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विष्णुगुप्त
अखिलेश सरकार एक बार फिर न्याय के सिद्घांत की हत्या करने पर उतर आयी है। उसके सिर पर अति मुस्लिम प्रेम और हिन्दू विरोध का भूत नाच रहा है। इससे मुस्लिम आबादी कितनी खुश होगी, दंगाई मानसिकताएं कितनी तुष्ट होंगी, यह तो नहीं कहा जा सकता है पर इतना तय है कि हमेशा की तरह हिंदुओं के लिए सपा सरकार एक बार फिर खलनायक के तौर पर ही सामने आई है। क्या देश की सरकारें, देश के कानून और देश का प्रशासन सिर्फ मुसलमानों की चिंता के लिए ही बना हुआ हैं? वोटों की राजनीति में लगातार हिंदुओं के हित और सम्मान कुचले जा रहे हैं। आखिर इसका दुष्परिणाम क्या होगा? मुसलमानों के हितों की बात करने वाले तमाम सेकुलर राजनैतिक दलों को इस बारे में सोचने की जरूरत है कि केवल अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए केवल मुसलमानों के हितों की बात करना सही नहीं है।
उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों में आरोपी मुस्लिम सांसदों-विधायकों और अन्य मुस्लिम नेताओं पर दायर हुए मुकदमे वापस लेने का निर्णय लिया है। इस संबंध में न्याय विभाग ने मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक को स्पष्ट निर्देश दिए हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सांसद कादिर राणा, कांग्रेस के पूर्व सांसद सईदुज्जमां, नूर सलीम राणा, सुल्तान नासिर, नौशाद कुरैशी, मौलाना जमीर सहित दर्जनों मुस्लिम नेताओं पर पिछले वर्ष 30 अगस्त को भड़काऊ भाषण देने और दंगा फैलाने के आरोप हैं।
उल्लेखनीय है कि भड़काऊ भाषण के दौरान जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक भी मौजूद थे, लेकिन ऊपर से मिले आदेशों के कारण कारण जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक भड़काऊ भाषण रोकने और धारा 144 तोड़ने के आरोप में कोई कार्रवाई करने में असहाय नजर आए। मुस्लिम नेताओं के भड़काऊ भाषण के बाद हिन्दुओं में अविश्वास और डर कायम हुआ था। दंगा भड़कने के बाद पुलिस-प्रशासन मुस्लिम नेताओं पर भी कार्रवाई करने के लिए विवश हुआ था। यह पहला अवसर नहीं है जब उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने अति मुस्लिम वाद की नीति अपना कर वोट की राजनीति को आत्मसात किया है और हिंदू आबादी को आक्रोशित करने का कार्य किया है? पहले भी सपा सरकार े मुस्लिम आतंकवादियों पर लगे हुए अभियोगों को वापस लेने की असफल कोशिश कर चुकी है, ये बात अलग है कि न्यायालय ने आतंकवाद के आरोपों से घिरे आरोपियों पर लगे हुए अभियोगों को वापस लेने की कोशिश को गैर कानूनी घोषित कर दिया। यदि न्यायालय ऐसा नहीं करता तो सपा सरकार आतंकवाद के आरोपियों पर से अभियोग वापस लेकर अपना वोट बैंक और मजबूत करने में कामयाब हो जाती।
अखिलेश सरकार के लिए आतंकवादी घटनाओं में मारे गये निर्दोष लोगों और उनके परिजनों का कष्ट कोई अर्थ नहीं रखता है। उसके लिए सिर्फ मुसलमानों के हित ही मायने रखते हैं। वह किसी भी तरह से सिर्फ अपना वोट बैंक मजबूत करना चाहती है। ऐसी आतंकवादी नीतियों का संरक्षण देशहित में कैसे हो सकता है?
जहां तक मुजफ्फरनगर दंगे का सवाल है तो उसमें निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश की सपा सरकार नाकाम हुई। यदि अखिलेश चाहते तो दंगे को भड़कने से पहले ही रोका जा सकता था, सैकड़ों निर्दोष लोगों की जान बचाई जा सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि सपा हमेशा से मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करती आई है। सपा सरकार चाहती थी कि दंगा होने दिया जाए ताकि हमेशा की तरह दंगें के बाद वे राजनीति करें और मुस्लिम वोट उनके खाते के लिए पक्के हो जाएं। अगर उनकी ऐसी सोच नहीं होती तो फिर मुजफ्फरगर में महीनों से जल रही मुस्लिम हिंसक मानसिकता की आग को और भड़काने की कोशिश न की होती। मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम आबादी को दहशतगर्दी के लिए पूरी छूट दी गई, उनके भड़काऊ और विद्वेष फैलाने वाले सभी प्रकार के हथकंडों को संरक्षण दिया गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धारा 144 का भी कोई अर्थ नहीं रह गया था। धारा 144 को तोड़कर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में हिंदुओं पर हमले किए गए। इससे पूर्व लव जेहादियों और हत्यारों को पुलिस ने थाने से भगा दिया। कर्मठशील और ईमानदार पुलिसकर्मियों का स्थानांतरण कर दिया गया। यह सब अखिलेश-मुलायम सरकार के आदेश से हुआ। हिंदुओं ने जब देखा कि सरकार और प्रशासन पूरी तरह से मुसलमानों का ही पक्ष लेने पर उतारू हो गया है और हिंदुओं के मान-सम्मान और अस्मिता की रक्षा संभव नहीं है तब उनके अंदर एकजुटता की भावना आई और हिंदुओं ने आत्मरक्षा के लिए जवाब दिया। जब सरकार ही अति मुस्लिमवाद पर उतर आई और हिंदुओं की अस्मिता के परखच्चे उड़ाए जाते रहे तो हिंदू जाते भी तो कहां ? हिन्दू रक्षा वाहिणी के नेता राम बाबू गुप्ता की हत्या सपा के मुस्लिम विधायक द्वारा कराई जाती है, फिर राम बाबू गुप्ता की हत्या के गवाह उनके भतीजे की हत्या कर दी जाती है। इसके बावजूद भी हत्या कराने वाला सपा का मुस्लिम विधायक कानून के शिकंजे से बाहर होता है, अखिलेश-मुलायम सरकार का पूरा संरक्षण उस हत्यारे विधायक को प्राप्त होता है।
न्याय सबके लिए बराबर होता है। न्याय की कसौटी पर कोई मुस्लिम नहीं होता, कोई हिन्दू नहीं होता है। अपराध की श्रेणी के अनुसार न्याय का फैसला किया जाता है। अगर न्याय की कसौटी पर कोई भी सरकार, कोई भी समाज या कोई भी अन्य संवर्ग यह देखना शुरू कर देगा कि अपराध करने वाला मुस्लिम है, हिन्दू है और इस आधार पर उसे सजा से छूट मिलनी चाहिए तो निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह न्याय की हत्या है, ऐसी नीति और समझ से शांति, न्यायप्रिय व्यवस्था ही खारिज हो जाती है। प्रारंभ से ही न्याय की कसौटी को जमींदोज करने के लिए तरह-तरह के सिद्घांत गढ़े गए और हथकंडे अपनाए गए।
अगर यह मान भी लिया जाए कि मुस्लिम नेताओं और संगठनों की प्रतिक्रिया में हिन्दू नेताओं ने भी भड़काऊ भाषण दिए, जिससे हिंदू भी एकजुट हुए तो भी सिर्फ हिन्दू नेताओं पर ही कड़े अभियोग क्यों चलाये गए ? एक ही व्यक्ति पर अनेक अभियोग क्यों लादे गए? मान्नीय न्यायालय से हिन्दू नेताओं की जमानत सुनिश्चित किए जाने के बाद भी फिर से नए अभियोग के तहत उन्हें जेल में ही रखने की नीति क्या दोषपूर्ण नहीं थी, न्याय की एकांकी समझ और न्याय की हत्या नहीं थी? इसके दूसरी तरफ मुस्लिम नेताओं पर दर्ज होने वाले मुकदमे अति साधारण थे, उनके गुनाहों को देखते हुए सख्त मुकदमों की आशा थी पर यह आशा निराशा में बदली गई इतना ही नहीं बल्कि दंगा फैलाने के लिए जिम्मेदार मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम नेताओं को कई प्रकार की सुविधाएं भी उपलब्ध करायी गई ।
दंगाई मुस्लिम नेताओं को स्पेशल हवाई जहाज से लखनऊ बुलाकर अखिलेश यादव ने उनकी दंगाई मानसिकता को संरक्षण दिया। दंगाई और अपराधी की जगह जेल होती है न कि स्पेशल विमान में जाना और मुख्यमंत्री आवास पर दावत उड़ाने का सुख। मुस्लिम नेताओं को बार-बार सुरक्षा और सहायता का आश्वासन मिला पर दंगों में मारे गए हिन्दुओं और उनके परिजनों को देखने वाला कोई नहीं है। अखिलेश-मुलायम, लालू से लेकर राहुल तक सभी मुसलमानों के हित की बात करते हैं। ऐसे में बहुसंख्यक आबादी के पास न्याय और सहायता का विश्वास कहां से आयेगा?
मुस्लिमों की असली समस्याएं सेकुलर राजनैतिक पार्टियों के लिए मायने रखती हैं, क्योंकि यदि मुसलमानों की असली समस्याएं दूर हो गई तो कांग्रेस, मुलायम, लालू, करुणानिधि, बसपा और वामपंथियों की मुस्लिम वोटों की सौदागरी ही दफन हो जायेगी। इसीलिए मुस्लिम आबादी की हिंसक मानसिकताओं का पोषण होता है। निष्कर्ष यह है कि अति मुस्लिम वाद से हम न्याय की हत्या ही कर रहे हैं, और मुस्लिम आबादी की हिंसक मानसिकताएं ही पोषित हो रही हैं। अखिलेश-मुलायम सरकार की अति मुस्लिम वाद की नीति कानून के वास्तविक सिद्घांत का ही उल्लघंन करती है। यदि हिन्दू एकजुट हो गए तो सपा का अति मुस्लिमवाद ही उनके लिए आत्मघाती ही साबित होगा।
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