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मुजफ्फर हुसैन
देश में आम चुनाव की गतिविधियां प्रारम्भ हो चुकी हैं। राष्ट्रीय स्तर के दल हों चाहे फिर एनडीए और यूपीए के घटक सभी इस गणित में लगे हुए हैं कि 2014 के आम चुनाव में ऐसी सरकार बनना चाहिए जिसमें उन्हें स्थान मिल सके। देश में 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक से यह देखने को मिल रहा है कि अब कोई भी एक राजनीतिक दल दिल्ली पर राज नहीं कर सकता। भाजपा और कांग्रेस दो बड़े दल अपनी रणनीति बनाने पर उसे क्रियान्वित करने में सक्रिय हो गए हैं। भाजपा का चुनाव आन्दोलन मोदी की आंधी के रूप में उठता और फैलता दिखलाई पड़ रहा है, लेकिन कांग्रेस अपनी आंतरिक रणनीति को मजबूत कर भविष्य की योजना बना रही है। पिछले दिनों सम्पन्न चुनावों में भाजपा का घोड़ा आगे रहा। लेकिन कांग्रेस ने अपनी रणनीति से अपने दो बड़े विरोधियों को चारों खाने चित कर दिया है। लोकपाल को लेकर अण्णा की धार मोटी हो गई है और केजरीवाल अपने ही कहे गए शब्दों और आश्वासनों में इतनी बुरी तरह से फंस गए हैं कि दिल्ली में रहकर भी उनके लिए दिल्ली दूर ही लगती है। लेकिन सच बात तो यह है कि पिछले दिनों चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय ने जिस प्रकार की सजगता दर्शाई है उससे लगता है कि देश के राजनीतिक दल कितने ही गैर जिम्मेदार और जनता के प्रति कितने ही उद्दंड हो जाएं, लेकिन हमारे संविधान में लोकतंत्र को दृढ़ और अजर-अमर बनाने के लिए जो प्रबंध किए गए हैं उससे लगता है कि हमारे राजनीतिक दल कितने ही गैर जिम्मेदार बनें , लेकिन लोकतंत्र की रक्षा करने वाला ढांचा इतना फौलादी है कि किसी के गैर जिम्मेदार अथवा तानाशाह हो जाने के बावजूद उनकी कुछ भी नहीं चलेगी।
बात बहुत लम्बी नहीं भी की जाए तो इन पांच विधानसभा के चुनावों में हमारे चुनाव आयोग ने नोटा लागू करके एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। जब किसी व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार है कि वह मतदान करे तो उसके साथ उसका यह अधिकार भी होना चाहिए कि यदि कोई उसकी पसंद अथवा कसौटी पर खरा नहीं उतरने वाले को वह अपना मत भी न दें। राजनीतिक दल और अन्य मतदाताओं को चुनाव के परिणाम के समय यह भी मालूम हो जाए कि मतदाताओं ने चुनाव में खड़े इन उम्मीदवारों में से किसी को पसंद नहीं किया है। इसका परिणाम यह आएगा कि एक तो राजनीतिक दल को अपने इस उम्मीदवार की लोकप्रियता पर विचार करना पड़ेगा और दूसरी बात यह कि अब तक मतदाता का यह तर्क रहता था कि कोई योग्य उम्मीदवार है ही नहीं तो मतदान करने की आवश्यकता ही क्या है? नोटा की प्रक्रिया से मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा जो लोकतंत्र की असली आत्मा है। नोटा का उपयोग चूंकि पहली बार ही हुआ है, इसलिए यह आवश्यक है कि इसकी पड़ताल की जानी चाहिए कि उक्त हथियार लोकतंत्र को चलाने और जीवित रखने में कितना सफल हुआ? चूंकि इस चुनाव में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा के क्षेत्र शामिल थे इसलिए हमें वहां के चुनाव क्षेत्र को सामने रखते हुए विश्लेषण करना पड़ेगा। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि इन चुनावों में सबसे संवेदनशील क्षेत्र छत्तीसगढ़ के थे इसलिए उस पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों में नक्सलवादियों का जोर था। अब तक नक्सली कहा करते थे। कि आपको किसी को वोट नहीं देना है इसलिए घर से बाहर निकलने की आवश्यकता ही नहीं है।
लेकिन मतदाताओं ने जब यह दलील दी कि अब तो मतदान पत्र में नोटा की व्यवस्था है तो हम उसी पर मोहर लगा देंगे तो जिससे उक्त उम्मीदवार और उसकी पार्टी यह समझ जाए कि मतदाता इनको पसंद नहीं करता है। पहली बार मतदाता को अपनी पंसद और नापसंद बतलाने का अधिकार मिला है। इसलिए नक्सलियों से भयभीत जनता भी बाहर निकली और लोकतंत्र के इस शस्त्र का उपयोग किया। इससे दो बातें हुईं एक तो मत पेटियों का अपहरण नहीं हुआ और दूसरी बात यह कि कितने प्रतिशत जनता मतदान केन्द्र पर पहुुंची यह सिद्ध हो गया। लोग नोटा का उपयोग करने के लिए भी वहां पहुंचे तो इससे नक्सलियों और समाज विरोधी तत्वों को यह अहसास हो गया कि भारत की जनता यदि दिल से लोकतंत्र चाहती है और अपने फैसले केवल लोकतांत्रिक आधार पर ही करना चाहती है। अप्रत्यक्ष रूप से कहा जाए तो नोटा ने अलोकतांत्रिक शक्तियों की कलई जनता के सम्मुख खोल दी। आज यदि वे लोकतंत्र के प्रवाह में आते हैं तो आने वाले कल में लोकतंत्र आधारित सरकार के कायदे कानून मानने के लिए भी बाध्य होंगे। छत्तीसगढ़ का ह्यलिटमस टेस्टह्ण बस्तर जिला है। पाठकों को बतलाने की आवश्यकता नहीं कि बस्तर नक्सलवादियों का सबसे बड़ा केन्द्र है। यदि आतंकवादी यहां सफल हो जाते तो दुनिया समझ जाती कि इनकी शक्ति अपार है। वे यहां रात और दिन के मालिक हैं। लेकिन अब बस्तर के परिणामों पर एक नजर डालते हैं। एजिक्ट पोल के तहत यह कहा जा रहा था कि इस बार बस्तर में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में मतदाता अपना मतदान नहीं करेंगे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कोटा और दंतेवाडा की ही सीटें मिल जाएंगी। सात सीटें कांग्रेस को, तीन भाजपा को और दो कम्युनिस्ट पार्टी को मिलेंगी। लेकिन जो परिणाम सामने आए उनमें चार भाजपा को और आठ कांग्रेस को मिली। वामपंथियों की करारी हार यह बतलाती है कि बंदूक की छाया से वे बाहर नहीं आए तो उनका संघर्ष प्रभावी नहीं होगा। चुनाव के विश्लेषक बतला रहे थे कि महेन्द्र कर्मा और देवती कर्मा का प्रभाव बहुत नहीं रहेगा। लेकिन 77 प्रतिशत वनवासियों ने विश्लेषकों के अनुमानों को गलत साबित कर दिया। इस वनवासी क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में मतदाता बाहर आएंगे कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। छत्तीसगढ़ के चुनाव की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां नोटा का बटन दबाने वालों का प्रतिशत सबसे अधिक रहा। तीन प्रतिशत मतदाता ने नोटा का उपयोग कर यह बतला दिया कि हम किसी को योग्य नहीं मानते अथवा तो पसंद नहीं करते। सबसे अधिक नोटा का उपयोग बस्तर जिले की विधानसभा क्षेत्रों में किया गया। देश की दोनों बड़ी पार्टियों को बस्तर की जनता ने नकार दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि वनवासी लोकतंत्र में तो विश्वास रखते हैं लेकिन कांग्रेस और भाजपा में नहीं। आकंडे़ बतलाते हैं कि नोटा का उपयोग नहीं होता तो अनेक उम्मीदवारों की किस्मत बदल जाती। चुनाव आयोग से प्राप्त आंकड़े जिन में नोटा का उपयोग किया गया उस पर एक नजर डालना दिलचस्प होगा।
कांकेर 5,208, कोंडगांव 6773, भानुप्रतापपुर 5080, केशकाल 8381, नारायणपुर 6731, जगदलपुर 3469, चित्रकोट 10,848, अंतागढ़ 4710, बस्तर 5529, दंतेवाड़ा 9677, कोटा 4001, बाजापुर 7179 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया। मतदान सूची से पता चलता है कि बस्तर में नोटा के लिए कम से कम 3469 जगदलपुर से लेकर अधिकतम 10848 मतों का प्रयोग नोटा के रूप में किया। इससे एक बात का पता लग जाता है कि मतदान भली प्रकार जानता है कि किसे वोट देना और किसे नहीं? इस व्यवस्था ने राजनीतिक दलों की कलई खोल दी है। इन परिपक्व मतदाताओं ने सिद्ध कर दिया है कि हमारे चुनाव में खड़े प्रतिनिधि और उनकी पार्टियों के प्रति हमारी नाराजगी हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र से कतई नहीं। मतदाताओं की कसौटी पर उनके राजनीतिक दल अथवा प्रत्याशी खरे नहीं उतरे हैं, लेकिन लोकतंत्र में उनकी आस्था शत-प्रतिशत है। पिछले दिनों सम्पन्न विधानसभाओं के चुनाव का सर्वेक्षण करें तो छत्तीसगढ़ में नोटा का सबसे अधिक उपयोग हुआ है। वहां 4.6 प्रतिशत ने नोटा का बटन दबाकर मौन क्रांति की है। इसी प्रकार राजस्थान में 1.92 और मध्य प्रदेश में 1.90 प्रतिशत मतदाता ने नोटा का बटन दबाकर इन राजनीतिक दलों को अंगूठा दिखला दिया है। दिल्ली में जनता बड़ी आशांवित थी इसलिए दिल्ली में 0.63 प्रतिशत लोगों ने ही नोटा का उपयोग किया। ह्यआपह्ण से लोगों को बड़ी उम्मीद थी, लेकिन उसने चुनाव परिणामों के बाद जो तमाशा किया उसने दिल्लीवासियों को बड़ा निराश किया। राजनीतिक निष्णांतों का कहना है कि चुनाव तो नोटा ने ही लड़ा है और वह विजयी रहा है। उसने सिद्ध कर दिया है कि इससे न तो पार्टी की और न ही किसी उम्मीदवार की दादागिरी चल सकेगी। भारतीय चुनाव आयोग ने निश्चित ही एक स्वस्थ, साहसी और तटस्थ कदम उठाकर देश में लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया है। नोटा राजनीतिज्ञों के गले में हड्डी साबित होगी जिसे उगलते और निगलते समय रानजनीतिज्ञों को लोकतंत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाना होगा। राष्ट्रीय मतदाता मंच (मुम्बई) जैसी अनेक संस्थाएं हैं जो हमारे चुनाव आयोग को समय-समय पर चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अपने मूल्यवान प्रस्ताव प्रेषित करती रहती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सेवानिवृत्त चुनाव आयुक्त इन संस्थाओं का मार्गदर्शन करते रहते हैं। आज तो भारत में 750 से भी अधिक पंजीकृत राजनीतिक दल हैं, जिन्हें चुनाव लड़े वषोंर् बीत गए हैं। राम राज्य परिषद् ने प्रथम और द्वितीय आम चुनाव में अपने नाम का डंका बजाया था। लेकिन तीसरे चुनाव के बाद उसका नाम कभी नहीं सुनाई दिया। विधानसभा स्तर पर भी नए दल बनते हैं और टूटते हैं। इस भीड़ को समाप्त करने के लिए कोई स्थायी मार्ग ढूंढना अनिवार्य है।
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