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जम्मू-कश्मीर में घाटे का गणतंत्र

by
Jan 25, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 25 Jan 2014 17:20:54

.आशुतोष भटनागर
देश में पिछला एक वर्ष भारतीय गणतंत्र की यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है। निर्भया काण्ड से उपजे गुस्से ने सत्ता को जनता के सामने नतमस्तक होने के लिये विवश किया वहीं संसद को इस संबंध में आनन-फानन में विधेयक पारित करना पड़ा।
अन्ना हजारे के आन्दोलन के खाते में केवल जनलोकपाल विधेयक ही नहीं बल्कि नौजवानों की पूरी पीढ़ी में भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरने का जज्बा पैदा करने का भी श्रेय है। उस आन्दोलन की अनचाही संतान आम आदमी पार्टी भी दिल्ली में सरकार बना कर एक वैकल्पिक राजनीति के उभार का दावा कर रही है। यह  विचार कितनी दूर और कितनी देर तक जी सकेगा यह तो समय के गर्भ में है लेकिन इसकी जड़ में भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकारों के संरक्षण का आश्वासन महत्वपूर्ण है जो केजरीवाल और मोदी जैसे लोगों को स्थापित राजनीति के चरित्र को चुनौती देते हुए आगे बढ़ने का अभय प्रदान करता है।
आज पूरा देश निकट भविष्य में बड़े परिवर्तन की बाट जोह रहा है। भारत में इसके लिये पश्चिमी देशों की तरह क्रांति के आह्वान और सड़कों पर गोलीबारी की जरूरत नहीं होती। देश के संविधान के अंतर्गत ही ऐसे परिवर्तन भारत में पहले भी हुए हैं, आगे भी संभव हैं। यदि कोई व्यवस्था के एक अंग से पीडि़त है तो उसे न्याय दिलाने के लिये अन्य संवैधानिक प्रावधान उपलब्ध हैं। पुलिस और प्रशासन से निराश होने के बाद भी मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, एससी-एसटी आयोग, अल्पसंख्यक आयोग आदि के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इनसे भी समाधान न मिलने पर आप सीधा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय प्राप्त कर सकते हैं। गत कुछ वषोंर् में अनेक महत्वपूर्ण और निर्णायक फैसले सर्वोच्च न्यायालय ने दिये हैं।
आज गणतंत्र भारत की जीवनशैली बन गया है, लेकिन देश का एक भाग ऐसा भी है जहां के लोग शेष देश के नागरिकों की तुलना में कम भाग्यशाली हैं और भारत के गणतंत्र बनने के छह दशक से अधिक समय बीतने के बाद भी अनेक लोकतांत्रिक सुविधाओं और अधिकारों से वंचित हैं। यह भाग है जम्मू-कश्मीर राज्य, जहां भारत के संविधान की 134 धाराएं आज भी लागू नहीं हैं। केन्द्र द्वारा गठित मानवाधिकार आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, महिला आयोग, केन्द्रीय सूचना आयोग आदि का क्षेत्राधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य में नहीं है। केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य कश्मीर से बनते रहे हैं लेकिन कश्मीर में उसके कार्यक्षेत्र का विस्तार नहीं किया गया है।
केन्द्रीय पंचायती राज कानून (73वां व 74 वां संविधान संशोधन विधेयक) राज वहां लागू नहीं है। 65 वषोंर् में केवल 5 बार पंचायतों के चुनाव हुए हैं। केन्द्रीय सहायता पूरे देश में सीधे पंचायतों तक पहुंचाने की व्यवस्था है किन्तु जम्मू-कश्मीर में इसके लिये आवश्यक संरचना ही नहीं बनी है। देश भर में पंचायतों को सशक्त किया जाये, यह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का सपना था। उसके आधार पर राज्य विधानसभा ने एक आधा-अधूरा कानून अपने यहां भी बनाया है किन्तु केन्द्र द्वारा पारित विधेयक को अपने यहां लागू करने अथवा उसे नकारने का फैसला वह आज भी नहीं ले सकी है। राजीव गांधी की कांग्रेस पिछले दस वषोंर् से राज्य सरकार में साझीदार है। दो दशक से अधिक समय से लंबित इस विधेयक के बारे में जब पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष और राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी से पूछा गया तो उनका उत्तर था पंचायतों के सशक्तीकरण जैसे काम रातों-रात नहीं हुआ करते।  
राज्य में डी-लिमिटेशन एक्ट लागू नहीं है इसलिये वर्ष 2002 में पूरे देश में लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों का नये सिरे से परिसीमन हुआ किन्तु जम्मू-कश्मीर में इसे 25 वषोंर् के लिये टाल दिया गया। क्षेत्रफल के अनुसार देखें तो 10 हजार वर्गकिमी क्षेत्रफल में विधानसभा की 47 सीटें हैं और 59 हजार वर्गकिमी के लद्दाख में 4 सीटें। इसी प्रकार जम्मू की जनसंख्या कश्मीर की जनसंख्या से ज्यादा होने पर भी केवल 37 सीटें हैं। विधानसभा में पारित प्रस्ताव के अनुसार 2036 तक यही स्थिति बनी रहेगी।
भारत का संविधान अपने नागरिकों को देश में कहीं भी जाने, बसने और आर्थिक गतिविधि चलाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन उसी के एक अनुच्छेद 370 की आड़ में राज्य की विधानसभा ने ऐसी संवैधानिक धोखा-धड़ी की है कि उक्त अनुच्छेद भस्मासुर का वरदान बन गया है। राज्य में शेष भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों का तो हनन होता ही है, राज्य की जनता को भी पिछड़ा, वंचित और निरक्षर बनाये रखने और  लोकतांत्रिक अधिकारों को जनता को न सौंपने का काम भी वहां की सरकारों ने बखूबी किया है।
नेहरू युग में अपनी दोस्ती के दम पर राज्य के ह्यवजीरेआलाह्ण शेख अब्दुल्ला ने केन्द्र सरकार से वे सुविधाएं हासिल कर लीं जो भारत के गणतांत्रिक मूल्यों का उपहास करती हैं। केन्द्र ने शेख को संविधान के साथ मनमानी करने की छूट तो दी, साथ ही यह प्रयत्न भी किया कि वहां होने वाली संवैधानिक धोखा-धड़ी को देश की नजरों से छिपा कर रखा जाये।
1954 का राष्ट्रपति का आदेश और बाद में इस आदेश में भी किये गये संशोधन इसका जीता-जागता उदाहरण है। आज की स्थिति देखें तो प्रारंभ में राज्य की संविधान सभा ने और बाद में संशोधनों द्वारा राज्य की विधानसभा ने अलगाव के बीज बोये। राज्य में भारत के संविधान के अनेक प्रावधानों को ऐसे संशोधनों के साथ लागू किया जिन्होंने उन्हें लागू करने के पीछे की भावना को ही समाप्त कर दिया, वहीं 134 अनुच्छेदों को लागू करने से ही इनकार कर दिया। इसे स्वायत्तता कहें, स्वतंत्रता कहें अथवा स्वच्छंदता कहें।
देश के नीतिनियंताओं को स्मरण रहे कि जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान में न सही, भारत के उस संविधान में पंथनिरपेक्षता और अखण्डता शब्द आज भी विद्यमान हैं जिसकी शपथ लेकर वे अपने पद का निर्वहन करते हैं। इस परिधि में भारत के उस क्षेत्र के भी नागरिक आते हैं जिस पर शत्रु देशों ने कब्जा कर लिया है। दशकों से भारत ने उनकी सुध-बुध नहीं ली है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत की उनके प्रति जिम्मेदारी कम हो गयी है। भारत में विलय के पश्चात वे भी देश के किसी भी अन्य नागरिक की भांति ही भारतीय हैं और उनकी मुक्ति के साथ-साथ भारतीय संविधान के संरक्षण में उन्हें विकास के अवसर प्रदान कर हम अपने गणतंत्र के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ सकते हैं।                    

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