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-डा. भरत झुनझुनवाला-
सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक सम्बन्धों को अवैध बताया है। यह कानून का दृष्टिकोण है। समाज के दृष्टिकोण पर विचार करने की जरूरत है चूंकि कानून समाज का अनुयायी होता है। विषय की तह में जाने के लिये हमें समलैंगिकता के कारणों को समझना होगा। ऋषिकेश के स्वामी शान्तिधर्मानन्द के अनुसार, समलैंगिक प्रवृत्तियों की जड़ें पूर्वजन्म के आकर्षणों में निहित हैं। दूसरी प्रवृत्तियों की तरह यह भी एक प्रवृत्ति है। हमारे ज्योतिष शास्त्र में इन प्रवृत्तियों को चिन्हित किया गया है और इनके निवारण के उपाय बताये गये हैंं। इस दृष्टिकोण के अनुसार समलैंगिकता एक प्रकार की कुप्रवृत्ति है जिस पर व्यक्ति को नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिये उसी तरह जैसे व्यक्ति चोरी करने की अपनी प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने का प्रयास करता है। समाजशास्त्री डेविड हाल्पेरिन तथा जीन फोकाल्ट के अनुसार, मनुष्य की समलैंगिक प्रवृत्ति उसके मनोविज्ञान में निहित होती है। यद्यपि इन दोनों वैज्ञानिकों में इस प्रवृत्ति के गहरेपन को लेकर असहमति है। बहरहाल भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों चिंतनों की कम से कम एक धारा में समलैंगिकता को मनोविज्ञान से जोड़ा गया है। पूर्वजन्म की वासना और गहरी मनोवृत्ति एक ही प्रवृत्ति की दो प्रकार से व्याख्या है। इस दृष्टिकोण के विपरीत दूसरे अध्ययन समलैंगिकता को शारीरिक बनावट के कारण बताते हैं। मनुष्य के मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस का एक हिस्सा सुप्राकियास्मेटिक न्यूक्लियस नाम से जाना जाता है। 1990 में डी.एफ. श्वाब ने पाया कि समलैंगिक पुरुषों के न्यूक्लियस का आकार सामान्य पुरुषों की तुलना में दो गुना बड़ा होता है। वैज्ञानिक लौरा एलेन ने पाया कि हाइपोथेलेमस के एक और हिस्से एंटीरियर कोमिसूर का आकार भी समलैंगिक पुरुषों में बड़ा होता है। वैज्ञानिक सीमोन लीवे ने पाया कि हाइपोथेलेमस के हिस्से आई.एन.एच. 3 का आकार समलैंगिक पुरुषों में छोटा होता है। मस्तिष्क के इस भाग से यौन अंगों का संचालन होता है। सुलिवन एन्ड्रयू बताते हैं कि मादा चूहों को बचपन में नर एन्ड्रोजन हार्मोन देने से वे दूसरी मादा चूहों के प्रति आकर्षित होती हैं। नर चूहों को न्यून एन्ड्रोजन हार्मोन देने से वे दूसरे नर चूहों के प्रति आकर्षित होने लगते हैंं। इन अध्ययनों से पता चलता है कि समलैंगिक व्यवहार का शरीर के ढांचे से सम्बन्ध है।
हमारे सामने समलैंगिकता के परस्पर दो विरोधी कारण प्रस्तुत हैं। एक कारण मनोवृत्ति का है जिस पर नियंत्रण किया जा सकता है। दूसरा कारण शारीरिक है जिस पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता है। मैं समझता हूं कि दोनों कारण आपस में जुड़े हुये हैं। मनोवृत्तियों के चलते व्यक्ति का दिमाग विशेष प्रकार से कार्य करता है जिसके कारण मस्तिष्क के विशेष हिस्सों का आकार बड़ा-छोटा हो जाता है जैसे एथलीट की मांसपेशियां कठोर हो जाती हैं। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि मनोवृत्तियों का इस प्रवृत्ति को बनाने में योगदान होता है।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस मनोवृत्ति की भर्त्सना की जाये, इसे स्वीकार किया जाये या फिर इसे नजरंदाज किया जाये? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये हमें प्रकृति के समलैंगिकता के प्रति बर्ताव पर नजर डालनी होगी। सर्वविदित है कि समलैंगिक लोगों में एड्स का प्रकोप बहुत अधिक होता है। इससे समलैंगिकता के प्रति प्रकृति की अस्वीकृति दृष्टिगोचर होती है। इसके अतिरिक्त प्रकृति का उद्देश्य विस्तार दिखता है, जैसे उपनिषदों में लिखा है- ब्रह्म बढ़ता है (चीयते)। अथवा लिखा गया है कि ब्रह्म एक था और उसने सोचा कि वह अनेक हो जाये। सृष्टि के इस विस्तार के लिये सामान्य स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध बनाना जरूरी है। अत: समलैंगिक युगलों की स्वाभाविक वृद्घि नहीं होती है। ये प्रजनन नहीं करते हैं और इनके जीन समाप्त हो जाते हैं। यदि प्रकृति को समलैंगिकता प्रिय होती तो प्रकृति ने इनकी वृद्घि का मार्ग अवश्य दिया होता।
यह कहना भी गलत दिखता है कि हर व्यक्ति को चूंकि सामान्य मनोरंजन का अधिकार है इसलिये समलैंगिक सम्बन्धों से मिलने वाले मनोरंजन का भी। यहां देखना होगा कि प्रकृति ने सामान्य यौन संबन्धों को मनोरंजक क्यों बनाया? क्या प्रकृति का उद्देश्य मनोरंजन मात्र था और संतानोत्पत्ति उसका ह्यसाइड इफेक्टह्ण था अथवा प्रकृति का उद्देश्य संतानोत्पत्ति था और यौन संबन्धों के दौरान मिलने वाला मनोरंजन इसका उत्प्रेरक मात्रा था? यह प्रश्न उसी तरह है कि आप खाने के लिये जीते हैं या जीने के लिये खाते हैं? अत: यौन सम्बन्ध से मिलने वाले मनोरंजन को सृष्टि के विस्तार का एक कारक मानना चाहिये। वह मनोरंजन उचित नहीं है जिसमें प्रकृति का विस्तार न हो, मात्र मौज-मस्ती हो।
इतिहास साक्षी है कि समलैंगिक सम्बन्धों को बढ़ावा देने वाले समाज विलुप्त हो गये हंै। बाइबिल में बताया गया है कि सोडम शहर में समलैंगिक संबन्धों का प्रचलन था। ईश्वर ने इस शहर को नष्ट कर दिया। पुरातन रोम साम्राज्य में समलैंगिक सम्बन्धों का सम्मान किया जाता था। रोम के नागरिकों के लिये अपने दासों, नर्तकों अथवा नर वेश्याओं के साथ यौन सम्बन्ध को बड़प्पन का मापदण्ड माना जाता था। यह साम्राज्य नष्ट हो गया। वर्तमान में अमरीका और यूरोप में समलैंगिक संबन्धों को वैधता दी जा रही है। इन राज्यों की जनसंख्या घटती जा रही है। यह गिरावट श्वेत लोगों में अधिक है जो समलैंगिक सम्बन्धों को विशेषकर अपनाना चाहते हैं। अत: समाज की दृष्टि से भी समलैंगिकता प्रमाणित नहीं होती है। मेरा मानना है कि पश्चिमी समाज के स्वार्थी चरित्र के कारण ही समलैंगिकता बढ़ रही है। इस समाज को अपने भौतिक सुख और इंद्रीय मनोरंजन मात्र से सरोकार है। समाज और सृष्टि से इनको कुछ लेना-देना नहीं है।
हमें समलैंगिक व्यक्ति के प्रति सहानुभ्ूति की भावना के साथ इस कुप्रवृत्ति में रत होने को हतोत्साहित करना चाहिये। अन्यथा मनोरंजन मात्र को प्रधानता देने और प्रकृति का तिरस्कार करने वाले देशों का पूर्व में जो हश्र हुआ है वैसा हमारा भी होगा। प्रकृति की सीमाओं के बीच रहने का उपाय करना चाहिये।
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