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सुर मिलें तो साथ चलें

by
Jan 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jan 2014 14:49:14

भारत से प्रेम करने वाले प्रवासी भारतीयों के लिए नीतियां सुगम तो हों

-सुनील तिवारी-

दुनिया के कोने-कोने में बसे प्रवासी भारतीयों को अपनी मातृभूमि से जोड़ने के लिए प्रत्येक वर्ष की भांति इस बार भी नई दिल्ली में प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस परम्परा की शुरुआत 2003 से हुई थी और यह 12 वां आयोजन था। दिल्ली में होने वाला यह 7वां आयोजन था। इससे पहले 2003, 2004, 2007, 2008, 2010, 2011 में भी यह आयोजित हो चुका है और एक-एक बार मुम्बई (2005), हैदराबाद (2006), चेन्नै (2009), जयपुर (2012) एवं कोच्चि (2013) में भी यह हो चुका है ।
विश्व में सौ से अधिक देशों में बसे प्रवासी भारतीयों की संख्या 2़75 करोड़ आंकी गई है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व का हर छठा प्रवासी भारतीय है। कई देशों में तो प्रवासी भारतीय वहां की औसत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ वहां की आर्थिक व राजनीतिक दशा-दिशा को भी तय करते हंै।  इसमें संदेह नहीं है कि जहां भी भारतीय गए, वहां पर उन्हांेने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वे व्यापारी, शिक्षक, चिकित्सक, अधिवक्ता, अभियन्ता, वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता, शासक एवं प्रशासक आदि के रूप में स्वीकार किए गए। विदेशी आर्थिक तंत्र को मजबूती प्रदान करने में भी भारतीय पीछे नहीं हैं। कुछ देशों में तो वहां की राष्ट्रीय आय में एक बड़ा हिस्सा प्रवासी भारतीयों का ही होता है। भारतवंशियों की इन्हीं सफलताओं के चलते भारत की छवि में दिन-ब-दिन निखार आ रहा है।
अक्सर यह प्रश्न उठता है कि प्रवासी भारतीयों के इतने सशक्त एवं प्रभावी होने के बावजूद वे भारत के विकास में योगदान देने से क्यों हिचकिचाते हंै ? वे चीनी प्रवासियों की तरह अपने मूल देश की तरक्की में बढ़-चढ़कर योगदान देने में पीछे क्यों हैं? एक अनुमान के अनुसार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी भारतीयों का हिस्सा महज 6 फीसदी है, जो कि चीन के मुकाबले बहुत ही कम है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी चीनियों का 67 फीसदी हिस्सा है । अब सवाल यह खड़़ा होता है कि क्या प्रवासी भारतीयों को अपने मूल देश से प्रवासी चीनियों के मुकाबले कम लगाव है ? क्या वे मातृभूमि के प्रति अपने फर्ज को भूल गए हंै? यदि प्रवासियों में भारत के प्रति उदासीनता के कारणों का विश्लेषण किया जाए तो मालूम चलता है कि कमी उनके चरित्र में नहींं, अपितु हमारे यहां की सरकारों में ही है। प्रवासी भारतीयों पर अंगुली उठाने से पहले अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है। एक साधारण भारतीय, चाहे वह देश में रहता हो या विदेश में, अपने देश से समान लगाव रखता है। भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में प्रवासी भारतीयों की कम भागीदारी के लिए हमारी सरकारी नीतियां ही सीधे तौर पर जिम्मेदार हंै। सरकार की नीतियों का निष्पक्ष एवं ईमानदारी से आकलन करने से पता चलता है कि हालात उससे कहीं ज्यादा गम्भीर हैं जितना कि हम सोचते हैं। निवेश वहीं होता है जहां पर लाभ की गुजाइंश होती है। यही कारण है कि अनिवासी भारतीय तो दूर निवासी भारतीय भी भारत में निवेश से कतराते हंै। पिछले 2-3 वषोंर् से भारत के सभी बड़े औद्योगिक घराने विदेश में निवेश को ज्यादा महत्व दे रहे हैं और उनके ह्यटर्न ओवरह्ण का एक बड़़ा हिस्सा विदेश में कि ए गए निवेश से आ रहा है। कंगाली की चपेट से बहुत ही मुश्किल से हम 1991 में निकले थे और आर्थिक सुधारवाद की नीतियों पर चलते हुए 8 फीसदी तक की औसत वृद्घि दर भी हासिल कर ली थी, लेकिन पिछले कुछ वषोंर् से एक के बाद एक हो रही गलतियों की वजह से आज फिर भारत आर्थिक संकट के दलदल में फ ंसता नजर आ रहा है।
आज आवश्यकता है देश में आर्थिक हालात का जायजा लेने और सुधारवाद पर एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाने की, जिस पर राजनीतिक दलों की आमराय और स्वीकृति हो। कमाई नहीं होगी तो उस वर्ग का भला कैसे होगा जिसकी दुहाई देते हुए आर्थिक सुधारवाद के कार्यक्रमों का विरोध किया जाता है?    

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