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विजय कुमार
देश-विदेश में सम्पन्न विवेकानंद सार्द्ध शती आयोजनों में कुछ अनूठा दिखाई देता है। इसका आयोजन जहां एक ओर रा.स्व. संघ ने अपने नाम का मोह न करते हुए समाज के सभी वर्गों के सहयोग से किया है, वहीं दूसरी ओर अनेक संस्थाओं ने अपने बैनर पर इसके कार्यक्रम किये हैं। शासन ने भी इसके लिए एक समिति बनाकर कुछ प्रयास किये हैं। ह्यगर्व से कहो हम हिन्दू हैं विवेकानंद का प्रिय वाक्य था; पर सोनिया गंाधी के नेतृत्व वाली केन्द्र की घोर हिन्दू विरोधी सरकार को भी स्वामी विवेकानंद को मान्यता देनी पड़ी है। यह हिन्दुत्व के बढ़ते हुए ज्वार का ही प्रतिफल है।
स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व स्वयं में महान है। उन पर राजाओं या वंशवादी राजनेताओं की तरह महानता थोपी नहीं गयी। यह प्रश्न निरर्थक है कि यदि श्री रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट न होती, तो क्या होता ? तब भी वे किसी न किसी क्षेत्र में अपनी महानता अवश्य सिद्घ करते; पर हिन्दुओं और हिन्दुस्थान के भाग्य से उनके जीवन में श्री रामकृष्ण आये, जिन्होंने उनकी सुप्त शक्तियों को पहचान कर उन्हें जाग्रत किया और उनके जीवन की दिशा को अध्यात्म और सेवा के मार्ग से विश्व कल्याण की ओर परिवर्तित कर दिया।
विवेकानंद सार्द्ध शती के दौरान शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो, जिसने उन पर विशेष सामग्री प्रकाशित न की हो। हर भाषा में हजारों लेख, कहानियां, नाटक, चित्र कथाएं, प्रेरक-प्रसंग आदि लिखे गये हैं। सैकड़ों पुस्तकें भी इस अवसर पर प्रकाशित हुई हैं। भाषण और गोष्ठियों आदि की तो गणना ही नहीं है। रेडियो और दूरदर्शन ने भी विशेष कार्यक्रम प्रसारित किये हैं।
इन सबके द्वारा जिन्होंने स्वामी विवेकानंद के विचार सागर में गोते लगाये हैं, उन्होंने स्वयं को ही धन्य किया है। उनमें से यदि कोई यह दावा करे कि उसने विवेकानंद को पूरी तरह समझ लिया है, तो यह उसकी भूल ही होगी। ह्यपूर्णमद: पूर्णमिदम्ह्ण की तरह रत्नाकर से चाहे जितने रत्न निकाल लें; पर फिर भी वह पूर्ण ही रहता है। ऐसा ही विवेकांनद का व्यक्तित्व है। प्रसंगवश एक और बात का उल्लेख करना यहां उचित होगा। विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। कौन जानता था कि यह नरेन्द्र एक दिन हिन्दू और हिन्दुस्थान की विजय पताका विश्वाकाश में फहराएगा ? ऐसे ही एक और नरेन्द्र (मोदी) के निनाद से इन दिनों भारत की धरती और गगन गूंज रहा है। पिछले दिनों सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव के परिणामों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है।
विवेकानंद ने अपने अनुभव के आधार पर एक बार कहा था कि किसी भी व्यक्ति या विचार को उपेक्षा, विरोध और समर्थन की प्रक्रिया से निकलना पड़ता है। स्वामी जी के विचार कालजयी हैं। युगद्रष्टा होने के नाते उनमें अपने समय से बहुत आगे देखने की क्षमता थी। उन्होंने 1897 में विदेश से लौटकर अगले 50 वर्ष तक केवल और केवल भारत माता को ही अपना आराध्य बनाने का आहवान किया था। उन्होंने अपनी आंखों से भारत माता को जगतमाता के रूप में स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हुए भी देखा था। उनके पहले स्वप्न की पूर्ति, अर्थात 1947 में प्राप्त स्वाधीनता हमारे पूर्वजों की पुण्य का सुफल है; पर अगले स्वप्न को पूरा करने की जिम्मेदारी हमारी पीढ़ी पर है।
स्वामी जी के सार्द्ध शती वर्ष (2014) में यह सुपरिणाम सब देख सकें, तो इससे अच्छा और क्या होगा? उनके संदेश ह्यउत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतह्ण (उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको) को यदि सबने समझा और उसे पूर्ण करने में अपनी शक्ति लगायी, तो फिर सर्वत्र ह्यविजय ही विजयह्ण में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि इसका आश्वासन भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद् भगवत गीता में दिया है –
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: तत्र श्रीर्विजयो भूतिधुर्रवा नीतिर्मतिर्मम:॥18/78॥
(जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गांडीवधारी अर्जुन हैं, वहां पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति का होना भी निश्चित है।)
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