंगोलिया के एकीकरण के लिए होगा और छठां युद्घ रूस के हाथों खोई गई भूमि वापस लेने के लिए 2055-60 में लड़ा जाएगा।
दक्षिणी तिब्बत (अरुणाचल प्रदेश) को वापस प्राप्त करने के लिए चीन के भारत के साथ प्रस्तावित युद्घ के संबंध में लेख कहता है- चीन लंबे समय से भारत का काल्पनिक दुश्मन रहा है। भारत का सैनिक उद्देश्य चीन से आगे निकलना है। भारत का इरादा इस लक्ष्य को आत्मविकास करके और अमरीका, रूस और यूरोप से आयात करके उन्नत सैन्य प्रौद्योगिकियों और हथियारों को हासिल करके, और अपने आर्थिक और सैन्य में विकास में चीन का बारीकी से पीछा करते हुए पूरा करने का है। लेख कहता है चीन के लिए सबसे अच्छी रणनीति भारत के विघटन को भड़काना है। कई देशों में विभाजित होने के बाद भारत में चीन का सामना करने की शक्ति नहीं रहेगी। लेख में कहा गया है- निश्चित रूप से ऐसी योजना विफल हो सकती है। लेकिन चीन को कम से कम असम प्रांत और एक बार जीते जा चुके सिक्किम को स्वतंत्रता हासिल करने के लिए भड़काने का सर्वश्रेष्ठ प्रयास जरूर करना चाहिए ताकि भारत की शक्ति को कमजोर किया जा सके। यही सबसे अच्छी रणनीति है।
दूसरे सबसे अच्छे विकल्प के रूप में लेख में कहा गया है कि पाकिस्तान को उन्नत हथियार निर्यात किए जाएं, 2035 में दक्षिणी कश्मीर क्षेत्र को जीतने और इसका एकीकरण करने के लिए पाकिस्तान की मदद की जाए। जब भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने में व्यस्त हों, तब चीन को एक तीव्र हमला करके दक्षिणी तिब्बत पर विजय प्राप्त कर लेना चाहिए, जिस पर कभी भारत का नियंत्रण था। इस प्रकार इबारत दीवार पर स्पष्ट लिखी हुई है। भारत को चीन को गंभीरता से लेना चाहिए।
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