संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव और उलटा लटका इतिहास
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संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव और उलटा लटका इतिहास

by
Jan 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jan 2014 13:50:21

-आशुतोष भटनागर-

ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में कथा प्रचलित है कि भगवान जगन्नाथ को भात खाने की इच्छा हुई तो उन्हें बताया गया कि आज एकादशी (भारतीय पंचांग की एक तिथि) होने के कारण भात नहीं बनेगा। उन्होंने एकादशी को तलब किया और उपस्थित होने पर सदा के लिये उसे बांध कर उलटा लटका दिया। अनुभव होता है कि एकादशी की भांति ही जम्मू-कश्मीर में पूरा पंचांग ही बंधक बना उलटा लटका है। 1947 के आगे वह बढ़ नहीं पाता।
जम्मू-कश्मीर में हर घटनाक्रम लौट कर 1947 में जा ठहरता है। यहां कबाइलियों का आक्रमण है, अंग्रेजों की कूटनीति है, सोवियत संघ की संभावित चुनौती है, अमरीकी हित हैं, तेल कूटनीति है, शेख अब्दुल्ला के अपनी सल्तनत कायम करने के सपने हैं, जिन्ना और लियाकत की आरामगाह है, नेहरू की स्वप्नजीविता है, महाराजा की भारतभक्ति है, पटेल की मजबूरी है, माउंटबेटन का एजेण्डा है, शीतयुद्घ की चौसर है और भारतीय नेतृत्व का विकृत इतिहास-बोध है। अर्थात, सबके लिये अपनी रुचि का कल्पना-लोक है जिसमें डूबते-उतराते वर्तमान से आंखें चुराई जा सकती हैं और सत्य का सामना करने से बचा जा सकता है।  
कबाइलियों के वेश में पाकिस्तान की सेना द्वारा जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण के विरुद्घ भारत ने 30 दिसंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शिकायत दर्ज करायी। सिंधु नदी में तब से बहुत पानी बह चुका है किन्तु 5 जनवरी जम्मू-कश्मीर के पंचांग में वह तिथि बन गयी है जब सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार, समस्या का समाधान किये जाने की मांग का वार्षिक कर्मकाण्ड किया  जाता है। इस बार भी 5 जनवरी के प्रस्ताव को लागू करने की मांग को लेकर तरह-तरह की गतिविधियां चलती रहीं।
हुर्रियत (एम) के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारुख ने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र के मौन को उसकी असफलता बताया। फारुख ने कहा कि इस विश्व संस्था ने कश्मीर के साथ 5 जनवरी 1949 को वादा किया था जिसे आज तक पूरा नहीं किया गया है।
वहीं एक अन्य अलगाववादी नेता और हुर्रियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने कहा कि भारत के साथ शांतिवार्ता और सहयोग प्राप्त करने के प्रयास के बजाय पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर मुद्दे को प्रमुखता से उठाने के लिये विश्व समुदाय के बीच लामबंदी करनी चाहिये।
जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष यासीन मलिक ने अमरीका और इंग्लैंड से कश्मीर समस्या के हल की अपील करते हुए कहा कि एक ओर हथियारबंद तालिबानों से अमरीका शांतिवार्ता कर रहा है वहीं शांतिप्रिय कश्मीरियों का दमन किया जा रहा है। इससे भय उत्पन्न होता है कि कहीं घाटी के युवा हिंसा का विकल्प न चुन लें।
पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद में कश्मीर लिबरेशन सेल ने संयुक्त राष्ट्र मिशन को ज्ञापन देते हुए सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव लागू करने की अपील की। वहीं पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता तस्रीम असलम ने रेडियो पाकिस्तान पर कहा कि कश्मीर विवादित क्षेत्र है। सुरक्षा परिषद ने इसके संबंध में बीस प्रस्ताव पारित किये हैं। इन्हें लागू किया जाना चाहिये। तस्नीम ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनाव जनमत संग्रह का विकल्प नहीं हो सकते।
इसे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति नहीं बल्कि सरासर बेशर्मी ही कहा जाना चाहिये कि संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सदस्य देश भारत अपने ऊपर हुए आक्रमण का समाधान पाने सुरक्षा परिषद में गया, किन्तु विश्वशक्तियों ने उसे शीतयुद्घ का मोहरा बना दिया। भारत की सीधी-सादी शिकायत थी कि पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर राज्य पर आक्रमण किया है जो भारत का अभिन्न अंग है। एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में उसका अधिकार है कि वह उसे आक्रमणकारियों से खाली करा ले किंतु इसमें युद्घ छिड़ने की संभावना है। अत: शांति के प्रयास के रूप में भारत सुरक्षा परिषद से अपेक्षा करता है कि वह अपने प्रभाव का प्रयोग करते हुए भारतीय भू-भाग को पाकिस्तानी सेना तथा उसके नागरिकों से खाली कराये। एक वर्ष तक चले तमाम दाव-पेचों के बाद जिस 5 जनवरी के प्रस्ताव की बात कही जा रही है वह था- जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रश्न स्वतंत्र एवं निष्पक्ष लोकतांत्रिक पद्घति से कराये गये जनमत संग्रह द्वारा निर्धारित किया जायेगा। भारत के साथ तो यह 'नमाज छोड़ने गये और रोजे गले पड़ गये' जैसी स्थिति थी।
5 जनवरी 1949 को सुरक्षा परिषद द्वारा गठित आयोग ने इस प्रस्ताव के क्रियान्वयन को लेकर जम्मू-कश्मीर की अलगाववादी ताकतों से लेकर पाकिस्तान की सरकार और मानवाधिकार के स्वयंभू पैरोकार आज भी शोर मचाते हैं। लेकिन वे इसे प्रयासपूर्वक छिपाते हैं कि उपरोक्त  प्रस्ताव की ठीक अगली पंक्ति कहती है कि यह जनमत संग्रह तभी होगा जब 13 अगस्त 1948 के आयोग के प्रस्ताव के खण्ड-1 व खण्ड-2 पूरे कर लिये जायेंगे।
यह खण्ड 1 व 2 क्या हैं ? खण्ड 1 है युद्घविराम, जिसे दोनों देश अपने-अपने बलों पर लागू करेंगे तथा आयोग द्वारा नियुक्त सैन्य पर्यवेक्षक युद्घ विराम की निगरानी करेगा। खण्ड 2 का भाग (अ)-पाकिस्तान सरकार ने सुरक्षा परिषद के समक्ष यह स्वीकार किया है कि उसके सैनिक जम्मू-कश्मीर में मौजूद हैं, उन्हें वह पूरी तरह वापस बुलायेगी तथा जम्मू-कश्मीर की भूमि (आज के संदर्भ में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर सहित) को पूरी तरह खाली कर देगी, पाकिस्तानी नागरिक तथा कबायली, जो जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं हैं उनकी वापसी के लिये भी पूरा प्रयत्न करेगी तथा बाहरी सैनिकों और नागरिकों द्वारा खाली किये जाने के पश्चात आयोग की देख-रेख में स्थानीय प्रशासन अपना काम संभालेगा। भाग (ब)- इसके उपरान्त भारत सरकार कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये आवश्यक सैन्यबलों को छोड़ कर अतिरिक्त  बलों को वापस बुलायेगी, साथ ही भारत सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार विधि-व्यवस्था और शांति स्थापित करे तथा लोगों के मानवाधिकार तथा राजनैतिक अधिकारों का संरक्षण करे।
5 जनवरी 1949 के प्रस्ताव के अनुसार 15 अगस्त 1947 और उसके बाद आये सभी बाहरी लोगों की पहचान कर निकाल देने तथा इस अराजकता के कारण राज्य से गये लोगों को वापस आकर स्थापित होने का अवसर देकर ही जनमत संग्रह की प्रक्रिया प्रारंभ होगी। इसके अंतर्गत आयोग की सहमति से संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव जनमत संग्रह प्राधिकारी (प्लेबिसाइट एडमिनिस्ट्रेटर) की नियुक्ति करेगा जो जम्मू-कश्मीर राज्य से अधिकार प्राप्त करेगा। अर्थात, जनमत संग्रह का कार्य भी राज्य सरकार के निर्देशन में ही किया
जाना था।
भारत ने इस प्रस्ताव पर अपनी प्रतिक्रिया में स्पष्ट कर दिया था कि पहले दो खण्ड अर्थात युद्घविराम और और पाक सैनिकों और हमलावरों को वापस लेने की जिम्मेदारी पाकिस्तान की है। यदि वह इसे स्वीकार नहीं करता है, अथवा स्वीकार करने के बाद भी अपने सैनिकों और नागरिकों को वापस बुलाकर भारतीय भूमि खाली नहीं करता है तो प्रस्ताव का अंतिम बिंदु अर्थात जनमत संग्रह भारत पर बाध्यकारी नहीं होगा। यह तथ्य है कि पाकिस्तान ने सहमति देने के बाद भी आज तक भारतीय भू-भाग खाली नहीं किया है अत: यह प्रस्ताव भारत के लिये बाध्यकारी नहीं है। जो लोग जनमत संग्रह की मांग को आज भी जिंदा करना चाहते हैं उन्हें पहले पाकिस्तान को मनाना चाहिये कि वह पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर का 1 लाख 21 हजार वर्ग किमी क्षेत्र खाली कर भारत को सौंपे ताकि वहां प्रस्ताव के अनुसार विधि-व्यवस्था बहाल की जा सके।        
उपरोक्त  विधिक स्थिति वस्तुत: तात्कालिक परिस्थिति में थी। आज स्थिति बदल चुकी है और जनमत संग्रह का मामला सिरे से समाप्त हो चुका है। भारतीय संसद के सर्वसम्मत संकल्प के अनुसार यदि कुछ बाकी है तो वह है पाकिस्तान व चीन द्वारा राज्य के एक बड़े हिस्से पर किये गये अवैध कब्जे को समाप्त कर पुन: राज्य व देश के मानचित्र को समग्र बनाना। संकल्प यह भी कहता है कि इसके लिये आवश्यक शक्ति व आत्मविश्वास भारत राष्ट्र में है।
वस्तुस्थिति यह है कि दशकों पहले यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कार्यसूची से बाहर हो चुका है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पश्चात यह भारत का आन्तरिक मामला है और एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत को उसे अपनी व्यवस्था के अंतर्गत हल करने का अधिकार हासिल है।
जिन्हें लगता है कि इसमें पाक अधिकृत भू-भाग भी शामिल होने के कारण पाकिस्तान की भी भूमिका बनती है, उन्हें भी यह स्मरण रखना चाहिये कि 1972 में हुए शिमला समझौते के अनुसार भी भारत-पाकिस्तान के बीच के किसी भी मसले का हल आपसी सहमति के आधार पर किया जायेगा और इसमें तीसरे पक्ष के लिये कोई स्थान नहीं है।
जानते-बूझते भी इस तथ्य को छिपा कर सुरक्षा परिषद के दफन हो चुके मुद्दे को बार-बार जीवित करने की कोशिश करने वाले अच्छा हो अपनी ऊर्जा यदि इस प्रयास में लगायें कि पूरे देश के नागरिक जिन लोकतांत्रिक सुविधाओं का उपयोग कर निरंतर प्रगति कर रहे हैं वे सभी संवैधानिक प्रावधान राज्य के नागरिकों को भी समान रूप से उपलब्ध हो सकें तो कल्याणकारी होगा।  

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