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प्रांजित अग्रवाल
हाल ही में चीन की न्यूज एजेंसी शिन्हुआ ने चीन के विदेश मंत्री के बयान को प्रमुखता देते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश की नींव चीनी अधिकृत तिब्बत के तीन हिस्सों मोयूल, ओयूल और लोवर स्याउल को मिलाकर रखी गई है। जो वर्तमान में भारत के गैरकानूनी कब्जे में है। ये वे हिस्से हैं जो अंग्रेजी राज के समय गलत तरीके से भारत और चीन के बीच खींची गई मैकमोहन लाइन के ऊपर हैं। इस हिस्से पर हमेशा से चीन का अधिकार रहा है। चीन का कहना है कि अरुणाचल प्रदेश के 84 हजार वर्ग किलोमीटर में से 65 हजार वर्ग किलोमीटर दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा है, जो कानूनी तौर पर चीन का हिस्सा है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1914 में ब्रिटिश शासनकाल के समय असम के कुछ वनवासी बहुल इलाकों को दरांग और लखीमपुर से अलग कर दिया गया। ताकि नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर ट्रैक (एनईएफटी) बनाया जा सके। 1947 में भारत की आजादी के बाद एनईएफटी असम का हिस्सा बन गया। वर्ष 1951 में एनईएफटी का नाम बदलकर एनईएफए (नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) कर दिया गया। वर्ष 1972 तक एनईएफए संवैधानिक रूप से असम का हिस्सा रहा। वहां का प्रशाासन सीधे तौर पर राष्ट्रपति ने असम के राज्यपाल के माध्यम से संभाला। यानी एक तरह से कहा जाए तो वहां पर राष्ट्रपति शासन रहा।
21 जनवरी 1972 को एनईएफए को केंद्र शासित प्रदेश अरुणाचल प्रदेश घोषित कर दिया गया। 20 फरवरी 1987 को अरुणाचल प्रदेश को भारत के पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और वह भारत का 24 वां राज्य बन गया। इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पिछले 100 वर्षों के इतिहास को उठाकर देखा जाए तो इस क्षेत्र पर चीन का अधिकार होने का कोई प्रमाण नहीं है। 1826 में जब असम में ब्रिटिश राज्य की शुरुआत हुई, उससे पहले का इस क्षेत्र का कोई स्पष्ट ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं है। हालांकि इस क्षेत्र का उल्लेख हमारे धर्म ग्रंथों जैसे कल्कि पुराण और महाभारत में किया गया है। माना जाता है कि ह्यप्रभु पर्वतराजह्ण हैं जहां भगवान परशुराम और महामुनि वेदव्यास ने यहां तप किया। राजा भीष्मका ने अपना राज्य स्थापित किया और भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मणी से विवाह किया था। अरुणाचल प्रदेश के इतिहास को जानने वाले बताते हैं कि वहां की मोनपा और शेरदुक्पन जनजातियां उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में बसी हुई थी। मोनपा जनजाति का राज्य बड़ा समृद्ध था। उनका शासन 500 ईर्सा पूर्व से 600 ई. तक रहा। इसके बाद उत्तरी क्षेत्र तिब्बत और भूटान के अंतर्गत आ गया। इसके बाद 1228 से 1826 ई. तक असम पर अहोम का शासन रहा। अहोम राजाओं के इतिहास के अनुसार तिब्बती राज्य के प्रभाव के कुछ क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो विशेषकर म्यांमार सीमा क्षेत्र के पूर्वी इलाके को छोड़कर पूरे राज्य पर अहोमों का एकछत्र राज्य स्थापित था। जब तक कि अंग्रेज असम में नहीं पहुंचे। भारत की आजादी के बाद अरुणाचल की बहुत सी जनजातियों के अस्तित्व का पता चला। 400 साल पुराने तवांग मठ के पास मौजूद कुछ ऐतिहासिक तत्थ इस क्षेत्र के कुछ हिस्से पर तिब्बती प्रभाव के बारे में जानकारी देते हैं। 17 वीं शताब्दी में तवांग में छठे दलाई लामा सांग्यांग ग्यात्सो का जन्म हुआ था। इसलिए तवांग बौद्धों के लिए एक पवित्र जगह है। इस क्षेत्र में बौद्ध पंथ को मानने वाले लोगों की बड़ी संख्या है ।
अरुणाचल प्रदेश में चीन की रुचि तब हुई जब 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला करके वहां अपना अधिकार जमा लिया। इससे पहले भारत तिब्बत सीमा पर स्थित मैकमोहन रेखा पर चीन की तरफ से कभी कोई सवाल नहीं उठाए गए। वर्ष 1914 में अंग्रेजों के शासनकाल में शिमला में एक सम्मेलन हुआ था। जिसमें भारत में अंग्रेजी राज के प्रतिनिधियों की चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों के साथ बैठक हुई थी। जिसमें तिब्बत की बाहरी और भीतरी सीमाओं व अंग्र्रेज राज की सीमाओं को परिभाषित करने को लेकर बातचीत हुई थी। अंग्रेज राज के प्रशासिनक अधिकारी मैकमोहन ने भारत और तिब्बत के बीच 890 किलोमीटर में मैकमोहन रेखा का रेखांकित करते हुए बाहरी तिब्बत और भारत में अंग्रेज राज की सीमाओं को तय किया था। एक नक्शे पर खींची गई इस इस सीमा रेखा को चीन ने अपनी स्वीकृति दी थी, लेकिन इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। जबकि भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए थे। 30 मई 1919 को चीन के विदेश मंत्री ने अंग्रेजों को एक ज्ञापन दिया। जिसमें कहा गया था कि चीन को केवल बाहरी और आंतरिक रूप से चीन और तिब्बत के बीच खींची गई सीमा रेखा पर आपत्ति है। उनका कहना था कि तिब्बत के इस हिस्से को चीन से जोड़ा जाना चाहिए। उसे भारत और चीन के बीच बांधी गई सीमा रेखा पर कोई आपत्ति नहीं है। शिन्हुआ क्रांति की वजह से जब 1911-12 में चीन में क्विंग राजवंश की सत्ता समाप्त हुई तब एक बार फिर से 13वें दलाई लामा ने तिब्बत की सम्प्रभुता की घोषणा करते हुए कहा कि तिब्बत बौद्ध पंथ को मानने वाला एक अलग राष्ट्र है, जिसे अपनी विदेश नीतियों के बारे में फैसले लेने का पूरा अधिकार है।
इस तरह उन्होंने 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को स्वीकार करते हुए तवांग को भारत को सौंप दिया। जो आज अरुणाचल प्रदेश का हिस्सा है। वर्ष 1959 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि पूर्वी क्षेत्र में खींची गई सीमा रेखा मैकमोहन रेखा से मेल खाती है। इसके अलावा 1996 में चीन और भारत के बीच हुए द्विपक्षीय समझौते में भी एलएसी (लाइन ऑफ एक्चूअल कंट्रोल) को मान्यता दी गई। वर्ष 2008 में ब्रिटिश सरकार ने एक बयान दिया जिसमें कहा गया कि िऔपनिवेशिक युग में किया गया शिमला सम्मेलन उस समय की राजनीति के अनुसार उठाया गया एक कदम था। इसलिए इसे खारिज किया जाना चाहिए। आज के युग में ब्रिटिश शासन काल के दौरान खींची गई रेखाओं को मानने का कोई औचित्य नहीं है। आज के संदर्भ में मैकमोहन लाइन की वैधता की बजाए चीन के कब्जे वाले तिब्बत में चीन द्वारा किए जा रहे मानव अधिकारों के उल्लघंन, वहां के लोगों की धार्मिक और राजनैतिक स्वतंत्रता का निरंतर दमन किए जाने पर सवाल खड़ा करना ज्यादा प्रासंगिक होगा।
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