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-ध्रुव सी. कटोच-
पिछले पांच दशकों से देश वामपंथी उग्रवाद से त्रस्त है। आज देश के लगभग 200 जिले इससे प्रभावित हैं, जिनमें से 35 जिले गंभीर रूप से प्रभावित हैं। गंभीर रूप से प्रभावित राज्यों में छत्तीसगढ़ और झारखंड हैं। आंशिक रूप से प्रभावित राज्यों में बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के दो जिले शामिल हैं।
वामपंथी उग्रवाद का खतरा हमेशा से एक गंभीर सुरक्षा व चिंता का विषय रहा है। वर्ष 2004 के बाद से उसने और भयंकर रूप अपना लिया है। जब दो सबसे बड़े समूह , भारतीय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वार का भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हुआ। 2004 के बाद से 2010 तक, माओवादियों द्वारा बरपाई हिंसा में मरने वालों की संख्या 600 से 1000 के बीच रही। हालांकि, पिछले तीन वषोंर् में हिंसा में कमी आई है। 2011 में 602 और 2012 में 400 लोगों की मौत हुई है जो हिंसा के स्तर में गिरावट को दर्शाती है।
पिछले तीन वर्षों में जो कमी दर्ज की गई है वह खतरे के स्तर में कमी का संकेत नहीं है । वर्ष 2004 के बाद से 2010 तक माओवादियों की सफलता के चलते इसके नेतृत्व ने ह्यपीपुल्स वारह्ण को देश भर में बढ़ा दिया है। यह समय से पहले अधिक महत्वाकांक्षा साबित हुई। माओवादी नेतृत्व अपने अभियान का विस्तार करने के लिए अपने पारंपरिक क्षेत्रों से बाहर चले गए हैं। इन स्थानों के खुलासे के बाद से पुलिसबलों व खुफिया आधारित कार्रवाई के चलते इन लोगों को काफी जोखिम और भारी हानि उठानी पड़ी है। माओवादियों ने लाल गलियारे के प्रदेशों में, जहां उनकी पारम्परिक शक्ति मजबूत है, वहां अपने अभियान को विस्तार करने की योजना कुछ दिनों के लिए ठंडे बस्ते में डाल दी। माओवादी कैडर शक्ति में किसी भी प्रकार की कमी होने के निशान नहीं मिले हैं। इसके विपरीत, एक रपट की मानें तो पिछले कुछ वषोंर् में माओवादी कैडर में वृद्घि हुई है और अब लगभग 9000 सशस्त्र माओवादियों के साथ करीब 40,000 जनसेना के भी होने के संकेत मिले हैं।
माओवादी नेतृत्व अपने मौजूदा समर्थन के आधार पर दोबारा पकड़ बनाए रखने के लिए फिर से एकत्र होने की कोशिश में लगा है। सुरक्षा बलों ने जो विशेष अभियान खुफिया आधार पर चलाए हैं उनमें सफलता प्राप्त हुई है। विशेष रूप से माओवादी नेतृत्व को निशाना बनाने में । हालांकि, केन्द्रीय सशस्त्र पुलिसबलों द्वारा जो जमीनी स्तर पर ऑपरेशन चलाए गए हैं वे बहुत प्रभावी साबित नहीं हुए हैं। मई 2013 में चतरा में सुरक्षाबलों को एक बड़ी सफलता तब हासिल हुई जब एक संगठन के 10 पूर्व माओवादी सदस्य मुठभेड़ में मारे गए। पुलिसबलों को माओवादियों के खिलाफ अवश्य ही कुछ सफलता मिली है लेकिन यह लक्ष्य के अनुसार बहुत ही कम है। दूसरी ओर माओवादियों ने राज्य के खिलाफ महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। जिस प्रकार से माओवादियों ने मई 2013 में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर हमला किया, वह राज्य की अखंडता के लिए एक गंभीर खतरा पैदा करता है। हिंसा व मौत के मामलों में जो कमी हुई है उस गिरावट को माओवादी खतरे में कमी के रूप में न देखा जाए ।
वास्तव में केवल दो राज्यों , पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में इनका ज्यादा प्रभाव दिखाई देता है। पश्चिम बंगाल में वर्ष 2010 तक 400 मौतें हुई,जबकि 2012 और 2013 में कोई भी मौत नहीं हुई है। वहीं छत्तीसगढ़ में कुल 300 लोगों की मौत हुईं जबकि 2012 और 2013 में लगभग 100-100 लोगों की ही मौत हुई। हिंसा ग्रस्त इलाकों और सुरक्षा बलों के संचालन में सफल राजनीतिक पैठ के चलते इन दो राज्यों में घातक परिणाम व मृत्यु में गिरावट आई है , लेकिन इतना सब होने के बावजूद अन्य राज्यों ने स्थिति से निपटने के लिए न तो कोई ठोस कदम उठाए हैं और न ही कोई ठोस नीति का निर्माण ही किया है।
प्रभावित राज्यों में संघर्ष का संकल्प लेकर लोगों के अधिकार, विकास और सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं को शामिल करने की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 244 और पांचवीं अनुसूची में दिए गए प्रावधानों को लागू करना होगा। साथ ही ( अनुसूचित क्षेत्रों तक पंचायत विस्तार अधिनियम 1996) को भी लागू किया जाना चाहिए। माओवादी हिंसा का मुकाबला करने में एक प्रमुख समस्या यह उत्पन्न होती है कि राज्य की कानून व्यवस्था के सामने संकट खड़ा हो जाता है। बिना किसी रोक-टोक के राज्य की सीमा परिवर्तित करने व माओवादी सशस्त्र कार्यकर्ताओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल के बजाय माओवादी हिंसा से निपटने के लिए राज्य को राज्य की पुलिस व उसकी क्षमता में वृद्घि व सुधार लाने की आवश्यकता है। स्थानीय पुलिस इलाके की भाषा कौशल और ज्ञान तथा सांस्कृतिक संवेदनशीलता से भली-भांति परिचित होती है। इस कारण वे इन क्षेत्रों में आने वाली प्रत्येक चुनौती का बेहतर ढंग से सामना कर सकते हैं। आज की स्थिति देखें तो, इन राज्यों में सामान्य पुलिस तंत्र काफी हद तक बेकार और माओवादी उग्रवाद की चुनौती से निपटने में नाकारा साबित हुआ है। इसी तर्ज पर छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा,बिहार और आंध्र प्रदेश में भी पुलिस के यही हालात हैं। राज्य को चाहिए कि वह स्थानीय पुलिस बलों को प्रोत्साहित व अपने खुफिया तंत्र को मजबूत करे। साथ ही माओवादियों से निपटने के लिए पुलिस को अत्याधुनिक तकनीक से सुसज्जित वाहन भी उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है। तकनीकी के मामले में हमारी पुलिस काफी पीछे है, जिसके चलते उनका स्तर नहीं उठ पा रहा है। अगर उनको अच्छा शीर्ष नेतृत्व व अच्छा प्रशिक्षण मिल जाए तो उनका भी स्वरूप परिवर्तित हो सकता है। यह बहुत दु:खद है कि पुलिस और माओवादियों की मुठभेड़ में हताहतों में पुलिस कर्मियों की सबसे ज्यादा संख्या है जो कि पुलिस की क्षमता का एक उदास प्रतिबिंब है। राज्यों की आतंकवाद रोधी नीतियां सिर्फ एक राजनीतिक दिखावे के रूप में हैं। इनके लिए न तो कोई विशेष रणनीति है और न ही जिम्मेदारी।
विकास के प्रयास के लिए जो भी योजनाएं हैं उनके लिए पर्याप्त मात्रा में अनुदान उपलब्ध कराया जाता है। जरूरत है उसके कार्यान्वयन और उनकी प्रभावशीलता की निगरानी का। यहां जो भी विकास के प्रयास हों वह जिले के जिलाधिकारी की निगरानी में हो न कि दिल्ली के नेतृत्व की निगरानी में। राज्य को चाहिए कि वह अपने स्तर पर इन क्षेत्रों में विकास के लिए 10 साल आगे तक का रोड मैप तैयार कर उसकी संम्पूर्ण निगरानी करें। केवल अधिकार,विकास और सुरक्षा के माध्यम से ही हम माओवादियों को नष्ट कर सकते हैं। माओवादियों से निपटने के लिए एक खास रणनीति की जरूरत है। उसके लिए केन्द्र और प्रभावित राज्यों को मिल कर कार्य करना होगा।
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