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लोकतंत्र भीड़ को बरगलाने का नाम है या फिर देश को उलझनों में धकेलने और चुपचाप तमाशा देखने के हम सब आदी हो चुके हैं? हाल के दो उदाहरण कुछ ऐसा ही चित्र प्रस्तुत करते हैं। पहला, दिल्ली की राज्य सत्ता द्वारा पहले पूरे पुलिसबल को दागी बताना और फिर पुलिसकर्मियों को उनके ही मुखिया के विरुद्ध उकसाना। दूसरा, राजकाज के हमजोलियों द्वारा पहले सूबे के मुख्यमंत्री को अराजक बताना और फिर केंद्रीय गृहमंत्री पर लगे गंभीर आरोपों को पचाते हुए उसी अराजक सरकार को समर्थन देना।
गणतंत्र दिवस से पहले राजपथ की यही झांकियां पूरे देश ने देखीं। आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रीय पर्व के मौके पर भी राष्ट्रहित की बात राजधानी के अराजक बवंडरों में खो जाती है। दिल्ली सोचती क्या है, करती क्या है देश के लिए समझना आसान नहीं है। कोहरे की पर्तों और हड्डियां सुन्न करती हवाओं में तो और भी नहीं। यहां अहम मुद्दे धुंधला जाते हैं, हर बहस ठंडी पड़ जाती है। 7 रेसकोर्स से राजपथ तक चमकता है तो सिर्फ आधा-अधूरा सच।
लेकिन सुर्खियों और टीआरपी के व्यापार से अलग जिम्मेदारी ही वह तत्व है जिसके कारण मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। राष्ट्रवाद जहां शाश्वत स्वर न हो वह पत्रकारिता किसके हित में है? सो, इसी जिम्मेदारी को समझते हुए, राजपथ पर सैन्यबल के उत्साही प्रदर्शन और सतरंगी झांकियों के सजने से ठीक एक माह पहले से पाञ्चजन्य-आर्गनाइजर ने विशेष तैयारी शुरू की। राष्ट्रीय सुरक्षा के हर पहलू पर पैनी नजर रखने वाले विशेषज्ञ, सेवानिवृत्त वरिष्ठ सैन्य अधिकारी और अनुभवी पत्रकार 26 दिसंबर के दिन एक साथ बैठे। दिनभर चला देश की सुरक्षा पर गहन, जीवंत संवाद।
ह्यसुरक्षा पर संवादह्ण नाम से आयोजित इस कार्यक्रम में चुनौतियों के चित्र थे, सवालों की बौछार और राष्ट्रशक्ति को संकल्पित-संयोजित कर आगे बढ़ने की राह सुझाते ठोस जवाब।
देश रक्षा शब्द आते ही मन में सेना और सीमाओं का चित्र उभरता है परंतु क्या यह पूरी तस्वीर है? क्या हर लड़ाई कुछ चेतावनियों और चुनौतियों के साथ शुरू नहीं होती। बिना आंतरिक सुरक्षा के आखिर कोई देश कब तक खड़ा रह सकता है? आज सूचना तकनीक की दुनिया में प्रत्यक्ष शत्रु आभासी कवच ओढ़े, गोपनीय-संवेदनशील सूचनाओं में सेंध लगा रहे हैं। दुनिया भर में नकारा-फटकारा जा चुका वामपंथ शहरों में सिविल सोसाइटी के सौम्य मुखौटे में समर्थन जुटा रहा है तो दुर्गम वनक्षेत्रों में नक्सलवादी लाल-बेताल के रूप में खड़ा है।
चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ युद्ध नहीं है परंतु इन देशों से लगते राज्य अलग तरह का असंतोष-उपद्रव और अलगाव झेल रहे हैं। यदि जम्मू-कश्मीर में सुन्नी हितों को सबसे ऊपर रखने की मानसिकता पूरे देश को गुस्सा दिलाती है और उत्तरपूर्वी राज्यों में राष्ट्रभक्त जनता उपेक्षा का उलाहना देकर नाराजगी जताती है तो यह आक्रोश अकारण नहीं है।
अच्छा पढ़-लिखकर अफसर बनने का सपना संजोने वाले उत्तर पूर्वी राज्यों के कई युवा बेरोजगारी से त्रस्त होकर नशीली दवाओं और हथियारों की तस्करी के धंधे में जा पड़े हैं। जो समाज सदैव देश की सेवा को तत्पर था, आज वहां लोग गिरोहबंदी में एक-दूसरे पर बंदूकें ताने बैठे हैं। बंगलादेशी घुसपैठ से असम त्रस्त है और संदिग्ध नागरिकता वालों की पहुंच सत्ता तक हो चुकी है। अरुणाचल की शांति को चीनी ड्रैगन ललकारता है और दिल्ली सोती रहती है। वैसे, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से राज्य और केंद्र की सत्ता का सुख भोगती वंशवादी पार्टी ने 67 वर्ष में इन राज्यों के विकास और यहां के समाज के राष्ट्रीय धारा में जुड़ाव के लिए कौन से मील के पत्थर लांघे हैं!
राष्ट्रवादी पत्रकारिता के सरोकार कैलेंडर का मुंह देखकर तय नहीं होते इसलिए गणतंत्र दिवस से पहले हमने मुद्दे चुने और हर ऐसे बिन्दु पर हम तब तक विमर्श उठाएंगे जब तक कि जनमानस की उलझी गुत्थियां सुलझ नहीं जातीं। बाहर देखना सरल है, भीतर झांकना मुश्किल परंतु सेंध भीतर लगी है। आइए देखें आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर कहां, कैसी कितनी लड़ाई छिड़ी है और इससे कैसे जीता जाएगा।
राष्ट्र सर्वोपरि का भाव मन में रख जनचेतना जगाती पत्रकारिता का यही तो संकल्प है।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
(हितेश शंकर)
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